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Tuesday 21 July 2020

आत्म-मंथन

खुद की परिभाषा, कैसे लिख पाऊँ!

सहज नहीं, खुद पर लिख पाना,
खुद से, खुद में छुप जाना,
कल्पित सी बातें हों, तो विस्तार कोई दे दूँ,
अपनी अवलम्बन का, ये सार,
खुद का, ये संसार,
भला, गैरों को, कैसे दे दूँ!

खुद अपनी व्याख्या, कैसे कर जाऊँ ?

मूरत हूँ माटी की, मन है पहना,
ये जाने, चुप-चुप सा रहना,
शायद हूँ, किसी रचयिता की मूर्त कल्पना!
इर्द-गिर्द, इच्छाओं का सागर,
छू जाए, आ-आकर,
कैसे, ये विचलन लिख दूँ!

चुप सा वो अनुभव, कैसे लिख पाऊँ !

उथल-पुथल, मन के ये हलचल,
राज कई, उभरते पल-पल,
परिदग्ध करते, वो ही बीते पल के विघटन!
वो गुंजन, उन गीतों के झंकार,
विस्मृत सा, वो संसार,
व्यक्त, स्वतः कैसे कर दूँ!

खुद की अभिलाषा, कैसे लिख जाऊँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 4 October 2017

कोलाहल

क्या सृष्टि के उस स्रष्टा की, है ये गगनभेदी हुंकार?
काँप उठी ये वसुन्धरा,
उठी है सागर में लहरें हजार,
चूर-चूर से हुए हैं, गगनचुम्बी पर्वत के अहंकार,
दुर्बल सा ये मानव,
कर जोरे, रचयिता का कर रहा मौन पुकार!

क्या सृष्टि के उस स्रष्टा की, है ये गगनभेदी हुंकार?
कोलाहल के है ये स्वर,
कण से कण अब रहे बिछर,
स्रष्टा ने तोड़ी खामोशी, टूट पड़े हैं मौन के ज्वर,
त्राहिमाम करते ये मानव,
तज अहंकार, ईश्वर का अब कर रहे पुकार!

क्या सृष्टि के उस स्रष्टा की, है ये गगनभेदी हुंकार?
या है छलनी उस रचयिता का हृदय!
या पाप की अस्त का, फिर से हुआ है उदय!
या है यह मानव का ही स्व-पराजय!
विजय तलाशते ये मानव,
हो पराश्त, नतमस्तक स्रष्टा को रहे पुकार!

क्या सृष्टि के उस स्रष्टा की, है ये गगनभेदी हुंकार?

Sunday 22 May 2016

तृष्णा और आकांक्षा

जाने कब जगी पहली बार इक आकांक्षा मन में,

क्या तब? सृष्टि की रचना जब की रचयिता नें,
या फिर दे दी प्रबुद्धता भरकर जब उसने उस मन में,
या शायद भर दी होगी तृष्णा उसने ही जीवन में।

प्रबुद्ध तो हुए हम फिर है ये आकांक्षाएँ कैसी,
क्या विवेक के अन्दर ही अन्दर इ्च्छाएँ जन्म हैं लेती,
शायद इ्च्छाओं से ही विवश यहाँ है हर आदमी।

अनन्त इन इच्छाओं को पाने की होड़ है लगी,
आकांक्षाओं के अंदर ही अब प्रबुद्धता लुप्त हो रही,
रचयिता खुद अचम्भित गुण आध्यात्म कहाँ गई।