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Saturday 24 June 2023

जीत

मन में लिए, कई उलझन,
पहली बार, विदा हो आई जब मेरे आंगन,
शंकाओं भरा, 
था बड़ा ही, वो तेरा मन!

पर, कहीं, थी इक लगन,
मध्य उलझनों के, विहँसता रहा तेरा मन,
उम्मीदों भरा, 
था बड़ा ही, वो तेरा मन!

झौंक जाते, तप्त पवन,
चौंक जाते हर आहटों पर, तेरे हृदयांगन,
ममत्व भरा, 
था बड़ा ही, वो तेरा मन!

बिता चुके, इक जीवन,
हर वक्त, संग मेरे इसी देहरी इसी आंगन,
निस्वार्थ सा,
स्वत्व से परे, तेरा मन!

जाने कब हारा ये मन,
तेरे ही नैनों की गलियों में, बेचारा ये मन,
मैं हैरान सा,
छू लूं, प्यारा तेरा मन!

तुम बिन सूना जीवन,
अब तुम बिन, राहों में कितने हैं उलझन,
सब मैं हारा,
जीत चला, तेरा मन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 4 March 2022

जीवटता

सूखी नहीं हैं, ये शाखें, अभी....
खुद ही, खिल उठेंगी, ये फिर सँवर कर!

सूखी नहीं हैं, ये शाखें, अभी....
शायद, लम्बा है जरा, पतझड़ों का ये मौसम!
रोके रखी हैं, सांसें थामकर अन्दर,
ये हवाएं, बस जरा जाएं गुजर!

सूखी नहीं हैं, ये शाखें, अभी....
ग़म के समुन्दर, बहे जा रहे, अन्दर ही अन्दर!
छाले, जो पत्तियां, दें गईं बदन पर,
उठती हैं, कभी, टीस बन कर!

सूखी नहीं हैं, ये शाखें, अभी....
चुप ही चुप, आँकती हैं, मौसमों का मिजाज!
सोंचती हैं, मूंद कर अपनी पलकें,
गुजर जाए, वक्त के ये भंवर!

सूखी नहीं हैं, ये शाखें, अभी....
उनकी ये जीवटता, मिटने भी कहां देगी उन्हें!
जगाएंगे, पलकों तले पलते सपने,
नीरवता भरी, उन राहों पर!

सूखी नहीं हैं, ये शाखें, अभी....
संघर्ष एक लम्बा, इस जिन्दगी का है अधूरा!
लौट ही आएंगे, आस के वो पंछी, 
चहक उठेंगे, इसी डाल पर!

सूखी नहीं हैं, ये शाखें, अभी....
खुद ही, खिल उठेंगी, ये फिर सँवर कर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 23 December 2021

आईना

वक्त संग, तुम ढ़ल ही जाओगे,
कब तलक, आईनों में, खुद को छुपाओगे!

वक्त की, खुली सी है ये विसात,
शह दे, या, कभी दे ये मात,
इस वक्त से, यूं न जीत पाओगे,
कभी हारकर भी, ये बाजी, जीत जाओगे!

दिन-ब-दिन, ढ़ल रहा, ये वक्त,
राह भर, ये मांगती है रक्त,
धार, वक्त के, ना मोड़ पाओगे,
रहगुजर, इस वक्त को ही, तुम बनाओगे!

छल जाएगा, कल ये आईना,
बदल जाएगा, ये आईना,
छवि, इक, अलग ही पाओगे,
वक्त की विसात पर, यूं ढ़ल ही जाओगे!

उसी शून्य में, कभी झांकना, 
कल का, वो ही आईना,
वक्त के वो पल, कैद पाओगे,
वो आईना, चाहकर भी न तोड़ पाओगे!

वक्त संग, तुम ढ़ल ही जाओगे,
कब तलक, आईनों में, खुद को छुपाओगे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 12 November 2021

छाँव

तनिक छाँव, कहीं मिल जाए,
तो, जरा रुक जाऊँ!

यूँ तो, वृक्ष-विहीन इस पथ पर,
तप्त किरण के रथ पर,
तारों के उस पार, तन्हा मुझको जाना है,
इक साँस, कहीं मिल जाए,
दो पल, रुक जाऊँ!

काश ! कहीं, इक पीपल होता,
उन छाँवों में सो लेता,
पांवों के  छालों को, राहत के पल देता,
इक छाँव, कहीं मिल जाए,
दो पल, रुक जाऊँ!

वो कौन यहाँ जो छू जाए मन,
कौन सुने ये धड़कन,
बंजर से वीरानों में, फलते आस कहाँ,
इक आस, कहीं मिल जाए,
दो पल, रुक जाऊँ!

पथ पर, कुछ बरगद बोने दो,
पथ प्रशस्त होने दो,
चेतना के पथ पर, पलती हो संवेदना,
इक भाव, कहीं जग जाए,
दो पल, रुक जाऊँ!

तनिक छाँव, कहीं मिल जाए,
तो, जरा रुक जाऊँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 19 October 2021

धागे

मढ़ते-मढ़ते, रिश्तों के सारे नाज़ुक धागे,
बुनते-बुनते, भावुक से कितने पल,
आ पहुंचे, मंजिल तक हम।

कितने अंजाने थे तुम, और बेगाने से हम,
इक सिमटे से, पल थे तुम, 
और कितने बिखरे से, बादल थे हम,
यूं, चुनते-चुनते, तुझ संग खुद को,
आ पहुंचे, साहिल तक हम।

मढ़ते-मढ़ते, रिश्तों के सारे नाज़ुक धागे...

यूं, आसान न था, बिखरे ये टुकड़े चुनना,
यूं धागों संग, चिथड़े सिलना,
भरमाए से, इस गगन के तारे थे हम,
यूं, चलते-चलते, अंधेरे से राहों में,
आ पहुंचे, मंजिल तक हम।

मढ़ते-मढ़ते, रिश्तों के सारे नाज़ुक धागे...

हौले से, तुम आ बैठे, हृदय के आंगन में,
यूं बरसे, घन जैसे सावन में,
प्यासे, पतझड़ के, सूखे उपवन हम,
यूं, रीतते-रीतते, भीगी बारिश में,
आ पहुंचे, साहिल तक हम।

मढ़ते-मढ़ते, रिश्तों के सारे नाज़ुक धागे...

अब जाने, कितने जन्मों का, ये बंधन है,
किन धागों का, गठबंधन है,
बैठे हैं, तेरे इन आँचल के, साए हम,
यूं, सुनते-सुनते, जीवन के किस्से,
आ पहुंचे, मंजिल तक हम।

मढ़ते-मढ़ते, रिश्तों के सारे नाज़ुक धागे,
बुनते-बुनते, भावुक से कितने पल,
आ पहुंचे, मंजिल तक हम।

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 9 October 2021

पथिक

पथिक इस राह के, हम, दूर तक जाएंगे,
वो पंछी चाह के, हमें भटकाएंगे,
विचलन कई, लुभाने आएंगे!
कह दो जरा, मन से, भटके न वो,
उलझे बड़े, पथ ये सारे, कहीं अटके न वो!

पथिक, इस राह के हम‌....

या, धुंधलाने लगे हों, पथ के सितारे,
या फिर पुकारें, क्षणिक गगन के, छांव सारे, 
और, भरमाते रहे, पथ के वो तारे‌...
लक्ष्य से, विचलित ना हो,
कह दो जरा, मन से, भटके न वो,
भ्रम से भरे, पथ ये सारे, कहीं अटके न वो!

पथिक इस राह के हम.....

बाधाएं बड़ी हों, पथ में शिलाएं खड़ी हों,
दुर्गम घाटियों की, बाहें बड़ी हों,
विपरीत, ये दिशाएं पड़ी हों,
कह दो जरा, मन से, भटके न वो,
कंटक भरे, पथ ये सारे, कहीं अटके न वो!

पथिक इस राह के हम.....

या, हों प्रतिकूल, समय के ये दोधारे,
या बिछड़ने लगे हों, पथ के वो संगी सहारे,
और न हो, सांझ के कोई सहारे...
वक्त से, प्रभावित ना हो,
कह दो जरा, मन से, भटके न वो,
ज़िंदगी के, पड़ाव सारे, कहीं अटके न वो!

पथिक इस राह के हम.....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 21 July 2021

धुंधलाते राह

धुंधलाते राहों पर, आ न सके तुम,
ओझल थे हम, गुम थे तुम!

वैसे, कौन भला, धुँधली सी राह चला,
जब, उजली सी, किरणों ने छला,
भरोसा, उन धुँधलाते सायों पर क्या!
इक धुंधलाते, काया थे हम,
गुम होती, परछाईं तुम!

तुम से मिलकर, इक उम्मीद जगी थी,
धुंधली राहों पर, आस जगी थी,
पर बोझिल थे पल, होना था ओझल!
धूँध भरे इक, बादल थे हम,
इक भींगी, मौसम तुम!

अब भी पथराई आँखें, तकती हैं राहें,
धुंधलाऐ से पथ में, फैलाए बाहें, 
धुंधला सा इक सपना, बस है अपना!
उन सपनों में, खोए से हम,
और अधूरा, स्वप्न तुम!

धुंधलाते राहों पर, आ न सके तुम,
ओझल थे हम, गुम थे तुम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 12 June 2021

प्रवाह में

उजली सी, राह में,
जिन्दगी के, इस प्रवाह में, 
बाकी रह गई,
इक अजनबी सी, 
चाह शायद!

है बेहद, अजीब सा मन!
हासिल है सब,
पर अजीज है, बस चाह वो,
है अजनबी,
पर है, खास वो,
दूर है,
पर है, पास वो,
ख्वाब है,
कर रहा, है बेताब वो,
कुछ फासलों से,
यूँ, गुजर चुके हैं, चाह शायद!

सफर में, साथ में,
वही तस्वीर लिए, हाथ में, 
बाकी रह गई,
इक अजनबी सी, 
चाह शायद!

मौन है वो, पर गौण नहीं!
ये तोलती है मन,
झकझोरकर, टटोलती है मन,
कभी, सुप्त वो,
है कभी, जीवन्त वो,
अन्तहीन सा,
प्रवाह, अनन्त वो,
आस-पास वो,
मन ही, किए वास वो,
कभी, आहटों से,
तोड़ती है मौन, चाह शायद!

ज्वलन्त रात में,
जलते वही हैं, चाह शायद!
बाकी रह गई,
कोई अजनबी सी,
चाह शायद!

अजनबी सी, इस राह में!
यूँ तो, मिला था,
कई अजनबी सी, चाह से,
कुछ, प्रबल हुए,
कुछ, बदल से गए,
कुछ, गुम हुए,
कुछ, पीछे ही पड़े,
रूबरू हो कर,
इस राह में,
कई अलविदा, कह गए,
अजनबी से कुछ,
अब भी बचे, चाह शायद!

मन की वादियों में,
वही ढूंढते हैं, राह शायद!
बाकी रह गई,
कोई अजनबी सी,
चाह शायद!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday 7 June 2021

वो कौन था

वो, जाने कौन था, बड़ा ही मौन था!
पर, वो आँखें, कुछ बोलती थी!

शायद दूर था, उसकी आशाओं का घर!
बांध रखी थी, उम्मीदों की गठरियाँ,
और, ये सफर, काँटों भरा....
राहों में, वो ही कहीं, अब गौण था!
बड़ा ही मौन था!

शायद, धू-धू, सुलग रही थी, आग इक!
जल चुके थे, सारे सपनों के शहर,
और, धुँआ सा, उठता हुआ.....
उस धुँध में, खुद कहीं वो गौण था!
बड़ा ही मौन था!

शायद था थका, हताश अब भी न था!
वो इक परिंदा, था उम्मीदों से बंधा,
और, नीलाभ, तकता हुआ....
आकाश में, खुद कहीं वो गौण था!
बड़ा ही मौन था!

वो, जाने कौन था, बड़ा ही मौन था!
पर, वो आँखें, कुछ बोलती थी!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 19 May 2021

अर्धांग मेरे

आधा ही है, अधिकार तुम्हारा,
या सर्वस्व तुम्हारा,
अर्धांग मेरे!

कह दो, जो भी हो कहना,
खामोश लबों को,
दो बातों का, दो गहना,
चुप-चुप क्या रहना, मृगांक मेरे,
आधा जीवन क्या जीना,
अर्धांग मेरे!

सिर्फ, कहने को, आधे हो,
सर्वस्व, छुपाते हो,
चुप-चुप, लब सीते हो,
हँस कर, छुप-छुप, गम पीते हो,
मेरा अधिकार, मुझे दो,
अर्धांग मेरे!

यूँ, दो नैन, छलक जाने दो,
चैन इन्हें पाने दो,
यूँ, रात गुजर जाने दो,
अभी तो बाकी, जीवन वृतान्त,
निश्चित हो, इक सुखान्त,
अर्धांग मेरे!

देह पत्र तुम, बनूँ कलम मैैं,
यूँ लिखूं प्रपत्र मैं,
पर अधूरी ये पटकथा,
लिखने न पाऊं, तेरी ही व्यथा,
इक सर्वाधिकार, मुझे दो,
अर्धांग मेरे!

ले लो, जो हो तुमको लेना,
खाली, दो हाथों में,
पहनो, तुम मेरा गहना,
यूँ खामोश न रहना, मृगांक मेरे,
आधा जीवन क्या जीना,
अर्धांग मेरे!

आधा ही है, अधिकार तुम्हारा,
या सर्वस्व तुम्हारा,
अर्धांग मेरे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 11 April 2021

सफर

अंजान सी, राह ये, सफर अंजाना,
बस, चले जा रहे, बेखबर इन रास्तों पर,
दो घड़ी, कहाँ रुक गए!
कदम, दो चार पल, कहाँ थम गए!
ये किसने जाना!

जाना किधर, ये है किसको खबर,
कोई रह-गुजर, रोक ले, ये बाहें थामकर,
खोकर नेह में, रुक गए,
किसी की, स्नेह में, कहाँ झुक गए!
ये किसने जाना!

रोकती है राहें, छाँव, ये सर्द आहें,
पर जाना है मुझको, तू कितना भी चाहे,
भले हम, छाँव में सो गए,
यूँ कहीं ठहराव में, पल भर खो गए!
ये किसने जाना!

कोई पल न जाने, भिगो दे कहाँ, 
ये अँसुअन सी, नदी, ये बहता सा, शमाँ,
विह्वल, जो ये पल हो गए,
इक मझधार में, जाने कहाँ खो गए!
ये किसने जाना!
अंजान सी, राह ये, सफर अंजाना,
बस, चले जा रहे, बेखबर इन रास्तों पर,
दो घड़ी, कहाँ रुक गए!
कदम, दो चार पल, कहाँ थम गए!
ये किसने जाना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 10 April 2021

बेजुबां खौफ

जुबां ये, बेजुबां सी हो चली...

अब तो जिंदगी, कैद सी लगने लगी,
अभी, इक खौफ से उबरे, 
फिर, नई इक खौफ!
शेष कहने को है कितना, पर ये सपना!
सपनों तले, क्या उम्र ढ़ली!

जुबां ये, बेजुबां सी हो चली...

पहरे लगे हैं, साँसों की रफ्तार पर,
अवरुद्ध कैसी, सांसें यहाँ,
नया, ये खौफ कैसा!
इस खौफ की, अलग ही, पहचान अब!
पहरों तले, क्या उम्र ढ़ली!

जुबां ये, बेजुबां सी हो चली...

अलग सी ये दास्ताँ, इस दौर की,
बोझिल राह, हर भोर की,
खौफ में, सिमटे हुए,
गुजरते दिन की, अंधेरी सी, सांझ अब!
अंधेरों तले, क्या उम्र ढ़ली!

जुबां ये, बेजुबां सी हो चली...

चुपचाप, सिमटने लगी अब राहें,
बिन बात, अलग दो बाहें,
शून्य को, तकते नैन,
विवश हो एकांत जब, कहे क्या जुबां!
यूंही अकेले, क्या उम्र ढ़ली!

जुबां ये, बेजुबां सी हो चली...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
------------------------------------------------------कोरोना - पार्ट 2....

Sunday 27 December 2020

कैसा परिचय

तुम, अपरिचित तो न थे कभी!
ना मैं अंजाना!

फिर क्यूँ, मुड़ गई ये राहें!
मिल के भी, मिल न पाई निगाहें!
हिल के भी, चुप ही रहे लब,
शब्द, सारे तितर-बितर,
यूँ न था मिलना!

तुम, अपरिचित तो न थे कभी!
ना मैं अंजाना!

कैसी, ये परिचय की डोर!
ले जाए, मन, फिर क्यूँ उस ओर!
बिखरे, पन्नों पर शब्दों के पर,
बना, इक छोटा सा घर,
सजा ले, कल्पना!

तुम, अपरिचित तो न थे कभी!
ना मैं अंजाना!

यूँ तो फूलों में दिखते हो!
कुनकुनी, धूप में खिल उठते हो!
धूप वही, फिर खिल आए हैं,
कई रंग, उभर आए हैं,
बन कर, अल्पना!

तुम, अपरिचित तो न थे कभी!
ना मैं अंजाना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 20 December 2020

और कितने दूर

और कितने दूर, ले जाएगी ये राह!

सब तो, छूट चुका है पीछे,
फिर भागे मन, किन सपनों के पीछे,
वो, जो है रातों के साए,
कब हाथों में आए,
जाने, कहाँ-कहाँ, भटकाएगी,
अधूरी मन की चाह!

और कितने दूर, ले जाएगी ये राह!

जाने कब, भूल चुके सब,
मन के स्नेहिल बंधन, तोड़ चले कब,
बिसराए, नेह भरे गंध, 
वो गेह भरे सुगंध,
तन्हा पल में, याद दिलाएगी,
बन कर इक आह!

और कितने दूर, ले जाएगी ये राह!

अब तक, लब्ध रहा क्या!
क्या प्रासंगिक थी, सारी उपलब्धियाँ!
गिनता हूँ अब तारों को,
मलता हूँ हाथों को,
झूठी चाहत, क्या करवाएगी?
बस, भटकाएगी राह!

और कितने दूर, ले जाएगी ये राह!

प्रसंग कई, जब छूट चले,
जाना, जब खुद अप्रासंगिक हो चले,
तर्क, भला  क्या देना!
राहों में, क्या रोना!
इस प्रश्नकाल में, जग जाएगी!
इक तृष्णा इक चाह!

और कितने दूर, ले जाएगी ये राह!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 4 November 2020

पूछे कोई

मन की गगन पे, वो उतरा था कैसे!

निशा थी, गुम हर दिशा थी,
कहीं बादलों में, छुपी कहकशाँ थी,
न कोई कारवाँ, न कोई निशां,
कोई स्याह रातों से पूछे,
वो गुजरा था कैसे!

मन की गगन पे, वो उतरा था कैसे!

घुलती हुई, पिघलती फिजां,
फिसलन लिए, भीगी थी राहें वहाँ,
आसां न था, खुद को बचाना,
कोई सर्द आहों से पूछे,
वो कहरा था कैसे!

मन की गगन पे, वो उतरा था कैसे!

हलचल सी, रहती प्रतिपल,
वो बेचैन, कहीं ठहरता न इक पल,
ना ठौर कोई, ना ही ठिकाना,
कोई उन ख्यालों से पूछे,
वो ठहरा था कैसे!

मन की गगन पे, वो उतरा था कैसे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday 12 October 2020

मिथक सत्य

इक राह अनन्त, है जाना,
उलझे इन राहों में, मिथ्या को ही सच माना!
नजरों से ओझल, इक वो ही राह रहा,
भ्रम वो, कब टूटा!
मोह-जाल, माया का यह क्रम, कब छूटा!
दिग्भ्रमित, राह वही थामते हैं सब!
शायद, ये जानते हैं सब!

इक मिथ्या को, सच मानते हैं सब!
शायद, ये जानते हैं सब!

जो भी, जीवन में घटा,
इक कोहरा सा, अन्त-काल तक, कब छँटा!
इक मिथक सा, लिखा मन पर रहा,
मिटाए, कब मिटा!
पर, चक्र पर, काल की सब कुछ लुटा,
खुले हाथ, कुछ थामते हैं कब?
शायद, ये जानते हैं सब!

इक मिथ्या को, सच मानते हैं सब!
शायद, ये जानते हैं सब!

वृहद, समय का विस्तार,
बेतार, संवाद कर रहा समय का तार-तार!
पर, मिथक ही, मैं विवाद करता रहा,
विवाद, कब थमा!
समय का, अनसुन संवाद चलता रहा,
अबिंबित, वो बातें मानते हैं कब!
शायद, ये जानते हैं सब!

इक मिथ्या को, सच मानते हैं सब!
शायद, ये जानते हैं सब!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 26 July 2020

उसी पथ पर

सर्वदा, तय पथ पर, तन्हा वो सूरज चला!
बिखेर कर, दिन के उजाले,
अंततः, छोड़ कर,
तम के हवाले!
बे-वश, वो सूरज ढ़ला!

पल, थे वो गम के, जो सांझ बन के ढ़ला!
रुपहले से, उस फलक पर,
बिखरे, रंग काले,
धूमिल उजाले,
बे-रंग, हो सूरज ढ़ला!

हठात् था मैं खड़ा, उसी की सोंच में भूला!
उन्हीं अंधेरों में, खड़ा-खड़ा,
डरा था जरा-जरा,
मन था भरा,
निःशब्द, वो सूरज ढ़ला!

आस कल की लिए, उसी पथ मैं भी चला!
पीछे, क्षितिज पर, उसी के,
जा, मिलने उसी से,
उसे ही बुलाने,
बे-वश, जो सूरज ढ़ला!

सर्वथा, उसी पथ पर, अधखिला वो मिला!
प्रकीर्ण, प्रखर व स्थिर-चित्त,
खोले, दो बाहें पसारे,
गगन के पार,
हँस के, वो सूरज खिला!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 11 June 2020

कोख

हँस उठी, कोख!
मूर्त हो उठी, अधूरी कोई कल्पना!

हँस उठी, कोख!

तब, कोख ने जना,
एक सत्य, एक सोंच, एक भावना,
एक भविष्य, एक जीवन, एक संभावना,
एक कामना, एक कल्पना,
एक चाह, एक सपना,
और, विरान राहों में,
कोई एक अपना!

हँस उठी, कोख!

वो हँसीं, एक जन्मी,
विहँस पड़ी, संकुचित सी ये दिशाएँ,
जगे बीज, हुए अंकुरित, करोड़ों आशाएँ,
करोड़ों नयन, करोड़ों मन,
धड़के, करोड़ों धड़कन,
जगी, एक सी गुंजन,
एक सा कंपन!

हँस उठी, कोख!

कह उठा, कालपथ,
जग पड़ा भविष्य, थाम ले तू ये रथ,
यही एक वर्तमान, ना ही दूजा कोई सत्य,
एक ही पथ, एक ही राह,
रख न कोई और चाह,
बदल न, तू प्रवाह,
एक है गर्भगाह!

हँस उठी, कोख!
मूर्त हो उठी, अधूरी कोई कल्पना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 16 April 2020

बिछड़न

दो साँसों की, बहती दोराहों में,
बिछड़े बहुतेरे...
बिखरे पत्तों पर, रोया कब तरुवर, 
टूटे पत्थर पर, रोया कब गिरिवर,
ये, जीवन के फेरे!

लय अपनी ही, फिर भी, चलती है साँसें,
बस, दो पल आह, हृदय भर लेता है,
फिर, राह पकड़, चल पड़ता है,
बहते नैनों मे, फिर भर जाते हैं सपने,
फिर, गैर कई, बन जाते हैं अपने!
देकर सपन सुनहरे!

दो साँसों की, बहती दोराहों में,
बिछड़े बहुतेरे...

कब टूटे तारों पर, शोक मनाता है अंबर,
बस, दो पल, ठिठक, जरा जाता है,
फिर, चंदा संग, वो इठलाता है,
फिर, लगते हैं घुलने, दो भाव परस्पर,
सँवर उठता है, संग तारों के अंबर!
कट जाते हैं अंधेरे!

दो साँसों की, बहती दोराहों में,
बिछड़े बहुतेरे...

शायद, जीवन का, आशय है, बिछड़न,
आँसू संग, हृदय जरा धुल जाता है,
पल विरह का, यूँ टल जाता है,
फिर, बनती है, जीवन की, इक धुन,
छनक उठती है, पायल रुन-झुन!
सूने हृदय बहुतेरे!

सूनी राहों पर, चल पड़ता है सहचर,
कोई राही, बन जाता है रहबर,
ये, जीवन के घेरे!
दो साँसों की, बहती दोराहों में,
बिछड़े बहुतेरे...

-पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 25 March 2020

एकान्त

चल चुके दूर तक, प्रगति की राह पर!
रुको, थक चुके हो अब तुम,
चल भी ना सकोगे, 
चाह कर!

उस कल्पवृक्ष की, कल्पना में,
बीज, विष-वृक्ष के, खुद तुमने ही बोए,
थी कुछ कमी, तेरी साधना में,
या कहीं, तुम थे खोए!
प्रगति की, इक अंधी दौर थी वो,
खूब दौड़े, तुम,
दिशा-हीन!
थक चुके हो, अब विष ही पी लो,
ठहरो,
देखो, रोकती है राहें,
विशाल, विष-वृक्ष की ये बाहें!
या फिर, चलो एकान्त में
शायद,
रुक भी ना सकोगे!
चाह कर!

तय किए, प्रगति के कितने ही चरण!
वो उत्थान था, या था पतन,
कह भी ना सकोगे,
चाह कर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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एकान्त (Listen Audio on You Tube)
https://youtu.be/hUwCtbv0Ao0