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Sunday 19 March 2023

इन दिनों

उन दिनों, हम गुम थे कहीं...
चुप थी राहें!
गुम कहीं, उन कोहरों में किरण,
मूक, मन का हिरण,
पुकारता किसे!

बे-आवाज, पसरी वो राहें...
संग थी मेरे,
चल पड़ा, चुनकर वो एक पंथ,
लिए सपनों का ग्रंथ,
अपनाता किसे!

बह चला, वक्त का ढ़लान...
वो इक नदी,
बहा ले चली, कितनी ही, सदी,
बह चले, वो किनारे,
संवारता किसे!

दिवस हुआ, अवसान सा...
रंग, सांझ सा,
डूबते, क्षितिज के वे ही छोर,
बुलाए अपनी ओर,
ठुकराएं कैसे!

इन दिनों, हम चुप से यहां...
वे क्षण कहां!
पर बिखरे हैं, फिर वो ही कोहरे,
गगन पे, वो ही घन,
निहारता जिसे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 17 March 2023

उम्र की क्या खता


उम्र की क्या खता, वक्त तू ही बता!

तेरी ही सिलवटों से, झांकता,
भटकता, इक राह तेरी,
ढूंढता, धुंधली आईनों में,
खोया सा पता!

उम्र की क्या खता, वक्त तू ही बता!

इक धार तेरी, सब दी बिसार,
बहाए ले चली, बयार,
उन्हीं सुनसान, वादियों में,
ढूंढ़ू तेरा पता!

उम्र की क्या खता, वक्त तू ही बता!

लगे, अब आईना भी बेगाना,
ढ़ले, सांझिल आंगना,
दरकते कांच जैसे स्वप्न में,
भूल बैठा पता!

उम्र की क्या खता, वक्त तू ही बता!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 28 June 2022

ढ़लती शाम


बोलो ना, नैन तले, कैसे ढ़ल जाती है शाम!

ढ़लते वक्त का आँचल, कौन लेता है थाम!
क्षितिज पर, थककर, कौन हो जाता है मौन!
शायद, घुल जाती हैं, दो नैनों में काजल!
और, क्षितिज पर, घिर आता है बादल,
वक्त सभी, हो जाते हों, बिंदिया के नाम!

बोलो ना, नैन तले, कैसे ढ़ल जाती है शाम!

कदम-ताल करते, कैसे, थम जाते हैं वक्त!
बहते रक्त, नसों में, बरबस, क्यूं होते हैं सुन्न!
शायद, भाल पर, चमक उठते हैं गुलाल!
क्षितिज पर, बिखर जाते हैं सप्त-रंग,
और काजल, कर जाती हों, काम तमाम!

बोलो ना, नैन तले, कैसे ढ़ल जाती है शाम!

महज, संयोग नहीं, यूं, दिवस का ढ़लना!
यूं, पल से पल का मिलना, पल-पल ढ़लना!
शायद, आरंभ तुम हो, अंत तुम ही तक!
नैनों में काजल, बहता हो तुम्हीं तक,
बीत चला, फिर ये लम्हा बस तेरे ही नाम! 

बोलो ना, नैन तले, कैसे ढ़ल जाती है शाम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 15 June 2022

बिसारिए ना


बिसरिए ना, न बिसारने दीजिए,
गांठ, मन के बांधिए,
इधर जाइए!

यूं नाजुक, बड़े ही, ये डोर हैं,
निर्मूल आशंकाओं के, कहां कब ठौर हैं,
ढ़ल न जाए, सांझ ये,
दिये, उम्मीदों के,
इक जलाइए!

बिसरिए ना, न बिसारने दीजिए,
गांठ, मन के बांधिए,
आ जाइए!

धुंधली, हो रही तस्वीर इक,
खिच रही हर घड़ी, उस पर लकीर इक,
सन्निकट, इक अन्त वो,
जश्न, ये बसन्त के,
संग मनाईए!

बिसरिए ना, न बिसारने दीजिए,
गांठ, मन के बांधिए,
आ जाइए!

बिसार देगी, कल ये दुनियां,
एक अंधर, बहा ले जाएगी नामोनिशां,
सिलसिला, थमता कहां,
वक्त ये, मुकम्मल,
कर जाईए!

बिसरिए ना, न बिसारने दीजिए,
गांठ, मन के बांधिए,
आ जाइए!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 13 February 2022

क्या फिर!

क्या, फिर मिलोगे कहीं!
समय और अनन्त के, उस तरफ ही सही!

कहीं न कहीं,
उम्मीद तो, इक रहेगी बनी,
इक आसरा, टिमटिमाता सा, इक सहारा,
एक संबल,
कि, कोई तो है, उस किनारे!

क्या, फिर मिलोगे कहीं!
समय और अनन्त के, उस तरफ ही सही!

अब जो कहीं,
बिछड़ोगे, तो बिसारोगे तुम,
बंदिशों में, आ भी न पाओगे, चाहकर भी,
रखना याद,
कि, हम हैं खड़े, बांहें पसारे!

क्या, फिर मिलोगे कहीं!
समय और अनन्त के, उस तरफ ही सही!

झूठा ही सही,
आसरा, इक, कम तो नहीं,
टूट जाए, भले कल, कल्पना की इमारत,
पले चाहत,
कि, कोई तो है, मेरे भरोसे!

क्या, फिर मिलोगे कहीं!
समय और अनन्त के, उस तरफ ही सही!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 23 December 2021

आईना

वक्त संग, तुम ढ़ल ही जाओगे,
कब तलक, आईनों में, खुद को छुपाओगे!

वक्त की, खुली सी है ये विसात,
शह दे, या, कभी दे ये मात,
इस वक्त से, यूं न जीत पाओगे,
कभी हारकर भी, ये बाजी, जीत जाओगे!

दिन-ब-दिन, ढ़ल रहा, ये वक्त,
राह भर, ये मांगती है रक्त,
धार, वक्त के, ना मोड़ पाओगे,
रहगुजर, इस वक्त को ही, तुम बनाओगे!

छल जाएगा, कल ये आईना,
बदल जाएगा, ये आईना,
छवि, इक, अलग ही पाओगे,
वक्त की विसात पर, यूं ढ़ल ही जाओगे!

उसी शून्य में, कभी झांकना, 
कल का, वो ही आईना,
वक्त के वो पल, कैद पाओगे,
वो आईना, चाहकर भी न तोड़ पाओगे!

वक्त संग, तुम ढ़ल ही जाओगे,
कब तलक, आईनों में, खुद को छुपाओगे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 14 September 2021

संगी सांझ के

ओ संगी मेरे, मेरी सांझ के...

यूँ न फेरो उधर, तुम अपनी आँखें,
देखो इधर, अभी है सवेरा,
घेरे है, तुझको, ये कैसा अंधेरा, 
सिमटने लगा, क्यूँ मुझसे मेरा सवेरा,
आ रख लूँ, तुझे थाम के!

ओ संगी मेरे, मेरी सांझ के...

तू यूँ न कर, जल्दी जाने की जिद, 
यूँ चल कहीं, वक्त से परे,
खाली ये पल, चल न, संग भरें,
छिनने लगे, क्यूँ सांझ के मेरे सहारे,
आ रख लूँ, तुझे बांध के!

ओ संगी मेरे, मेरी सांझ के...

यूँ न देख पाऊँ, क्लांत चेहरा तेरा,
तमस सी, अशान्त साँसें,
क्यूँ न उधार लूँ, वक्त, सांझ से,
भर लूँ जिन्दगी, उभरते विहान से,
आ रख लूँ, तुझे मांग के!

ओ संगी मेरे, मेरी सांझ के...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)
...............................................
- जाने क्यूँ! हो चला, 
सांझ से पहले, सांझ का अंदेशा,
बिखरी सी, लगे हर दिशा!
जाने क्यूँ!

Sunday 11 July 2021

प्रतीक्षा

युग बीता, न बीती इक प्रतीक्षा.....

निःसंकोच, अनवरत, बहा वक्त का दरिया,
पलों के दायरे, होते रहे विस्तृत!
समेटे इक आरजू, बांधे तेरी ही जुस्तजू,
रहूँ कब तक, मैं प्रतीक्षारत!

हो जाने दो, पलों को, कुछ और संकुचित,
ये विस्तार, क्यूँ हो और विस्तृत!
हो चुका आहत, बह चुका वक्त का रक्त,
रहूँ कब तक, मैं प्रतीक्षारत!

कब तक जिए, घायल सी, ये जिजीविषा!
वियावान सी, हो चली हर दिशा,
झांक कर गगन से, पूछता वो ध्रुव तारा,
रहूँ कब तक, मैं प्रतीक्षारत!

जलती रही आँच इक, सुलगती रही आग,
लकड़ियाँ जलीं, बन चली राख,
पड़ी हवनकुंड में, कह रही जिजीविषा,
रहूँ कब तक, मैं प्रतीक्षारत!

युग बीता, न बीती इक प्रतीक्षा.....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 29 June 2021

रुबरू वो

जैसे, ठहरा हुआ, इक आईना था मैं,
बेझिझक, हुए थे रूबरू वो!

थाम कर अपने कदम, रुक चला यूँ वक्त,
पहर बीते, उनको ही निहार कर,
लगा, बहते पलों में, समाया एक छल हो,
ज्यूँ, नदी में ठहरा हुआ जल हो,
यूँ हुए थे, रूबरू वो!

जैसे, ठहरा हुआ, इक आईना था मैं,
बेझिझक, हुए थे रूबरू वो!

शायद, भूले से, कोई लम्हा आ रुका हो,
या, वो वक्त, थोड़ा सा, थका हो,
देखकर, इक सुस्त बादल, आ छुपा हो,
बूँद कोई, तनिक प्यासा सा हो,
रुबरू, यूँ हुए थे वो!

जैसे, ठहरा हुआ, इक आईना था मैं,
बेझिझक, हुए थे रूबरू वो!

पवन झकोरों पर, कर लूँ, यकीन कैसे!
रुक जाए किस पल, जाने कैसे,
मुड़ जाएँ, बिखेर कर, कब मेरी जुल्फें,
बहा लिए जाए, दीवाना सा वो,
बेझिझक, रुबरू हो!

जैसे, ठहरा हुआ, इक आईना था मैं,
बेझिझक, हुए थे रूबरू वो!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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- Dedicated to someone to whom I ADMIRE & I met today and collected Sweet Memories & Amazing Fragrance...
It's ME, to whom I met Today...

फिर याद आए

फिर याद आए, वो सांझ के साए....

था कोई साया, जो चुपके से पास आया,
थी वही, कदमों की हल्की सी आहट,
मगन हो, झूमते पत्तियों की सरसराहट,
वो दूर, समेटे आँचल में नूर वो ही,
रुपहला गगन, मुझको रिझाए....

फिर याद आए, वो सांझ के साए....

हुआ एहसास, कि तुझसे मुक्त मैं न था,
था रिक्त जरा, मगर था यादों से भरा,
बेरहम तीर वक्त के, हो चले थे बेअसर,
ढ़ल चला था, इक, तेरे ही रंग मैं,
बेसबर, सांझ ने ही गीत गाए....

फिर याद आए, वो सांझ के साए....

ढ़लते गगन संग, तुम यूँ, ढ़लते हो कहाँ,
छोड़ जाते हो, कई यादों के कारवाँ,
टाँक कर गगन पर, अनगिनत से दीये,
झांकते हो, आसमां से जमीं पर,
वो ही रौशनी, मुझको जगाए....

फिर याद आए, वो सांझ के साए....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday 24 May 2021

संबल

एकाकी, मैं कब था!
कुछ यादें थी,
यूँ, मैं था,
ज्यूँ, संग मेरे मेरा रब था!

अनवरत, चला वक्त का रथ,
रूठ चले कितने, अपने, छूट चले कितने,
उनकी ही, मीठी यादों के पल,
उभर आए, बन कर संबल,
यूँ, मैं था,
ज्यूँ, संग मेरे मेरा रब था!

बन बिखरे, आँखों के मोती,
बिन मौसम, इक बारिश, यूँ रही भिगोती,
भींगे से हम, भीगे यादों के क्षण,
हर क्षण, बरसा वो सावन,
यूँ, मैं था,
ज्यूँ, संग मेरे मेरा रब था!

रिक्तताओं के मध्य, मरुवन,
व्यस्तताओं के मध्य, पुकारता वो दामन,
समेटता, गहराता वो आलिंगन, 
हर पल, आबद्ध रहा मन,
यूँ, मैं था,
ज्यूँ, संग मेरे मेरा रब था!

एकाकी, मैं कब था!
कुछ यादें थी,
यूँ, मैं था,
ज्यूँ, संग मेरे मेरा रब था!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday 19 April 2021

रक्तरंजित बिसात

वक्त की, ये रक्तरंजित बिसात,
शह दे या मात!

कौन जाने, क्या हो अगले पल!
समतल सी, इक प्रवाह हो, 
या सुनामी सी हलचल!
अप्रत्याशित सी, इसकी हर बात!

वक्त की, ये रक्तरंजित बिसात,
शह दे या मात!

प्राण फूंक दे या, ये हर ले प्राण!
ये राहें कितनी, हैं अंजान!
अति-रंजित सा दिवस,
या इक घात लगाए, बैठी ये रात!

वक्त की, ये रक्तरंजित बिसात,
शह दे या मात!

जाल बिछाए, वक्त के ये मोहरे,
कब धुंध छँटे, कब कोहरे,
कब तक हो, संग-संग,
कब संग ले उड़े, इक झंझावात!

वक्त की, ये रक्तरंजित बिसात,
शह दे या मात!

कोरोना, वक्त का धूमिल होना,
पल में, हाथों से खो देना,
हँसते-हँसते, रो देना,
रहस्यमयी दु:खदाई, ये हालात!

वक्त की, ये रक्तरंजित बिसात,
शह दे या मात!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 7 March 2021

चुप न रह पाओगे

मेरी ख़ामोशियों को,
जब भी, तन्हाईयों में गुनगुनाओगे!
चुप न रह पाओगे!

रोक ही लेगी तेरी राहें, मेरी सर्द आहें, 
कदम, डगमगाएंगे,
थमीं पलकें, भिगो ही जाओगे,
चुप न रह पाओगे!

यूँ तो, मन के हारे, तुम हो संग हमारे,
नहीं हम, बेसहारे,
इक छवि में, ढ़ल कर गाओगे,
चुप न रह पाओगे!

गगण के पार हो, या हो गगण से परे,
सर्वदा ही, हो मेरे,
मल्हार बन कर, बरस जाओगे,
चुप न रह पाओगे!

खुद में झाँकना, यूँ खुद को आँकना,
खुदा को, माँगना,
सारी खुदाई, यूँ भूल जाओगे,
चुप न रह पाओगे!

रह-रह बज उठेंगी, हाथों की चूड़ियाँ,
तोड़ कर, बेरियाँ,
खाली पाँव, दौड़ कर आओगे,
चुप न रह पाओगे!

गुजरते वक्त की, हर शै पर मैं लिखूँ,
चुप रहूँ, खुद बुनूँ,
जब पढ़़ोगे, तुम जान जाओगे,
चुप न रह पाओगे!

खनक ही उठेंगे, जीर्ण वीणा के तार,
कर उठोगे, श्रृंगार,
ये हृदय, कैसे संभाल पाओगे,
चुप न रह पाओगे!

मेरी ख़ामोशियों को,
तन्हाईयों में, जब भी गुनगुनाओगे!
चुप न रह पाओगे!

Friday 3 January 2020

दुआ (बुजुर्ग)

दुआ उन्हीं की, ले आएगी पुरवाई!

हमारे बुजुर्ग, तन्हाई में खुद को समेटे, इन्तजार में पथराई आँखों  और टूटती साँसों के अन्तिम क्षणों में भी, अपने बच्चों के लिए लबों पर दुआ की कामना ही रखते हैं।

जीवन के बेशकीमती वक्त हमारे देख-रेख में गुजारते हुए वे भूल जाते हैं कि उनकी अगली पीढ़ी के पास, उन्हीं के लिए वक्त नहीं है। अपने रिक्त हाथों में दुआओं की असंख्य लकीरे लिए, वे हमारा ही इन्तजार करते बैठे होते हैं । ये युवा पीढ़ी पर निर्भर करता है कि वो इन बेशकीमती दुआओं को समेट कर अपना दामन भरे या रिक्तताओं से भरा एक भविष्य की वो भी बाट जोहें।

शायद एक पुरवाई बहे, इसी उम्मीद में,  प्रस्तुत है चंद पंक्तियाँ, एक रचना के स्वरूप में ....

दुआ उन्हीं की, ले आएगी पुरवाई!

जीर्ण हुए, उन हाथों में न थी ताकत,
दीर्घ रिक्तता थी, बची न थी जीने की चाहत,
पर उन आँखों में थी, नेक सी रहमत,
सर पर, हाथ उसी ने थी फिराई!

दुआ उन्हीं की, ले आएगी पुरवाई!

लम्हे शेष कहाँ थे, उनकी जीवन के,
जाते हर लम्हे, दे जाते इक दस्तक मृत्यु के,
शब्द-शब्द थे, उनकी बस करुणा के,
उस करुणा में, जैसे थी तरुणाई!

दुआ उन्हीं की, ले आएगी पुरवाई!

उस अन्तिम क्षण, पलकें थी पथराई,
वो दूर कहीं थे, जिन पर थी ममता बरसाई,
मन विह्वल थे, वो आँखें थी भर आई,
अन्त समय, होते कितने दुखदाई!

दुआ उन्हीं की, ले आएगी पुरवाई!

संग कहाँ है कोई, जीवन के उस पार,
मंद मलय बहती है, बस जीवन के इस पार,
बह चली ये मंद समीर, आज उस पार,
मन पर मलयनील, यह कैसी छाई!

दुआ उन्हीं की, ले आएगी पुरवाई!

आह न उनकी लेना, बस परवाह जरा उनकी कर लेना। कल ये बुजुर्ग, शायद, कभी हम में ही न लौट आएं, और कटु एक अनुभव, ऐसा ही, जीवन का ना दे जाएँ।

क्यूँ न, जीवन चढ़ते-चढ़ते, भविष्य की नई एक राह गढ़ते चलें । बुजुर्गों के हाथ उठे, तो बस एक खुशनुमा सा दुआ बनकर। दुआ उन्हीं की, ले आएगी पुरवाई!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 29 September 2019

गुजरता वक्त

वक्त है गतिमान, रिक्त है वर्तमान,
वक्त से विलग, बस बचा है ये वियावान,
और है बची, इक मृग-मरीचिका,
सुनसान सा, कोई रेगिस्तान!

रिक्त से हैं लम्हे, सिक्त हैं एहसास,
गुजरता वक्त, छोड़ गया है कुछ मेरे पास!
अंदर जागी है, इक अकुलाहट सी,
जैसे कुछ थम सी गई है साँस!

वो समृद्ध अतीत, ये रिक्त वर्तमान,
खाली से हाथ, पल-पल टूटता अभिमान,
दूर से चिढ़ाता हुआ, वो ही आईना,
था कल तक, जिस पर गुमान!

जाने लगी है दूर, मरुवृक्ष की छाया,
कांति-विहीन, दुर्बल, होने लगी है काया,
सिमटने लगी हैं, धुंधली सी सांझ,
न ही काम आया, ये सरमाया!

सब लगता है, कितना असहज सा,
जैसे अपना ही कुछ, हो चुका पराया सा,
कैद हों चुकी हैं, जैसे कुछ तस्वीरें,
यादों में है बसा, चुनवाया सा!

है असलियत, गुजर जाता है वक्त,
तकती हैं ये हताश आँखें, होकर हतप्रभ,
तलाशती है "क्या कमी है मुझमें",
ढ़ूँढ़ती है, बीता सा वही वक्त!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Tuesday 2 April 2019

वक्त के संग

यूँ! वक्त के संग, थोड़े हम भी गए बदल...

ठहरा कहीं न जीवन, शाश्वत है परिवर्तन,
गतिशील वक्त, हो वन में जैसे हिरण,
न छोड़ता कहीं, अपने पाँवों की भी निशानी,
चतुर-चपल, फिर करता है ये चतुराई,
वक्त बड़ा ही निष्ठुर, जाने कब कर जाए छल!

यूँ! वक्त के संग, थोड़े हम भी गए बदल...

न की थी वक्त ने, कोई हम पे मेहरबानी,
करवटें खुद ही, बदलता रहा हर वक्त,
तन्हाई खुद की, है उसे किसी के संग मिटानी,
सोंच कर यही, रहता वो संग कुछ पल,
फिर मौसमों की तरह, बस वो जाता है बदल!

यूँ! वक्त के संग, थोड़े हम भी गए बदल...

हैं बड़े ही बेरहम, वक्त के ज़ुल्मों-सितम,
चल दिए तोड़ कर, मन के सारे भरम,
यूँ न कोई किसी से करे, छल-कपट बेईमानी,
ज्यूं कर गया है, वक्त अपनी मनमानी,
बिन धुआँ इक आग यह, इन में न जाएं जल!

यूँ! वक्त के संग, थोड़े हम भी गए बदल...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Monday 4 March 2019

अनवरत

अनवरत, वक्त के प्रतिबद्ध धारे!

विवश हैं, या हैं बेचारे?
किसी वचनवद्धता के मारे!
या अपनी ही प्रतिबद्धता से हारे!
हैं ये कटिबद्ध धारे!

अनवरत, वक्त के प्रतिबद्ध धारे!

आबद्ध, हैं ये किसी से?
या हैं स्वतंत्र, रव के सहारे!
अनन्त भटके, किस को पुकारे!
हैं ये प्रलब्द्ध धारे!

अनवरत, वक्त के प्रतिबद्ध धारे!

पल-भर, को ना ठहरे!
अनन्त राह, निर्बाध गुजरे!
चुप-चुप, गुमसुम से बेसहारे!
है ये विश्रब्ध धारे!

अनवरत, वक्त के प्रतिबद्ध धारे!

अस्तब्ध, गतिमान ये!
विश्रब्ध, भरे विश्वास से!
निश्वांस, राह अनन्त ये चले!
हैं ये अदग्ध धारे!

अनवरत, वक्त के प्रतिबद्ध धारे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Tuesday 5 February 2019

वक्त से रंजिशें

वक्त की है साजिशें, या है बेवजह की ये रंजिशें!

था बेहद ही अजीज वो,
था दिल के बेहद ही करीब वो,
चुपके से, दुनियाँ से छुपके,
पुकारा था उसे मैनें,
डग भरता वक्त,
बेखौफ आया मेरे करीब,
बनकर मेरा अजीज,
तोड़ कर ऐतबार, छोड़ शरम,
मुझसे ही, करता रहा साजिश!

वक्त की है साजिशें, या है बेवजह की ये रंजिशें!

पनाहों में अपने लेकर,
आगोश में, हौले से भर कर,
सहलाता है हँसकर,
फेरकर रुख, करवटें बदल,
रचता है साजिश,
ये रंग, ये रंगत, ये कशिश,
मेरी उम्र पुरकशिश,
पल-पल, मेरे इक-इक क्षण,
मुझसे छीन, ले जाता है संग!

वक्त की है साजिशें, या है बेवजह की ये रंजिशें!

खफा हूँ मैं वक्त से,
रास कहाँ आया है वो मुझे,
टूटा है मेरा भरम,
उसे न आया मुझपे रहम,
रहा मेरा वहम,
कि वक्त का है करम!
जुदा हुआ मुझसे,
व्यर्थ गई है सारी कोशिशें,
अब भी है, वक्त से मेरी रंजिशें!

वक्त की है साजिशें, या है बेवजह की ये रंजिशें!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday 4 November 2018

पन्ने अतीत के

पन्ने अतीत के कुछ,
पलटे, अचानक हवाओं में बिखर गए!

सदियों ये चुप थे पड़े,
काल-कवलित व धूल-धुसरित,
वक्त की परत मे दबे,
मुक्त हुए, आज ये मुखर हुए!

पन्ने अतीत के कुछ,
पलटे, अचानक हवाओं में बिखर गए!

फड़-फड़ाते से ये पन्ने,
खंड-खंड, अतीत के हैं ये पहने,
अब लगे हैं ये उतरने,
यूँ चेहरे अतीत के, मुखर हुए।

पन्ने अतीत के कुछ,
पलटे, अचानक हवाओं में बिखर गए!

पल, था जो वहीँ रुका!
पल, न था जिसको मैं जी सका!
शिकवे और शिकायतें,
रुके वो पल, मुझसे कर गए!

पन्ने अतीत के कुछ,
पलटे, अचानक हवाओं में बिखर गए!

कुछ गैर अपनों से भले,
कभी, अपनों से ही गए थे छले,
पहचाने से वो चेहरे,
नजरों के सामने, गुजर गए!

पन्ने अतीत के कुछ,
पलटे, अचानक हवाओं में बिखर गए!

गर्दिशों में वक्त की कहीं,
मुझ से, खोया था आईना मेरा,
शक्ल पुरानी सी मेरी,
अतीत की, गर्भ में दिख गए!

पन्ने अतीत के कुछ,
पलटे, अचानक हवाओं में बिखर गए!

सामने था भविष्य मेरा,
अतीत की, उसी नींव पे ठहरा,
कुछ ईंटें उस नींव की,
वर्तमान में रखो, ये कह गए!

पन्ने अतीत के कुछ,
पलटे, अचानक हवाओं में बिखर गए!

Thursday 18 October 2018

इंतजार

बस यूँ ही, उनसे हुई थी गुफ्तगू दो चार,
शायद उन्हें था, उस तूफाँ के गुजर जाने का इंतजार!

था मुझे भी एक ही इंतजाार...,
वो तूफाँ, गुजरता रहे इसी राह हर-बार!
होती रही अनवरत बारिशें,
दमकती रहे दामिनी, गरजते रहें बादल,
लड़खड़ाते रहें उनके कदम,
रुकते रहें, दर मेरे ही वो बार-बार.....

था सदियों किया मैंने इंतजार...,
एक पल, काश वो मुझ संग लेते गुजार!
सजाता मैं तन्हाई अपनी,
रोकता उन्हें, थामकर उनका ही आँचल,
या रोक देता वक्त के कदम,
मिन्नतें यही, मैं करता उनसे हजार....

था शायद उन्हें भी ये इंतजार....,
कोई सदा, कर गई थी उन्हे भी बेकरार!
दमकने लगी थी दामिनी,
गरजने लगे थे, कयामत के वही बादल,
निकल पड़े थे उनके कदम,
चौखट मेरे, आ पड़े वो पहली बार....

बस यूँ ही, उनसे हुई थी गुफ्तगू दो चार,
न था अब उन्हें, किसी तूफाँ के गुजरने का इंंतजार!