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Monday 12 October 2020

मिथक सत्य

इक राह अनन्त, है जाना,
उलझे इन राहों में, मिथ्या को ही सच माना!
नजरों से ओझल, इक वो ही राह रहा,
भ्रम वो, कब टूटा!
मोह-जाल, माया का यह क्रम, कब छूटा!
दिग्भ्रमित, राह वही थामते हैं सब!
शायद, ये जानते हैं सब!

इक मिथ्या को, सच मानते हैं सब!
शायद, ये जानते हैं सब!

जो भी, जीवन में घटा,
इक कोहरा सा, अन्त-काल तक, कब छँटा!
इक मिथक सा, लिखा मन पर रहा,
मिटाए, कब मिटा!
पर, चक्र पर, काल की सब कुछ लुटा,
खुले हाथ, कुछ थामते हैं कब?
शायद, ये जानते हैं सब!

इक मिथ्या को, सच मानते हैं सब!
शायद, ये जानते हैं सब!

वृहद, समय का विस्तार,
बेतार, संवाद कर रहा समय का तार-तार!
पर, मिथक ही, मैं विवाद करता रहा,
विवाद, कब थमा!
समय का, अनसुन संवाद चलता रहा,
अबिंबित, वो बातें मानते हैं कब!
शायद, ये जानते हैं सब!

इक मिथ्या को, सच मानते हैं सब!
शायद, ये जानते हैं सब!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 13 June 2019

दूरियाँ

असह्य सी हैं, हर पल बढ़ती दूरियाँ!

दर्द ही दे गया, उनसे ये बिछड़न,
पीड़ कैसे सह सकेगा, नाजुक सा ये मन,
तोड़ कैसे पाएगा, उनसे ये बंधन,
जोड़ती है क्यूँ, रिश्ते दूरियाँ!

दुरूह सा है कितना, ये बिछड़न,
उभरते फासलों में, बढ़ता हुआ विचलन,
पल-पल, तेज होती एक धड़कन,
असह्य हैं, ये बढ़ती दूरियाँ!

तड़प, दर्द और उभरता विषाद,
अन्तर्द्वन्द्व, विछोह, जन्म लेता अवसाद,
मन से मन का, हर-पल इक विवाद,
रह-रह के, कुरेदती दूरियाँ!

रिश्तों की, ये नाजुक बारीकियाँ,
दूरियों में, पल-पल बढ़ती नजदीकियाँ,
हर पल ऊँघता, पनपता गठबंधन,
उत्पीड़न, देती हैं दूरियाँ!

क्यूँ न बन जाए, फिर अफसाने,
हुए जो बेगाने, जोड़ ले वो रिश्ते पुराने,
चल रे मन, चल नाप ले फासले,
चलो कर ले तय, दूरियाँ!

असह्य सी हैं, हर पल बढ़ती दूरियाँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday 18 February 2018

तो हो अच्छा

वाद-परिवाद, चर्चा-परिचर्चा,
निष्कर्ष इन सबका हो कोई, तो हो अच्छा..

होते रहे परिवाद, घटते रहे विवाद,
मिटते रहे मन के सारे विषाद,
कुछ याद रखने लायक हो जो वाद,
स्वाद सबके जीवन में भरे, तो हो अच्छा...

निरर्थक ही हो जब बातों के मंथन,
निरर्थक हो जज्बातों के गूंथन,
फिर टूट जाते है मन के ये अवगुंठन,
जब अर्थ भरे जज्बातों में, तो हो अच्छा....

चर्चा हो मन के असह्य पीड़ा की,
वेदना में तपते से जीवन की,
विरह में जलते मन के आलिंगन की,
सावन में सूखे की हो चर्चा, तो हो अच्छा....

जो क्रियात्मकता का करे सृजन,
ज्ञान की ओर हो अनुशीलन,
आत्मबोध का कर सके विश्व मंचन,
आत्मज्ञान पर हो परिचर्चा, तो हो अच्छा....

कुशाग्रता का न हो कोई अभाव,
अज्ञानता हो जब निष्प्रभाव,
विवेकशीलता का दूरगामी प्रभाव,
संस्कार के जले हो प्रकाश, तो हो अच्छा....

वाद-परिवाद, चर्चा-परिचर्चा,
निष्कर्ष इन सबका हो कोई, तो हो अच्छा..