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Wednesday 25 March 2020

एकान्त

चल चुके दूर तक, प्रगति की राह पर!
रुको, थक चुके हो अब तुम,
चल भी ना सकोगे, 
चाह कर!

उस कल्पवृक्ष की, कल्पना में,
बीज, विष-वृक्ष के, खुद तुमने ही बोए,
थी कुछ कमी, तेरी साधना में,
या कहीं, तुम थे खोए!
प्रगति की, इक अंधी दौर थी वो,
खूब दौड़े, तुम,
दिशा-हीन!
थक चुके हो, अब विष ही पी लो,
ठहरो,
देखो, रोकती है राहें,
विशाल, विष-वृक्ष की ये बाहें!
या फिर, चलो एकान्त में
शायद,
रुक भी ना सकोगे!
चाह कर!

तय किए, प्रगति के कितने ही चरण!
वो उत्थान था, या था पतन,
कह भी ना सकोगे,
चाह कर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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एकान्त (Listen Audio on You Tube)
https://youtu.be/hUwCtbv0Ao0

Saturday 17 February 2018

विचार

पी-पीकर अमृत, यहाँ रोज मर रहा मानव,
विष के कुछ घूंट पीकर, क्या मर पाएगा मानव!

विषपान किया जब जीवन का,
तब ही जी पाया है मानव,
जीवन के ज्वाला में जल जल,
रोज ही जी रहा है मानव,
व्यथा के भार सहकर, क्या मर पाएगा मानव?

नित अनन्त राह चलते जाने को,
आराम समझ रहा मानव,
साँसों में धू-धू जलते जाने को,
जीना समझ रहा मानव,
अगम अथाह जीवन, क्या थाह पाएगा मानव?

क्षणिक सुख की दो घड़ियों को,
अमृत समझ रहा मानव,
इन दो दो घड़ियों को गिन गिन,
पल पल मर रहा मानव,
विष को अमृत प्याला, समझ पी रहा मानव?

इस ब्रम्हांड के लघु अंश है हम,
कब ब्रम्ह हुआ है मानव?
श्रष्टा की लघु कठपुतली हम,
ब्रम्ह में मिला है मानव!
ब्रम्हलीन होकर, सर्वथा अमर हुआ है मानव!

जिंदा सांसों के बोझ, लेकर चला रहा वो,
घूंट-घूंट गरल के पीकर, नीलकंठ बना है मानव!