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Thursday 23 December 2021

आईना

वक्त संग, तुम ढ़ल ही जाओगे,
कब तलक, आईनों में, खुद को छुपाओगे!

वक्त की, खुली सी है ये विसात,
शह दे, या, कभी दे ये मात,
इस वक्त से, यूं न जीत पाओगे,
कभी हारकर भी, ये बाजी, जीत जाओगे!

दिन-ब-दिन, ढ़ल रहा, ये वक्त,
राह भर, ये मांगती है रक्त,
धार, वक्त के, ना मोड़ पाओगे,
रहगुजर, इस वक्त को ही, तुम बनाओगे!

छल जाएगा, कल ये आईना,
बदल जाएगा, ये आईना,
छवि, इक, अलग ही पाओगे,
वक्त की विसात पर, यूं ढ़ल ही जाओगे!

उसी शून्य में, कभी झांकना, 
कल का, वो ही आईना,
वक्त के वो पल, कैद पाओगे,
वो आईना, चाहकर भी न तोड़ पाओगे!

वक्त संग, तुम ढ़ल ही जाओगे,
कब तलक, आईनों में, खुद को छुपाओगे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday 8 July 2019

इस हुजूम में

कौन हैं हम? न जाने इस भीड़ में क्यूं मौन हैं हम!
इक प्रश्न है हर नजर में, हर प्रश्न में गौण हैं हम,
अनुत्तरित हैं, असंख्य ऐसे प्रश्न इस हुजूम में!

चेहरा एक तेरा, एक मेरा भी है चेहरों के हुजूम में!
ढ़ोए जा रहा है, यही भीड़, तुझको और मुझको,
अन्तहीन सा दौड़ है, गुम है सब इस हुजूम में!

उदास से हैं चेहरे, उन पर बदहवासियों के हैं पहरे!
शायद, खुद का पता, खुद ही तलाशती है आँखें,
वजूद, कुछ तेरा और मेरा भी है इस हुजूम में!

अपनत्व है इक दिखावा, साथ तो है इक छलावा!
जी ले कोई अपनी बला से, या कोई मरता मरे,
इन्सानियत गिर चुका है, इतना इस हुजूम में!

कौन दावा करे? झूठा दंभ कोई क्यूं खुद पर भरे!
कभी शह, कभी मात है, वक्त की ये विसात है,
खुद ही जिन्दगी, छल चुकी है इस हुजूम में!

चेहरा एक तेरा, एक मेरा भी है चेहरों के हुजूम में!
ढ़ोए जा रहा है, यही भीड़, तुझको और मुझको,
अन्तहीन सा दौड़ है, गुम है सब इस हुजूम में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Wednesday 11 July 2018

लकीरें

मिटाए नहीं मिटती ये सायों सी लकीरें.......

कहता इसे कोई तकदीर,
कोई कहता ये है बस हाथों की लकीर,
या गूंदकर हाथों पर,
बिछाई है इक बिसात किसी ने!

यूं चाल कई चलती ये हाथों की लकीरें.......

शतरंज सी है ये बिसात,
शह या मात देती उम्र सारी यूं ये साथ,
या भाग्य के नाम पर,
खेला है यहां खेल कोई किसी ने!

लिए जाए है कहां ये हाथों की लकीरें.......

आड़ी तिरछी सी राह ये,
कर्म की लेखनी का है कोई प्रवाह ये,
इक अंजाने राह पर,
किस ओर जाने भेजा है किसी ने!

मिटती नहीं हाथ से ये सायों सी लकीरें.......

या पूर्व-जन्म का विलेख,
या खुद से ही गढ़ा ये कोई अभिलेख,
कर्म की शिला पर,
अंकित कर्मलेख किया है किसी ने!

तप्तकर्म की आग से बनी है ये लकीरें......