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Saturday 11 January 2020

चोट

शतदल हजार छू के, टोक गए झौंके!

हुए बेजार, टूटे तार-तार!
टीस सी उठी, असह्य सी चोट लगी,
सर्द कोई, इक तीर सी चली,
मन ही, चीर चली,
गुजरे, वो जिधर हो के...

शतदल हजार छू के, टोक गए झौंके!

बार-बार, फिर वो बयार!
हिल उठी, जमीं, नींव ही ढ़ह चुकी,
खड़ी थी, वो वृक्ष भी गिरी,
बिखरे थे, पात-पात,
गुजरे, वो जिधर हो के...

शतदल हजार छू के, टोक गए झौंके!

टोके ना कोई, यूँ बेकार!
अपना ले, यूँ सपने तोड़े न हजार,
चोट यही, मन की न भली,
सूखी है, हर कली,
गुजरे, वो जिधर हो के...

शतदल हजार छू के, टोक गए झौंके!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 27 December 2019

बेर और बैर

बोए थे हमने भी, बेर के बीज!
वृक्ष उगे, हरियाली छाई,
बाग भी, कुछ पल को इतराई,
खुश थे हम, बेर लगेंगे,
खट्टे-मीठे, कुछ हम भी चख लेंगे,
लेकिन, उसने पाले थे काँटे,
दामन में, उसके थे जितने,
सब, उसने बाँटे!

बेर ने, खूब निभाई मुझसे ही बैर!
चलो खैर, समझ ये आई,
न बोना था, ये बेर मुझे ऐ भाई,
कल को ये, दुख ही देंगे,
आते-जाते, बरबस पाँवों में चुभेंगे,
भर ही देंगे ये, राहों में काँटे,
दर्द, पड़ेंगे खुद ही सहने,
गर, उसने बाँटे!

फिर भी, रोप रहे वो थोक में बेर!
सबकी मति, गई है मारी,
फैल गई है, शायद ये महामारी,
बन कर रोग, बैर उगेंगे,
रिश्ते लहु-लुहान, ये काँटे कर देंगे,
बनेंगे, दुःख के कारण काँटे,
बैर मन के, बढ़ेंगे जितने,
विषैले, होंगे काँटे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 8 December 2018

परिहास

माना भारी है परिवर्तन का यह क्षण,
सुर विहीन अभी है जीवन,
ये सम पर फिर से आएंगी, तुम विश्वास करो,
ना इन पर, तुम परिहास करो.....

मेरे सपनों में, तुम भी अपना विश्वास भरो,
ना मुझ पर, तुम परिहास करो.....

नई कोपलें फिर आएंगी,
ये ठूंठ वृक्ष,
नग्न डालियाँ,
पीले से बिखरे पत्ते सारे,
सब हैं...
उस पतझड़ के मारे,
ना इन पर उपहास करो....
तुम विश्वास भरो...

ना इन पर, तुम परिहास करो.....

संसृति मृत होती नहीं,
ना ही घन,
ना ये नदियाँ,
ना ही मिटते नभ के तारे,
सब हैं...
इस मौसम के मारे,
ना इन पर उपहास करो
तुम विश्वास भरो...

जारी है ऋतुओं का क्रमिक अनुवर्तन,
रंग विहीन अभी है जीवन,
ये फिर रंगों में रंग जाएगी, तुम विश्वास करो,
ना इन पर, तुम परिहास करो.....

मेरे सपनों में, तुम भी अपना विश्वास भरो,
ना मुझ पर, तुम परिहास करो.....

Friday 3 November 2017

स्नेह वृक्ष

बरस बीते, बीते अनगिनत पल कितने ही तेरे संग,
सदियाँ बीती, मौसम बदले........
अनदेखा सा कुछ अनवरत पाया है तुमसे,
हाँ ! ... हाँ! वो स्नेह ही है.....
बदला नही वो आज भी, बस बदला है स्नेह का रंग।

कभी चेहरे की शिकन से झलकता,
कभी नैनों की कोर से छलकता,
कभी मन की तड़प और संताप बन उभरता,
सुख में हँसी, दुख में विलाप करता,
मौसम बदले! पौध स्नेह का सदैव ही दिखा इक रंग ।

छूकर या फिर दूर ही रहकर!
अन्तर्मन के घेरे में मूक सायों सी सिमटकर,
हवाओं में इक एहसास सा बिखरकर,
साँसों मे खुश्बू सी बन कर,
स्नेह का आँचल लिए, सदा ही दिखती हो तुम संग।

अमूल्य, अनमोल है यह स्नेह तेरा,
दूँ तुझको मैं बदले में क्या? 
तेरा है सबकुछ, मेरा कुछ भी तो अब रहा ना मेरा,
इक मैं हूँ, समर्पित कण-कण तुझको,
भाव समर्पण के ना बदलेंगे, बदलते मौसम के संग।

है सौदा यह, नेह के लेन-देन का,
नेह निभाने में हो तुम माहिर,
स्नेह पात लुटा, वृक्ष विशाल बने तुम नेह का,
छाया देती है जो हरपल,
अक्षुण्ह स्नेह ये तेरा, क्या बदलेगा मौसम के संग?