Showing posts with label शाख. Show all posts
Showing posts with label शाख. Show all posts

Tuesday 30 November 2021

जीवंतता

चाहा, रोक लूं पवन को, शाख बन कर,
रख लूं, यूं ही कहीं, हाथ धर कर!

पर वो, इक क्षणिक बुलबुला,
चंचल चित्त, चंचला,
निराश मन, पर छोड़े कहां, आस मन,
न तोड़े, कल्पना, 
न चाहे, इक पल भूलना,
न देखे, रात-दिन!
चाहा रोक लूं, पवन को, शाख बन कर!

अनन्त राह, अलग ही, प्रवाह,
इक, अलग ही चाह,
निरंतर, इक दिशा लपक जाए पवन,
ना करे, परवाह,
ना ही धरे, वो बाँह कोई,
खुद में ही, खोई!
कैसे रोक लूं, पवन को, शाख बन कर!

यूं, गति ही, उसकी जीवंतता,
गति, एक विवशता,
जड़ जाए, जड़ता में, कैसे वो जीवंत!
एक कोरी कल्पना,
पलकों में, ये पल बांधना,
बस, एक सपना!
कैसे रोक लूं, पवन को, हाथ धर कर!

चाहा रोक लूं, पवन को, शाख बन कर,
रख लूं, यूं ही कहीं, हाथ धर कर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 28 August 2021

दो अलग बातें

हैं कितनी अलग, ये दो बातें!

चुप से, वो कहकहे, सारे अनकहे,
गूंजता वो आंगन, बहका सा ये सावन,
लरजते दो लब, सहमे वो दो पल,
उन पलों की, ये सौगातें!

हैं कितनी अलग, ये दो बातें!

गुजर से गए जब, उभर आए तब,
नजरों से दूर, उभर आए नजरों में पर,
ख्यालों में तय, हो चले ये फासले,
हैरां करे, वो सारी यादें!

हैं कितनी अलग, ये दो बातें!

करे कैद, टिम-टिमाते वो सितारे,
टँके फलक पर, उन्हें अब कैसे उतारें,
यूँ ही देखते, बस रह से गए वहीं,
तन्हा, गुजरती रही रातें!

हैं कितनी अलग, ये दो बातें!

छूकर गईं, फिर, उनकी ही सदा,
भूलें कैसे? ओ जाते पल, तू ही बता,
छू लें कैसे! बहती सी वो है हवा,
टूटी, यहाँ कितनी शाखें!

हैं कितनी अलग, ये दो बातें!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 5 December 2019

लचकती शाखें

अनसुने ये गीत मेरे, तु जरा गुनगुना..

अनकहा वही, जो है अनसुना,
आवाज मेरी, जो न अब तलक बना,
गीत ये मेरे, तू जरा गुनगुना...

लचकती शाख सी, मन में रही,
डोलती हर बात पर, चुपचाप सी रही,
बाहें थाम कर, तू इसे मना...

राज ये कौन सा, गीत में ढ़ला,
साज ये कौन सा, इक संगीत में ढ़ला,
आवाज दे, तू जरा गुनगुना....

थिरका ये, समय की चाल पर,
रोता फिरा कभी ये, मेरे इस हाल पर,
नग्मा कोई, तू मुझको सुना..

लचकती हैं, रूँधी सी ये साँसें,
मचलती शाख सी, झूलती है ये साँसें,
आ संग-संग, तू इसे गुनगुना..

फिर न आएंगे, लौट कर हम,
न जाने कहाँ, किधर खो जाएंगे हम,
रह जाए न, गीत ये अनसुना..

अनसुने ये गीत मेरे, तु जरा गुनगुना..

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 19 February 2016

आँधियाँ

आँधियाँ ये कैसी चली,
उड़ा ले गया जो आँशियाँ,
टूटकर चमन की शाख से,
डालियाँ बिखरी हुई यहाँ।

पेड़ पत्ते विहीन हुए,
उजड़ा पत्तों का आशियाँ,
बिखरकर मन की बस्ती से,
मानव निस्तेज पड़ा यहाँ।

रोक लो उन आँधियोे को,
नफरतें फैलाती जो यहाँ,
उजाड़कर इन बस्तियों को,
तोड़ते है फिर बागवाँ।