Showing posts with label शिखर. Show all posts
Showing posts with label शिखर. Show all posts

Saturday 19 November 2022

जब-जब ढूंढ़ोगे


विश्रांतियों में, महसूस करोगे!
जब-जब ढूंढ़ोगे!

यूं तो, दो पल चैन कहां, लेने देगी,
यह जीवन, जां ही लेगी,
वन-वन, ये पतझड़ ही, ले जाएगी,
मरुवन सा, जीवन,
बिखरे पलों के रेत शिखर,
लख कर,
अंन्तःवन की,
विश्रांतियों में, महसूस करोगे!
जब-जब ढूंढ़ोगे!

ठहरा सा, गुजरा इक, वक्त भले हूं,
पर लम्हा, इक, जीवंत हूं,
पीछे मुड़कर देखो, तो राह अनंत हूं,
थकाएंगी, ये लम्हा,
पर, सहलाएंगी, वो लम्हा,
हर पग,
थक-थक कर,
विश्रांतियों में, महसूस करोगे!
जब-जब ढूंढ़ोगे!

यूं ना डूबो, उन अनंत रिक्तियों में,
झांको, उन विस्मृतियों में,
ले जाओ, खुद को उन्हीं स्मृतियों में,
वहीं, ठहरा हो कोई,
दो पलकें, यूं ही हों खोई,
जागी सी,
छू जाए शायद!
विश्रांतियों में, महसूस करोगे!
जब-जब ढूंढ़ोगे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 7 June 2016

निरापद कोई नहीं

ना, निरापद यहाँ इस जगत में कोई नही..........

वो पात्र प्रशंसा का भले ही हो या न हो,
उपलब्धियाँ भले ही जीवन की उनकी नगन्य हों,
मान्यताओं के विपरीत भले ही उसके कर्म हो,
भूखा है हर कोई अपनी प्रशंसा के लिए।

अन्तः अवलोकन से खुद ही वो क्षुब्ध हो,
आलोचना मन ही मन खुद अपनी ही करता हो,
निन्दा दिन रात अच्छों-अच्छों की करता हो,
जीता है हर कोई अपनी प्रशंसा के लिए।

ना, निरापद कोई नहीं है इस जगत में,
न तुम, न मैं, न वे जो कहलाते योगी शिखर के,
सबके पीछे बंधी है इच्छाएँ बस आसक्ति की,
मरता है हर कोई अपनी प्रशंसा के लिए।

प्रशंसा के आनन्द का छंद ऐसा ही तो है,
तारीफों की झूठी पुल पर वो चलता ही जाता है,
मन ही मन कमियों पर खुद की पछताता है,
निभाता वो मानव धर्म अपनी प्रशंसा के लिए।

ना, निरापद कोई नही यहाँ इस जगत में ..........

Monday 6 June 2016

इक नया शिखर

यात्रा के इस चरण की कौन सी शिखर है ये,
है यह एक शिखर या पड़ाव किसी नए यात्रा की ये,
या उपलब्धियों के मुस्कान की एक मुकाम है ये,
शिखर मेरी है यह कौन सी यह खबर है किसे।

शिखरों की है यहाँ अनगिनत सी श्रृंखलाएँ,
कुछ छोटी कुछ उँची जैसे हो माला की ये मणिकाएँ,
कितनी ऊबड़-खाबड़ दुर्गम राहों वाली ये मालाएँ,
पिरोता हूँ माला मैं गिन-गिन कर ये मणिकाएँ।

इस साधना से इक पल भी भटके ना ये मन,
साधकों ने इन शिखरों पर वारे हैं तन, मन और धन,
पखारे हैं कुशाग्र प्रतिभाओं ने इन शिखरों के चरण,
शिखर कुछ ऐसा ही बन जाऊँ कहता है मेरा मन।
यात्रा यह हर पल चलती रहे शिखर की ओर,
हाथों में हो कलम और विचारों का हो इक नया दौर,
सरस्वती विराजे जिह्वा पर संकल्प दृढ़ हो और,
लाँघ जाऊँ ये बाधाएँ शिखर बनूँ मैं सिरमौर।
---------------------------------------------
इस ब्लाग पर मेरी यह 500 वीं रचना है। जिन्होंने मुझे प्रेरित किया और सराहा उन्हें मैं कभी भूल नहीं सकता। धन्यवाद।

Monday 28 December 2015

फिर दैदिप्य हुआ पूर्वांचल

फिर दैदिप्य हुआ पूर्वांचल,
प्रखर भास्कर ने पट हैं खोले,
लहराया गगण ने फिर आँचल,
दृष्टि मानस पटल तू खोल,
सृष्टि तू भी संग इसके होले।

कणक शिखर भी निखर रहे है,
हिमगिरि के स्वर प्रखर हुए हैं,
कलियों ने खोले हैं घूंघट,
भँवरे निकसे मादक सुरों संग,
छटा धरा का हुआ मनमोहक।

प्रखरता मे इसकी शीतलता,
रोम-रोम मे भर देती मादकता,
विहंगम दृष्टि फिर रवि ने फैलाया,
प्रकृति के कण-कण ने छेड़े गीत,
तज अहम् संग इनके तू भी तो रीत।