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Thursday 25 October 2018

श्वेत-श्याम

होने लगी है, श्वेत-श्याम अब ये शाम,
लगने लगी है, इक अजनबी सी अब ये शाम....

इक गगन था पास मेरे.....
विस्तार लिए, भुजाओं का हार लिए,
लोहित शाम, हर बार लिए,
रंगो की फुहार, चंचल सी सदाएं,
वो सरसराहट, उनके आने की आहट,
पहचानी सी कोई परछांईं,
थी हर एक शाम, इक पुकार लिए.....

हो चला अब, बेरंग सा वो ही गगन,
होने लगी अब, श्वेत-श्याम हर एक शाम....

इक गगन अब पास मेरे.....
निस्तेज सा, संकुचित विस्तार लिए,
श्वेत श्याम सा उपहार लिए,
धुंध में घिरी, संकुचित सी दिशाएं,
न कोई दस्तक, न आने की कोई आहट,
अंजानी सी कई परछांई,
बेरंग सी ये शाम, उनकी पुकार लिए.....

मलीन रंग  लिए, तंज कसती ये शाम,
लगने लगी है, इक अजनबी सी अब ये शाम....

Friday 14 September 2018

दायरा

ये अब किन दायरों में सिमट गए हो तुम...

छोड़ कर बाबुल का आंगन,
इक दहलीज ही तो बस लांघी थी तुमने!
आशा के फूल खिले थे मन में,
नैनों में थे आने वाले कल के सपने,
उद्विग्नता मन में थी कहीं,
विस्तृत आकाश था दामन में तुम्हारे!

ये अब किन दायरों में सिमट गए हो तुम...

कितने चंचल थे तुम्हारे नयन!
फूट पड़तीं थी जिनसे आशा की किरण,
उन्माद था रक्त की शिराओं में,
रगों में कूट-कूटकर भरा था जोश,
उच्छृंखलता थी यौवन की,
जीवन करता था कलरव साथ तुम्हारे!

ये अब किन दायरों में सिमट गए हो तुम...

कुंठित है क्यूँ मन का आंगन?
संकुचित हुए क्यूँ सोच के विस्तृत दायरे?
क्यूँ कैद हुए तुम चार दिवारों में?
साँसों में हरपल तुम्हारे विषाद कैसा?
घिरे हो क्यूँ अवसाद में तुम?
क्यूँ है हजार अंकुश जीवन पे तुम्हारे!

ये अब किन दायरों में सिमट गए हो तुम...

Tuesday 10 January 2017

संकुचित पल

संकुचित हैं कितने, ये पल आज दिन के,
बातों ही बातों में बीते, कैसे ये पल आज दिन के!

गर होते अंतराल, जो लम्बे से इस पल के,
तुम इठलाती-इतराती, अनथक सी करती फिर बातें,
रोक लेता तुम्हे मैं, उन अवलम्बित से पलों में ,
जिद जल्दी जाने की, तुम हमसे ना करते।

शरद ऋतु में जैसै, कुम्हलाया है ये पल भी,
कुछ कह दो अपने मन की, जाने वाला है ये पल भी,
विस्तार दे दो तुम इनको, देकर धड़कन की गर्मी,
सिमटकर बातों में तेरी, थम जाएगा ये पल भी।

ऐ पल! तू आकर बिखर, ठहर प्रहर दो प्रहर,
आ लेकर मीठी यादें, दे जा कुछ साँसों की सौगातें,
रोक लूँ अपने दिलवर को, बैठा लूँ बाँहें पकड़,
लम्बे हों बातों के पल, पल-पल फिर बीते ना प्रहर।

बिता लूँ मैं जीवन इस पल के, बाहों में तेरे,
क्या जाने फिर मिले ना मिले, ये पल, ये बाहों के घेरे,
सिमटते पलों की परिधि में, आओ हम ऐसे मिले,
जीवन के ये पलक्षिण, बिखरे साँसों संग तेरे।

संकुचित हैं कितने, ये पल आज दिन के,
बातों ही बातों में बीते, कैसे ये पल आज दिन के!