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Monday 9 August 2021

बहता किनारा

पिघलते सांझ सा, बहता किनारा,
कब, हो सका हमारा!

पर, गुजारे हैं, पल, सारे यहीं,
रख चले, बुनकर, सपनों के सारे, धागे यहीं,
पर, देखती कहाँ, पलट कर?
भागते, वो धारे,
बहा ले जाती, इक उम्र सारा!

पिघलते सांझ सा, बहता किनारा,
कब, हो सका हमारा!

पलटकर, लौट आती है रोज,
बरबस, भर एक आलिंगन, करती है बेवश,
पिघलता, वो रुपहला पहर,
डूबते, वो सहारे,
जैसे, कर जाते हैं.. बेसहारा!

पिघलते सांझ सा, बहता किनारा,
कब, हो सका हमारा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 21 July 2021

धुंधलाते राह

धुंधलाते राहों पर, आ न सके तुम,
ओझल थे हम, गुम थे तुम!

वैसे, कौन भला, धुँधली सी राह चला,
जब, उजली सी, किरणों ने छला,
भरोसा, उन धुँधलाते सायों पर क्या!
इक धुंधलाते, काया थे हम,
गुम होती, परछाईं तुम!

तुम से मिलकर, इक उम्मीद जगी थी,
धुंधली राहों पर, आस जगी थी,
पर बोझिल थे पल, होना था ओझल!
धूँध भरे इक, बादल थे हम,
इक भींगी, मौसम तुम!

अब भी पथराई आँखें, तकती हैं राहें,
धुंधलाऐ से पथ में, फैलाए बाहें, 
धुंधला सा इक सपना, बस है अपना!
उन सपनों में, खोए से हम,
और अधूरा, स्वप्न तुम!

धुंधलाते राहों पर, आ न सके तुम,
ओझल थे हम, गुम थे तुम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 30 June 2021

दो रोटियाँ

जागती आँखों में, कोई सपना तो होगा!
इसलिए, वो जागता होगा!

वो भला, सो कर क्या करे!
जिन्दा, क्यूँ मरे?
जीने के लिए, 
वो शायद, जागता होगा!

जागती आँखों में, कोई सपना तो होगा!

क्या ना कराए, दो रोटियाँ!
दर्द, सहते यहाँ!
उम्मीदें लिए,
वो शायद, जागता होगा!

जागती आँखों में, कोई सपना तो होगा!

यूँ जिक्र में, फिक्र कल की!
जागते, छल की,
आहटें लिए,
वो शायद, जागता होगा!

जागती आँखों में, कोई सपना तो होगा!

फिर भी, जीतने की जिद!
वही, जद्दो-जहद,
ललक लिए,
वो शायद, जागता होगा!

जागती आँखों में, कोई सपना तो होगा!

जलाकर, उम्मीदों के दिए!
आस, तकते हुए,
चाहत लिए,
वो शायद, जागता होगा!

जागती आँखों में, कोई सपना तो होगा!
इसलिए, वो जागता होगा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday 7 June 2021

वो कौन था

वो, जाने कौन था, बड़ा ही मौन था!
पर, वो आँखें, कुछ बोलती थी!

शायद दूर था, उसकी आशाओं का घर!
बांध रखी थी, उम्मीदों की गठरियाँ,
और, ये सफर, काँटों भरा....
राहों में, वो ही कहीं, अब गौण था!
बड़ा ही मौन था!

शायद, धू-धू, सुलग रही थी, आग इक!
जल चुके थे, सारे सपनों के शहर,
और, धुँआ सा, उठता हुआ.....
उस धुँध में, खुद कहीं वो गौण था!
बड़ा ही मौन था!

शायद था थका, हताश अब भी न था!
वो इक परिंदा, था उम्मीदों से बंधा,
और, नीलाभ, तकता हुआ....
आकाश में, खुद कहीं वो गौण था!
बड़ा ही मौन था!

वो, जाने कौन था, बड़ा ही मौन था!
पर, वो आँखें, कुछ बोलती थी!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 4 April 2021

सपना न रहे

जरा, इस मन को, सम्हालूँ,
न जाओ, ठहर जाओ, यहीं क्षण भर!

कुछ और नहीं, बस, इक अनकही,
मन में ही कहीं, बाँकी सी रही,
किसी क्षण, कह डालूँ,
दो पहर, ठहर जाओ, यहीं क्षण भर!

कैसे कहते हैं, भला, मन की बातें,
पहले मन को, जरा समझाते,
यूँ ही, न बिखर जाऊँ, 
बतलाओ, रुक जाओ, यहीं क्षण भर!

सपना ना रहे, ये सपनों का शहर,
टूटे न कहीं, शीशे का ये घर,
ठहर जरा, कह डालूँ,
न जाओ, रुक जाओ, यहीं क्षण भर!

इक मूरत, अधूरी, जरा अब तक,
होगी पूरी, भला, कब तक,
आ रंगों में, इसे ढ़ालूँ,
पल दो पल, आओ, यहीं क्षण भर!

जरा, इस मन को, सम्हालूँ,
दो पहर, ठहर जाओ, यहीं क्षण भर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 5 December 2020

धुआँ

ऐ दिल, अब भूल जा,
पतझड़ों में, फूल की, कर न तू कल्पना!
सच है वो, जो सामने है,
और है क्या?

चलो, मैं मान भी लूँ!
अल्पना बनती नहीं, कल्पनाओं के बिना,
है रंग वो, जो सामने है,
और है क्या?

मान, इक सपना उसे!
इस भ्रम में, यथार्थ की, कर न तू कल्पना,
रेत है वो, जो सामने है,
और है क्या?

दिल नें, माना ही कब,
बस रेत पर, लिखता रहा, वो इक तराना,
गीत वो है, जो सामने है,
और है क्या?

ऐ दिल, अब भूल जा,
बादलों में, इक घर की, कर न तू कल्पना,
धुआँ है वो, जो सामने है,
और है क्या?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 8 July 2020

तुम न बदले

धुंधले हुए, स्वप्न बहुतेरे,
धुंधलाए,
नयनों के घेरे,
धुंधला-धुंधला, हर मौसम,
जागा इक, चेतन मन!
मौन अपनापन,
वो ही,
सपनों के घेरे!

धूमिल, प्रतिबिम्बों के घेरे,
उलझाए,
उलझी सी रेखाएं,
बदलते से एहसासों के डेरे,
अल्हड़, वो ही मन,
तेरा अपनापन,
तेरे ही,
ख्यालों के घेरे!

बदली छवि, तुम न बदले,
तुम ही भाए,
अश्रुसिक्त हो आए,
ज्यूँ सावन, घिर-घिर आए,
भिगोए, ये तन-मन,
वो ही छुअन,
वो ही,
अंगारों के घेरे!

अंतर्मन, सोई मौन चेतना,
जग आए,
दिखलाए मुक्त छवि,
लिखता जाए, स्तब्ध कवि,
करे शब्द समर्पण,
संजोए ये मन,
तेरे ही,
रेखाओं के घेरे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 24 April 2020

भ्रम

यूँ, तट से, ना बह दूर कहीं!

बहते कहाँ, बहावों संग, तीर कहीं,
रह जाती सह-सह, पीर वहीं,
ऐ अधीर मन, तू रख धीर वही,
यूँ, तट से, ना बह दूर कहीं!

तूफाँ हैं दो पल के, खुद बह जाएंगे,
बहती सी है ये धारा, कब तक रुक पाएंगे,
परछाईं हैं ये, हाथों में कब आएंगे,
ये आते-जाते से, साए हैं घन के,
छाया, कब तक ये दे पाएंगे?
इक भ्रम है, मिथ्या है, रह इनसे, दूर कहीं,
यूँ, तट से, ना बह दूर कहीं!

गर चाहोगे, तो प्यास जगेगी मन में,
गर देखोगे, परछाईं ही उभरेगी दर्पण में,
बुन जाएंगे जाले, ये भ्रम जीवन में,
उलझाएंगे ही, ये धागे मिथ्या में,
सुख, कब तक ये दे पाएंगे?
इक छल है, तृष्णा है, रह इनसे, दूर कहीं,
यूँ, तट से, ना बह दूर कहीं!

पिघले-पिघले हो, मन में नीर सही,
अनवरत उठते हों, पीर कहीं,
भींगे-भींगे हों, मन के तीर सही,
यूँ, तट से, ना बह दूर कहीं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 17 January 2019

चल झूठी

चल झूठी! फिर झूठ मुझे ना कहना...

सपन! सलोना सा है वो मेरा,
उन सपनों में, रमता है ये मन मेरा,
आओ देखो, तुम भी ये सपना,
झूठ या सच, मुझको फिर कहना!

चल झूठी! फिर झूठ मुझे ना कहना...

सागर तट सी, उनकी पलकें,
मदिरा हरपल, नैनों से हों छलके,
पास बुलाए, वो चल-चल के,
ना होश उड़ा दे, तो फिर कहना!

चल झूठी! फिर झूठ मुझे ना कहना...

भूल-भुलैय्या, हैं उनकी आँखें,
जाना-पहचाना, वो पथ बिसरा दे,
वो स्वागत में, दो बाहें फैला दे,
मोहित ना कर दे, तो फिर कहना!

चल झूठी! फिर झूठ मुझे ना कहना...

रूप सुनहरा, जैसे हो गहना,
बरसा हो सावन, जैसे इस अंगना,
नित चाहे मन, उनमें ही खोना,
सुंदर ना हो सपना, तो फिर कहना!

चल झूठी! फिर झूठ मुझे ना कहना...

Tuesday 16 October 2018

नींद

कब नींद ढ़ुलकती है, नैनो में कब रात समाता है....

सांझ ढले यूँ पलकों तले,
हौले-हौले कोई नैनों को सहलाता है,
ढ़लती सी इक राह पर,
कोई हाथ पकड़ कहीं दूर लिए जाता है.....
बंद पलकों को कर जाता है....

कब नींद ढ़ुलकती है, नैनो में कब रात समाता है....

उभर आते हैं दृश्य कई,
पटल से दृश्य कई, कोई मिटा जाता है,
तिलिस्म भरे क्षण पर,
रहस्यमई इक नई परत कोई रख जाता है.....
बंद पलकों को कर जाता है....

कब नींद ढ़ुलकती है, नैनो में कब रात समाता है....

बेवश आँखें कोई झांके,
कोई अंग-अग शिथिल कर जाता है,
कोई यूँ ही बेवश कर,
खूबसूरत सा इक निमंत्रण लेकर आता है.....
बंद पलकों को कर जाता है....

कब नींद ढ़ुलकती है, नैनो में कब रात समाता है....

नींद सरकती है नैनों में,
धीरे से कोई दूर गगन ले जाता है,
जादू से सम्मोहित कर,
तारों की उस महफिल में लिए जाता है.....
बंद पलकों को कर जाता है....

कब नींद ढ़ुलकती है, नैनो में कब रात समाता है....

Friday 21 September 2018

ब्रम्ह और मानव

सुना है! ब्रम्ह नें, रचकर रचाया ये रचना....
खुद हाथों से अपने,
ब्रम्हाण्ड को देकर विस्तार,
रचकर रूप कई,
गढ़ कर विविध आकार,
किया है साकार उसने कोई सपना...

सुना हैं! उन सपनों के ही इक रूप हैं हम....
अंश उसी का सबमें,
रंग विविध से दिए है उसने,
भरकर भाव कई,
देकर मन रुपी संसार,
किया है हृदय में ममता का श्रृंगार....

सुना है! ब्रम्हलोक गए वे सब कुछ देकर...
दे कर विशाल सपने,
एहसास उपज कर मानव में,
इच्छाएं दे कई,
किए बिन सोच विचार,
सृष्टि पर सौंप दिया था अधिकार....

सुना है! अब पश्चाताप कर रहा वो ब्रम्ह...
श्रेष्ठ ज्ञान दिया जिसे,
योनियों में उत्तम रचा जिसे,
भूला राह वही,
कपट क्लेश व्यभिचार,
सृष्टि की संहार पर तुला है मानव...

सुना है! टूट चुकी है अब ब्रम्ह की तन्द्रा...
रूठ चुका है वो सबसे,
त्रिनेत्र खोल दिए है शिव ने,
प्रलय न हो कहीं!
प्रकृति में है हाहाकार,
हो न हो, है विनाश का ये हुंकार...

सुना है! अब भी नासमझ बना है मानव...

Thursday 2 August 2018

तू, मैं और प्यार

ऐसा ही है कुछ,
तेरा प्यार...

मैं, स्तब्ध द्रष्टा,
तू, सहस्त्र जलधार,
मौन मैं,
तू, बातें हजार!

संकल्पना, मैं,
तू, मूर्त रूप साकार,
लघु मैं,
तू, वृहद आकार!

हूँ, ख्वाब मैं,
तू, मेरी ही पुकार,
नींद मैं,
तू, सपन साकार!

ठहरा ताल, मैं,
तू, नभ की बौछार,
वृक्ष मैं,
तू, बहती बयार!

मैं, गंध रिक्त,
तू, महुआ कचनार,
रूप मैं,
तू, रूप श्रृंगार!

शब्द रहित, मैं,
तू, शब्द अलंकार,
धुन मैं,
तू, संगीत बहार!

ऐसा ही है कुछ,
तेरा प्यार...

Saturday 9 June 2018

पलकों तले रात

न जाने, क्या-क्या कहती जाती है ये रात....

पलकों तले, तिलिस्म सी ढ़लती ये रात,
धुंधली सी काली, गहराती ये रात,
झुनझुन करती इतराती कुछ गाती ये रात,
पलकों को, थपकाकर सुलाती ये रात!

नींद में डबडब, बोझिल होती ये पलकें,
कोई बैठा हो, जैसे आकर इन पर,
बरबस करता हों, इन्हें मूंदने की कोशिश,
सपनों को इनमें, भरने की कोशिश!

अंधियारे में उभरते, ये चमकीले से रंग,
सपनों की, ये धुंधली सी महफिल,
सतरंगी सी दुनियाँ में, मन का भटकाव,
इक अजूबा सा, अंजाना सा ठहराव!

पलकों तले, तैरती उभरती कई तस्वीरें,
विविध रंगों से रंगा ये सारा पटल,
मन मस्तिष्क पर, दस्तक देते रह रहकर,
सब है यहीं, पर कहीं कुछ भी नहीं!

पलकों तले ये रात.....
कोई तिलिस्म सी ढ़लती ये रात,
न जाने, क्या-क्या कहती जाती है ये रात....

Tuesday 5 June 2018

यहीं सांझ तले

यहीं सांझ तले...
कोई छाँव जरा सा, आ कहीं हम ढूंढ़ लें......

दरख्त-दरख्त जब ठूंठ हो जाए,
धूप दरख्तों से छनकर तन को छू जाए,
आस बने जब इक सपना,
भीड़ भरे जीवन में, कोई ना हो अपना,
जब एकाकी सा ये दिन ढ़ले....

यहीं सांझ तले...
कोई छाँव जरा सा, आ कहीं हम ढूंढ़ लें......

धूप तले जब यूं ही दिन ढ़ल जाए,
थककर चूर कहीं जब ये बदन हो जाए,
वक्त बदल ले सुर अपना,
छलके आँसू बनकर, आँखों से सपना,
वक्त की धूप, बदन छू ले...

यहीं सांझ तले...
कोई छाँव जरा सा, आ कहीं हम ढूंढ़ लें......

जब जीवन सुर मद्धिम पड़ जाए,
कोयल इन बागों में, कोई गीत न गाए,
जर्जर हो जाए ये मन वीणा,
झंकार न हो कोई, सूना सा हो अंगना,
सूना-सूना सा ये सांझ ढ़ले....

यहीं सांझ तले...
कोई छाँव जरा सा, आ कहीं हम ढूंढ़ लें......

Friday 22 December 2017

मुद्दतों बाद

मुद्दतों बाद....
फिर कहीं खुद से मिल पाया था मैं.......

मन के इसी सूने से आंगन में,
फिर तुम्हारी ही यादों से टकराया था मैं,
बोल कुछ भी तो न पाया था मैं,
बस थोड़ा लड़खड़ाया था मै,
मुद्दतों बाद....
फिर कहीं खुद से मिल पाया था मैं.......

खिला था कुछ पल ये आंगन,
फूल बाहों में यादों के भर लाया था मैं,
खुश्बुओं में उनकी नहाया था मै,
खुद को न रोक पाया था मैं,
मुद्दतों बाद....
फिर कहीं खुद से मिल पाया था मैं.......

अब तलक थी वो मांग सूनी,
रंग हकीकत के वहीं भर आया था मैं,
उन यादो से अब न पराया था मैं,
डोली में बिठा लाया था मैं,
मुद्दतों बाद....
फिर कहीं खुद से मिल पाया था मैं.......

अब वापस न जा पाएंगे वो,
खुद को उस पल में छोड़ आया था मैं,
पल में सदियाँ बिता आया था मैं,
यादों मे अब समाया था मैं,
मुद्दतों बाद....
फिर कहीं खुद से मिल पाया था मैं.......

Saturday 6 August 2016

कोई उस ओर नहीं

कोई अब उस ओर नहीं,
इन्तजार की छोटी भी कोई डोर नहीं,
जेठ दुपहरी नाचे अब मोर नहीं,
विरह के पल काटूँ कैसे?
इस पल का कोई छोर नहीं..!

डसती ये विरहा की वेला,
संजोए अधूरे सपने कोई उस ओर तो होता?
इन्तजार के उन धागों सें मैं बंध जाता,
सपने अधूरे देखूँ कैसे?
आँखो में सपनों के दौर नहीं..!

बूँदें सावन की सूखी-सूखी सी अब,
रंग मेंहदी की लगती फीकी-फीकी सी अब,
कलाई की चूरी करती अब शोर नहीं,
दिल ही दिल इठलाऊँ कैसे?
बेकरार कोई अब उस ओर नहीं!

फिर क्युँ ये मन जाता उस ओर?
अधूरे सपनों संग क्युँ बांधता जीवन की डोर?
मयुरा मन का क्युँ नाचता होकर विभोर?
मन को समझाऊँ कैसे? 
कोई रहता अब उस ओर नहीं..!

Friday 24 June 2016

छाया अल्प सी वो

बुझते दीप की अल्प सी छाया वो,
साथी! उस छाया से मिलना बस सपने की बात.....

प्रतीत होता जिस क्षण है बिल्कुल वो पास,
पंचम स्वर में गाता पुलकित ये मन,
नृत्य भंगिमा करते अस्थिर से दोनों ये नयन,
सुख से भर उठता विह्वल सा ये मन,
लेकिन है इक मृगतृष्णा वो रहता कब है पास....

उड़ते बादल की लघु सी प्रच्छाया वो,
साथी! उस छाया से मिलना बस सपने की बात.....

क्षणिक ही सही जब मिलते हैं उनसे जज्बात,
विपुल कल्पनाओं के तब खुलते द्वार,
पागल से हो जाते तब चितवन के एहसास,
स्मृति में कौंधती है किरणों की बौछार,
लेकिन वो तो है खुश्बु सी बहती सुरभित वात..,,

क्षणिक मेघ की अल्प सी छाया वो,
साथी! उस छाया से मिलना बस सपने की बात..

Saturday 18 June 2016

धीरज

ओ मेरे उर के विह्वल दुलार!
कहो, क्या है तुझमें इतना धीरज.........
कि यूँ ही तुम चलते रहो उम्र भर साथ,
बिन आशा, बिन आकांक्षा, बिन अभिलाषा,
रहो हाथों में बस गहे यूँ ही हाथ?

ओ मेरे उर के विह्वल दुलार!
तुम सब झूठा हो जाने दो कहा-सुना,
कहना-सुनना क्या बस देखो इक सपना,
छल जाने दो उर को बस, रहो निराश उदास,
रहो हाथों में बस गहे यूँ ही हाथ?

ओ मेरे उर के विह्वल दुलार!
अब उठे भी कहाँ से प्यार की बात,
असमंजस हों कदम-कदम पर उर में जब,
इस मन के एकाकी तारे को दो बस यूँ उछाल,
रहो हाथों में बस गहे यूँ ही हाथ?

ओ मेरे उर के विह्वल दुलार!
कहो, क्या है तुममें इतना धीरज.........

Sunday 12 June 2016

छवि तुम्हारी

छवि लिए कुछ तारों सी उर में तुम हो समाए,
पलकों में, प्राणों में स्मृति बन कर तुम हो आए.....

संचित कर लूँ मैं चंचलता इन नैनों की नैनों में,
महसूस करूँ मैं अरूणोदय तेरे चेहरे की आभा में,
देखूँ मैं रजनी की तम सी परछाई तेरे ही जूड़े में,

स्वप्नमय आभा लिए सपनों में तुम हो समाए,
नींदों मे, ख्वाबो में जागृति बन कर तुम्ही हो छाए ....

संचित कर लूँ मैं हाला तेरे अधरों की प्याली में,
महसूस करूँ मैं रंग जीवन के तेरे नैनों की लाली में,
देखूँ मैं ख्वाब सुनहरे तेरे आँचल की हरियाली में,

मधुर राग कोयल की सपनों मे तुमने ही गाए,
स्वर में, काया में विस्मित छाया सी तुम गहराए....,

Monday 25 April 2016

वो मेरा गाँव

वो मेरा गाँव!
अंजाना सा क्युँ लगता है अब?
बेगाने हो चले हैं सब,
अंजाना सा लगता है वो अब,
इस मन मंदिर मे ही कही,
रहता था मेरा वो रब,
बिसरे है सब, बिसरा मेरा वो रब,
बिछड़ा है मेरा मन,
कही भीड़ मे ही अब,
वो गाँव! मेरा नहीं वो अब................!

वो मेरा गाँव!
अंजानों की बस्ती है अब,
कहने को अपने पर बेगाने हैं सब,
अंजाना मेरा मन अपनों में अब,
कहता है मेरा ये मन,
चल एे दिल, कही दूर चल अब,
सपने तेरे हो जहाँ,
कोई मन का मीत तेरा हो जहाँ,
छोटी सी ही हो दुनियाँ,
पर कोई तेरा अपना तो हो वहाँ,
वो गाँव! अब मेरा है वो कहाँ................?

वो मेरा गाँव?
अब कौन दे तुझको...?.......
झिलमिल आँचल की छाँव,
ममता की मीठी सी थपकी,
और स्नेह की दुलारी सी मुस्कान,
गाँव अब वो मेरा नहीं,
वो मेरे सपनों का अब रैन बसेरा नहीं,
वहाँ इन्तजार मेरा नहीं,
वो गाँव की पीपल अब देती नही है छाँव,
एे मन! अब मेरा नही वो गाँव,
ऐ मन तू धीरज रख, अब मेरा नहीं वो गाँव......!