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Saturday 12 March 2022

समय से परे

गहन अनुभूतियों ने, हौले से सहलाया था,
न जाने, कौन यहां आया था!

किसकी परछाईं थी, जो दबे पांव आई थी!
चुप सी बातों में, कैसी गहराई थी?
जैसे, वियावान में, गूंज कोई लहराया था,
न जाने, कौन यहां आया था!

संकोचवश, वो शायद कुछ कह ना पाए हों!
वो, दो पंखुड़ियां, खुल ना पाए हों!
अनियंत्रित पग ही, उन्हें खींच लाया था,
न जाने, कौन यहां आया था!

अक्सर, उसकी ही बातें, अब करता है मन,
बिन मौसम, कैसा छाया है ये घन!
पतझड़ में, डाली फूलों से भर आया था,
न जाने, कौन यहां आया था! 

भ्रम मेरा ही होगा, सत्य ये हो नहीं सकता!
नहीं एक भी कारण, आकर्षण का,
शायद, बावरे इस मन ने ही भरमाया था, 
न जाने, कौन यहां आया था!

पर हूँ वहीं, अब भी, लिए वही अनुभूतियां,
पल सारे, अब भी, कंपित हैं जहां,
सीमाओं से परे, समय जिधर लाया था,
न जाने, कौन यहां आया था!

गहन अनुभूतियों नें, हौले से सहलाया था,
न जाने, कौन यहां आया था!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 13 February 2022

क्या फिर!

क्या, फिर मिलोगे कहीं!
समय और अनन्त के, उस तरफ ही सही!

कहीं न कहीं,
उम्मीद तो, इक रहेगी बनी,
इक आसरा, टिमटिमाता सा, इक सहारा,
एक संबल,
कि, कोई तो है, उस किनारे!

क्या, फिर मिलोगे कहीं!
समय और अनन्त के, उस तरफ ही सही!

अब जो कहीं,
बिछड़ोगे, तो बिसारोगे तुम,
बंदिशों में, आ भी न पाओगे, चाहकर भी,
रखना याद,
कि, हम हैं खड़े, बांहें पसारे!

क्या, फिर मिलोगे कहीं!
समय और अनन्त के, उस तरफ ही सही!

झूठा ही सही,
आसरा, इक, कम तो नहीं,
टूट जाए, भले कल, कल्पना की इमारत,
पले चाहत,
कि, कोई तो है, मेरे भरोसे!

क्या, फिर मिलोगे कहीं!
समय और अनन्त के, उस तरफ ही सही!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 24 September 2021

भारी व्यथा

अन्त समय, पापा, मैं तुझको देख न पाया!

देकर आधार, अनन्त सिधार गए तुम,
देकर अनुभव का, सार गए तुम,
पर, किस पार गए तुम?
फिर, ढूंढ न पाया!

अन्त समय, पापा, मैं तुझको देख न पाया!

आँखों में मेरी, जीवन्त सा चेहरा तेरा,
है ख्यालों पर मेरी, तेरा ही पहरा,
पर, दर्शन वो अन्तिम तेरा,
मेरे ही, भाग्य न आया!

अन्त समय, पापा, मैं तुझको देख न पाया!

है भारी जीवन पर, इक वो ही व्यथा!
भूल पाऊँ कैसे, तुमको सर्वथा?
कहीं, खत्म हुई जो कथा!
वही, फिर याद आया!

अन्त समय, पापा, मैं तुझको देख न पाया!

यूँ तो संग रहे तुम, करुणामय यादों में,
गूंज तुम्हारी, ‌‌है अब भी कानों में,
पर, भीगी सी पलकों में!
तुझको, ना भर पाया!

अन्त समय, पापा, मैं तुझको देख न पाया!

तुम, रहे बन कर, स्वप्न कोई अनदेखा,
टूटकर, जैसे फिर बनती हो रेखा,
पर, वो ही मूरत अनोखा!
है, आँखों में समाया!

अन्त समय, पापा, मैं तुझको देख न पाया!

थी विस्मयकारी, तेरी सारगर्भित बातें,
शेष है जीवन की, वो ही सौगातें,
और, लम्बी होती ये रातें!
इन, रातों नें भरमाया!

अन्त समय, पापा, मैं तुझको देख न पाया!

हर पल भारी, है तेरे विरह की व्यथा,
भूल पाऊँ कैसे, तुमको सर्वथा?
हार चला, भले ही तुझको,
अन्तर्मन, तुझे ही पाया!

अन्त समय, पापा, मैं तुझको देख न पाया!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 14 March 2020

अक्सर

कुछ बातें, अक्सर!
आकर, रुक जाती हैं होठों पर!

निर्बाध, समय बह चलता है,
जीवन, कब रुकता है!
खो जाती हैं सारी बातें, कालचक्र पर,
पथ पर, रह-रह कर,
कसक कहीं, उठती है मन पर,
कह देनी थी, वो बातें,
रुक जाती थी जो आकर,
इन होंठों पर, 
अक्सर!

ठहरी सी, बातों के पंख लिए,
पखेरू, बस उड़ता है!
हँसता है वो, जीवन के इस छल पर,
रोता है, रह-रह कर,
मंडराता है, विराने से नभ पर,
कटती हैं, सूनी सी रातें, 
अनथक, करवट ले लेकर,
जीवन पथ पर, 
अक्सर!

कल-कल, बहता सा ये निर्झर,
रोके से, कब रुकता है!
फिसलन ही फिसलन, इस पथ पर,
नैनों में, बहते मंजर,
फिसलते हांथो से, वो अवसर,
देकर, यादों की सौगातें, 
चूमती हैं, आगोश में लेकर,
इन राहों पर,
अक्सर!

कुछ बातें, अक्सर!
आकर, रुक जाती हैं होठों पर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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इसी क्रम में,  अगली रचना  "अक्सर, ये मन" पढ़ने हेतु यहाँ "अक्सर, ये मन"  पर क्लिक करे

Thursday 5 December 2019

लचकती शाखें

अनसुने ये गीत मेरे, तु जरा गुनगुना..

अनकहा वही, जो है अनसुना,
आवाज मेरी, जो न अब तलक बना,
गीत ये मेरे, तू जरा गुनगुना...

लचकती शाख सी, मन में रही,
डोलती हर बात पर, चुपचाप सी रही,
बाहें थाम कर, तू इसे मना...

राज ये कौन सा, गीत में ढ़ला,
साज ये कौन सा, इक संगीत में ढ़ला,
आवाज दे, तू जरा गुनगुना....

थिरका ये, समय की चाल पर,
रोता फिरा कभी ये, मेरे इस हाल पर,
नग्मा कोई, तू मुझको सुना..

लचकती हैं, रूँधी सी ये साँसें,
मचलती शाख सी, झूलती है ये साँसें,
आ संग-संग, तू इसे गुनगुना..

फिर न आएंगे, लौट कर हम,
न जाने कहाँ, किधर खो जाएंगे हम,
रह जाए न, गीत ये अनसुना..

अनसुने ये गीत मेरे, तु जरा गुनगुना..

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday 24 December 2018

क्षण बह चला

क्षण!
क्षणिक था!
कण था,
इस दरिया संग,
बह चला!

मलय,
समीरन,
इक
झौंका था!
कब आया?
जाने कब गया?
हरियल,
नादान था,
चंचल पंछी था,
जमीं पर
कब उतरा!
ठहरा,
कुछ पल,
रुका!
कब, उड़ चला!

क्षण!
क्षणिक था!
कण था,
इस दरिया संग,
बह चला!

तरसते,
सूखे से पत्ते,
सूखी,
डाली सी काया,
फिर
शिशिर आया,
रस लाया,
लाया, क्या लाया?
प्रतीक्षा के क्षण,
रहे विफल,
प्राण
गँवाया
जीवन से त्राण
कहाँ पाया,
मंद
समीर संग,
बस, उड़ चला!

क्षण!
क्षणिक था!
कण था,
इस दरिया संग,
बह चला!

वो आए,
मन को भरमाए,
चले गये!
मन के रिश्ते,
नाते,
सब तोड़ गये,
अबाध,
अनकट सूनापन,
सूना क्षण,
इक आह विरल,
छोड़ गये,
इस रिक्तता के,
प्रवाह संग,
साँसों में,
उनके ही,
अनुराग संग,
निष्ठुर सा,
समय,
बस, बह चला!

क्षण!
क्षणिक था!
कण था,
इस दरिया संग,
बह चला!

Tuesday 4 December 2018

बीता कौन, वर्ष या तुम

बीता है आखिर कौन? क्या समय? या तुम?

कुछ पल मेरे दामन से छीनकर,
स्मृतियों की कितनी ही मिश्रित सौगातें देकर,
समय से आँख मिचौली करता,
बीत चुका, और एक वर्ष....
एक यक्ष प्रश्न मेरे ही सम्मुख रखकर!

बीता है आखिर कौन? क्या समय? या तुम?

या बीता है कोई सुंदर सा स्वप्न,
या स्थायित्व का भास देता, कोई प्रशस्त भ्रम,
देकर किसी छाया सी शीतलता,
बीत चुका, और एक वर्ष....
अनसुलझे प्रश्न मेरे ही सम्मुख रखकर!

बीता है आखिर कौन? क्या समय? या तुम?

या यथार्थ से सुंदर था वो भ्रम,
या अंधे हो चले थे, उस माधूर्य सौन्दर्य में हम,
यूँ ही चलते आहिस्ता-आहिस्ता,
बीत चुका, और एक वर्ष....
क्रमबद्ध ये प्रश्न मेरे ही सम्मुख रखकर!

बीता है आखिर कौन? क्या समय? या तुम?

या प्रकृति फिर लेगी पुनर्जन्म,
या बदलेंगे, रात के अवसाद और दिन के गम,
यूँ ही पुकार कर अलविदा कहता,
बीत चुका, और एक वर्ष....
अनबुझ से प्रश्न मेरे ही सम्मुख रखकर!

बीता है आखिर कौन? क्या समय? या तुम?

फिर सोचता हूँ ....
क्रम बद्ध है - पहले आना, फिर जाना,
फिर से लौट आने के लिये .....
कुदरत ने दिया, आने जाने का ये सिलसिला,
ये पुनर्जन्म, इक चक्र है प्रकृति का,
अवसाद क्या जो रात हुई, विषाद क्या जो दिन ढला?

गर मानो तो....
बड़ी ही बेरहम, खुदगर्ज,चालबाज़ है ये ज़िदंगी,
भूल जाती है बड़ी आसानी से,
पुराने अहसासों, रिश्तों और किये वादों को,
निरन्तर बढ़ती चली जाती है आगे..
यूँ बीत चुका, और एक वर्ष....
शायद, कुछ वरक हमारे ही उतारकर!

बीता है आखिर कौन? क्या समय? या तुम?

Sunday 14 October 2018

मत कर इतने सवाल

कुछ तो रखा कर, अपने चेहरे का ख्याल......
मत कर, इतने सवाल!

ये उम्र है, ढ़लती जाएगी!
हर शै, चेहरों पर रेखाएँ अंकित कर जाएंगी,
छा जाएगा वक्त का मकरजाल!
मत कर इतने सवाल.....!

समय की, है ये मनमानी!
बेरहम समय ये, किस शै की इसने है मानी?
रेखाओं के ये बुन जाएगा जाल!
मत कर इतने सवाल.....!

बदलेगा, ये वक्त भी कभी!
डगर इक नई, अपनी ही चल देगा ये कभी!
वक्त की थमती नही कहीँ चाल!
मत कर इतने सवाल.....!

ले ऐनक, तू बैठा हाथों में!
रंग कई, नित भरता है तू अपनी आँखों में!
उम्र के रंगों का क्या होगा हाल?
मत कर इतने सवाल.....!

झुर्रियाँ, ले आएंगी ये उम्र!
इक राह वही, अन्तिम चुन लाएगी ये उम्र!
क्यूँ पलते मन में इतने मलाल?
मत कर इतने सवाल.....!

कुछ तो रखा कर, अपने चेहरे का ख्याल......
मत कर, इतने सवाल!

Monday 16 July 2018

समय की आगोश में

समय बह चला था और मैं वहीं खड़ा था ......

मैं न था समय की आगोश में,
न फिक्र, न वचन और न ही कोई बंधन,
खुद की अपनी ही इक दुनियां,
बाधा विमुक्त स्वतंत्र उड़ने की चाह,
लक्ष्य से अंजान इक दिशाविहीन उड़ान,
समय को मैं कहां पढ़ सका था?

सब कुछ तो था मेरे सम्मुख,
समय की लहर और बहती हुई पतवार,
न था पर किसी पर ऐतबार,
फिर भी सब कुछ पा लेने की चाहत,
स्व की तलाश में सर्वस्व ही छूटा था पीछे,
वो किनारा मै पा न सका था?

यूं ही पड़ी संस्कारों की गठरी,
बाहर रख दी हों ज्यूं चीजें फिजूल की,
रिवाजों से अलग नया रिवाज,
आप से तुम तक का बेशर्म सफर,
सम्मान को ठेस मारता हुआ अभिमान,
समय को मैं कहां पढ़ सका था?

अब ढूंढ़ता हूं मैं वो ही समय,
जिसकी आगोश में मैं भी ना रुका था,
विपरीत मैं जिसके चला था,
जिसकी धार में सब बह चुका था,
आचार, विचार, संस्कार अब कहां था?
हाथों से अब समय बह चला था!

और मैं मूकद्रष्टा सा, बस वहीं खड़ा था ......

Friday 12 January 2018

वही पल

गूंजते से पल वही, कहते हैं मुझको चल कहीं.........

निर्बाध समय के, इस मौन बहती सी धार में,
वियावान में, घटाटोप से अंधकार में,
हिचकोले लेती, जीवन की कश्ती,
बलखाती सी, कभी डूबती, कभी तैरती,
बह रही थी कहीं, यूँ ही बिन पतवार के,
भँवर के तीव्र वार में, कोई पतवार थामे हाथ में,
मिल गए थे तुम, इस बहती सी मौन धार में...

टूटा था सहसा, तभी मौन इक पल को,
संवाद कोई था मिला, इस मौन जीवन को,
जैसे दिशा मिल गई थी कश्ती को,
किनारा मिला था वियावान जीवन को,
प्रस्फुटित हुई, कहीं इक रौशनी की किरण,
लेकिन छल गई थी मेरी ये खुशी, उस भँवर को,
गुम हुए थे तुम, इस बहती सी मौन धार में...

समय के गर्त से, अब गूंजते है पल वही,
निर्जन सी राह पर, कहते हैं मुझको चल कहीं,
दिशाहीन कश्ती न जाने कहाँ चली,
मौन है हर तरफ, इक आवाज है बस वही,
कांपते से बदन में जागती सिहरन वही
रुग्ण सी फिजाएँ, वही पिघलती ठंढ सी हवाएँ,
बह रहे थे तुम, इस बहती सी मौन धार में...

बहती सी मौन धार में, अब गूंजते से पल वही........

Sunday 24 September 2017

किंकर्तव्यविमूढ

गूढ होता हर क्षण, समय का यह विस्तार!
मिल पाता क्यूँ नहीं मन को, इक अपना अभिसार,
झुंझलाहट होती दिशाहीन अपनी मति पर,
किंकर्तव्यविमूढ सा फिर देखता, समय का विस्तार!

हाथ गहे हाथों में, कभी करता फिर विचार!
जटिल बड़ी है यह पहेली,नहीं किसी की ये सहेली!
झुंझलाहट होती दिशाहीन मन की गति पर,
ठिठककर दबे पाँवों फिर देखता, समय का विस्तार!

हूँ मैं इक लघुकण, क्या पाऊँगा अभिसार?
निर्झर है यह समय, कर पाऊँगा मैं केसे अधिकार?
अकुलाहट होती संहारी समय की नियति पर,
निःशब्द स्थिरभाव  फिर देखता, समय का विस्तार!

रच लेता हूँ मन ही मन इक छोटा सा संसार,
समय की बहती धारा में मन को बस देता हूँ उतार,
सरसराहट होती, नैया जब बहती बीच धार,
निरुत्तर भावों से मैं फिर देखता, समय का विस्तार!

Sunday 3 September 2017

नवव्याहिता

रिवाजों में घिरी, नव व्याहिता की बेसब्र सी वो घड़ी!
उत्सुकता भड़ी, चहलकदमी करती बेसब्र सी वो परी!

नव ड्योड़ी पर, उत्सुक सा वो हृदय!
मानो ढूंढ़ती हो आँखें, जीवन का कोई आशय!
प्रश्न कई अनुत्तरित, मन में कितने ही संशय!
थोड़ी सी घबड़ाहट, थोड़ा सा भय!

दुविधा भड़ी, नजरों से कुछ टटोलती बेसब्र सी वो परी!

कैसी है ये दीवारें, है कैसा यह निलय?
कैसे जीत पाऊँगी, यहाँ इन अंजानों के हृदय?
अंजानी सी ये नगरी, जहाँ पाना है प्रश्रय!
क्या बींध पाऊँगी, मैं साजन का हिय?

दहलीज खड़ी,  मन ही मन सोचती बेसब्र सी वो परी!

छूटे स्नेह के बंधन, हुए हम पत्थर हृदय?
इतर बाबुल के घर, अब अन्यत्र मेरा है आलय!
ये किस बस्ती में मुझको ले आया है समय!
अंजाने चेहरों से क्युँ लगता है भय!

रिवाजों में घिरी, नव व्याहिता की बेसब्र सी वो घड़ी!
उत्सुकता भड़ी, चहलकदमी करती बेसब्र सी वो परी!

Thursday 1 September 2016

कसक

सिराहने तले दबी मिली कुछ धुंधली सी यादें,
दब चुकी थी वो समय की तहों में,
परत धूल की जम गई थी उन गुजरे लम्हों में,
अक्सर वो झांकता था सिराहने तले से,
कसक ये कैसी दे गई वो भूली-बिसरी सी बातें ....

वो हवाओं में टहनियों का झूल जाना,
उन बलखाती शाखों को देख सब भूल जाना,
लाज के घूंघट लिए वो खिलती सी कलियाॅ,
मुस्कुराते से लम्हों में घुलती वो मिश्री सी बतियाॅ,
कसक कितने ही साथ लाईं वो धुंधली सी यादें .....

जैसे फेंका हो कंकड़ सधे हाथों से किसी ने,
ठहरी हुई झील सी इस शान्त मन में,
वलय कितने ही यादों के अब लगे हैं बिखरने,
वो तस्वीर धुंधली सी झिलमिलाने लगी फिर मन में ,
कसक फिर से जगी है, पर है अब कहाॅ वो बातें ......

पलटे नहीं जाएंगे अब मुझसे फिर वो सिराहने,
अब लौट कर न आना ऐ धुंथली सी यादें,
तू कभी मुड़कर न आना फिर इस झील में नहाने,
पड़ा रह सिराहने तले, तू यूॅ ही धूल की तहों में,
कसक अब न फिर जगाना,  तू ऐ गुजरी सी यादें .....

Sunday 15 May 2016

दूरियों के दरमियाँ

हमको जुदा न कर सकेंगी ये दूरियों के दरमियाँ!

हम मिलते रहे हैं हर पल यूँ दूरियों के दरमियाँ,
रीत ईक नई बनती गई दूरियों के दरमियाँ,
समय यूँ गुजरता प्रतिपल इन दूरियों के दरमियाँ !

बदल रहा ये रूप ये रंग इस समय के दरमियाँ,
न बदले हैं हम कभी इस समय के दरमियाँ,
वक्त लेता रहा करवटें तुम संग समय के दरमियाँ!

ये दूरियों के दायरे रहे उम्र भर तेरे मेरे दरमियाँ,
वक्त कभी न भर सका दूरियों के दरमियाँ,
मेरे हृदय में रहे सदा तुम इन दूरियों के दरमियाँ!

Sunday 1 May 2016

रहना तो है हमें

है पाप क्या और पुन्य क्या, है बस समझ का फेर ये!

रीति रिवाज हम कहते हैं जिसे,
सीमा इन मर्यादाओं की बंधी है बस उनसे,
पाप-पुन्य तो बस समझ के है फेरे,
रहना तो है हमें, बस इन रीतियों के बंधन के ही तले।

सच है क्या और झूठ क्या, है बस समय का फेर ये!

कभी तो ये मन भटकता दिशाहीन सा,
रीतियों रिवाजों की परवाह तब कौन करता,
सच-झूठ तो बस समय के है फेरे,
रहना तो है हमें, पर मन पर नियंत्रण तब कौन करे।

क्या सही और क्या गलत, है बस समझ का फेर ये!

भटका था मन जिस पल कहाँ थी वो मर्यादा,
मन को नियंत्रित कब कर सका है मन की पिपाशा,
सही-गलत तो बस समझ के है फेरे,
रहना तो है हमें, पर इन विसंगतियों से ही हैं हम बने।

Saturday 30 April 2016

समय की सिलवटें

गुजरता यह समय, कितने ही आवेग से........!

कुलांचे भर रही,
ये समय की सिलवटें,
बड़ी ही तेज रफ्तार इसकी,
भर रही ये करवटें,
रोके ये कब रुक सका है, आदमी के वास्ते।

फिर किस वास्ते,
हैं शिकन की ये लकीरें,
किसका ये कब हो सका,
रोए है तू किसके लिए,
बदलता रहा है समय हमेशा, करवटें लेते हुए।

कुछ साँसें मिली,
है तुझे वक्त की ओट से,
जी ले यहाँ हर साँस तू,
इन मायुसियाें को छोड़ के,
फिर कहा तू जी सकेगा, इस समय की चोट से।

Friday 18 March 2016

परत दर परत समय

परत दर परत सिमटती ही चली गई समय,
गलीचे वक्त की लम्हों के खुलते चले गए,
कब दिन हुई, कब ढ़ली, कब रात के रार सुने,
इक जैसा ही तो दिखता है सबकुछ अब भी ,
पर न अब वो दिन रहा, ना ही अब वो रात ढ़ले।

रेत की मानिंद उड़ता ही रहा समय का बवंडर,
लम्हों के सैकत उड़ते रहे धुआँ धुआँ बनकर,
अपने छूटे, जग से रूठे, संबंध कई जुड़ते टूटते रहे,
कभी कील बनकर चुभते रहे एहसासों के नस्तर,
धूँध सी छाई हर तरफ जिस तरफ ये नजर चले।

समय का दरिया खामोश सा बह रहा निरंतर ,
कितनी ही संभावनाओं का हरपल गला रेतकर,
कितनी ही आशाओं का क्षण क्षण दम घोंटकर,
पर नई आशाएँ संभावनाओं को नित जन्म देकर,
बह चले हैं हम भी अब जिस तरफ ये समय चले।

Thursday 31 December 2015

समय और अनुबंध

अनुबंधों में हम बंध सकते हैे,
समय नही अनुबंधों में बंधता,
समय निरंकुश क्या बंध पाएगा,
अनुबंधों की परिधियां तोड़ता,
गंतव्य की ओर निकल जाएगा।

मानव विवश है समय सीमा में,
सुख-दुख दोनों समय के हाथों,
अनुबंध की शर्तें विवश समय मे,
समय सत्ता जो समझ पाएगा,
अनुबंधो के पार वही जा पाएगा।

Saturday 26 December 2015

उम्र के इस पड़ाव पर

मानव मन की चाह होती असीमित,
ईच्छाएँ पैदा लेती इनमें अपरिमित,
चाहता ये ब्रम्हांड की सीमा छू लेना,
पर हासिल ना कुछ भी हो पाता।

सोचता था बरगद सा विशाल बनूँगा,
दरख्तों सी होगी शख्सियत हमारी,
विशाल कंधों पर होगा युग का जुआ,
पर हासिल ना कुछ भी हो पाता ।

बरगद जिसकी है असंख्य मजबूत बाहें,
शाखाएँ फैली चहुँ दिशा में लिए छाँव घने,
शख्सियत सागर पटल सी लंबी उम्र लिए,
पर हासिल ना कुछ भी हो पाया ।

ढ़लते उम्र के इस पड़ाव पर सोचता,
चंचल पखेरू मन अधीर सा होता जाता,
हाथों से रेत सी फिसलती जाती वक्त,
और हासिल ना कुछ भी कर पाता।

ईश्वर ने दिया है बस ईक जीवन,
सांसें भी दी है बस गिनतियों की,
करनी थी आशाएँ सब पूरी इनमें,
पर हासिल ना कुछ भी हो पाया ।

चाहता हूँ समय ले फिर से करवट,
उलटी दिशा में फिर लौट चले ये,
कर सकुँ शुरुआत पुनः जीवन का,
पर हासिल ना कुछ भी हो पाता ।

समय बलवान महत्ता इसकी तू पहचान,
कर कुछ ऐसा, बरगद से भी हो तू महान,
शख्सियत में तेरे, जड़ जाएं चांद-सितारे,
सागर पटल भी आएँ, छूने चरण तुम्हारे।