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Saturday 5 March 2016

रेत का समुन्दर

सब कहते हैं मुझको रेत का समुन्दर,
उन्हे नहीं पता क्या-क्या है मेरे अन्दर,
हूँ तो समुन्दर ही,भले रेत का ही सही,
एक दुनियाँ पल रही है मेरे अन्दर भी।

रेत तपकर ही बनती है मृग-मरिचिका,
तपती रेत पाँवों को देती असह्य पीड़ा,
चक्षु दिग्भ्रमित कर देती मृगमरीचिका,
समुंदर रेत का ही पर अस्तित्व है मेरा।

गर्मी रेत की शीतल हो जाती रातों में,
मरीचिका रेत की, है सुन्दर ख्वाबों में,
पल जाती है नागफनी भी  इस रेत में,
विशाल रेगिस्तान दिखती है सपनों में।

गर्भ में रेत के रहती हैं जिन्दगियाँ कई,
गर्भ में रेत की जीवन सुंदर नई नवेली,
करोड़ों आशाएँ  दफन रहती रेत में ही,
समुन्दर रेत का मगरअस्तित्व मेरा भी।

उथली जल धार टिकती मुझ पर नहीं,
सोख लेता हूँ प्राण, मैं उथले जल की,
स्नेह नहीं स्वीकार, मुझको बूंदों जैसी,
रेत का समुन्दर अपार जलधार प्यारी।

Thursday 21 January 2016

विषमता

सोचता हूँ कभी!

विशाल समुन्द्र का विस्तृत दामन,
कितना समृद्ध और साधन सम्पन्न,
अधिकता की सीमा से अधिक धन,
विस्तार की सीमा से ज्यादा विस्तृत,
फिर भी कितना अस्थिर इसका मन?

सोचता हूँ कभी!

विशाल समुन्द्र क्युँ रहता विचलित?
अनवरत गर्जते जल-राशि की तड़प,
विकराल होती हुई उठती ऊँची लहर,
हृदय के अन्दर समेटे अनेकों भँवर,
विषमता उद्वेलित कर देती मेरा मन।

सोचता हूँ कभी!

उस छोटी सी नदी की क्या है गलती?
दुर्गम पहाड़ों के शिखर पर यह पलती,
घने जंगल, कंकड़, पत्थरों से गुजरती,
सूखी बंजर धरती को सींच उर्वर करती,
फिर क्युँ ना हो विचलित इसका मन?

सोचता हूँ कभी!

विस्तृत दामन सागर क्या हो पाया परिपू्र्ण?
खुद की विचलन पर क्यूँ न रखता नियंत्रण?
सागर का विशाल हृदय फिर किस काम का?
फिर क्यों न हो उद्वेलित सीमित नदी का मन?
विषमता देख इनमें उद्वेलित होता मेरा मन!