Showing posts with label सांझ. Show all posts
Showing posts with label सांझ. Show all posts

Saturday 3 February 2024

ढ़लती सांझ

ढ़लनी है, ढ़ल तो जाएगी ये सांझ,
रुकेंगी, वो कब तलक,
ठहरेंगी, वो कैसे!
प्रबल होती निशा, सिमटती दिशा,
बंदिशें, वक्त के हैं बहुत!

ढ़लनी है, ढ़ल तो जाएगी ये सांझ,
लघुतर, जीवन के क्षण,
विरह का, आंगन,
वृहदतर, तप्त उच्छवासों के क्षण,
इन्हें कौन करे पराजित!

ढ़लनी है, ढ़ल तो जाएगी ये सांझ,
पर बिखेर कर, किरणें,
उकेर कर, सपने, 
क्षितिज पर, उतार कर सारे गहने,
कर जाएगी, अभिभूत!

ढ़लनी है, ढ़ल तो जाएगी ये सांझ,
कर, नैनों को विस्मित,
हर जाएगी, मन,
खोलकर, बंद कितने ही चिलमन,
कर जाएगी, आत्मभूत!

ढ़लनी है, ढ़ल तो जाएगी ये सांझ..

Sunday 19 March 2023

इन दिनों

उन दिनों, हम गुम थे कहीं...
चुप थी राहें!
गुम कहीं, उन कोहरों में किरण,
मूक, मन का हिरण,
पुकारता किसे!

बे-आवाज, पसरी वो राहें...
संग थी मेरे,
चल पड़ा, चुनकर वो एक पंथ,
लिए सपनों का ग्रंथ,
अपनाता किसे!

बह चला, वक्त का ढ़लान...
वो इक नदी,
बहा ले चली, कितनी ही, सदी,
बह चले, वो किनारे,
संवारता किसे!

दिवस हुआ, अवसान सा...
रंग, सांझ सा,
डूबते, क्षितिज के वे ही छोर,
बुलाए अपनी ओर,
ठुकराएं कैसे!

इन दिनों, हम चुप से यहां...
वे क्षण कहां!
पर बिखरे हैं, फिर वो ही कोहरे,
गगन पे, वो ही घन,
निहारता जिसे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 17 March 2023

उम्र की क्या खता


उम्र की क्या खता, वक्त तू ही बता!

तेरी ही सिलवटों से, झांकता,
भटकता, इक राह तेरी,
ढूंढता, धुंधली आईनों में,
खोया सा पता!

उम्र की क्या खता, वक्त तू ही बता!

इक धार तेरी, सब दी बिसार,
बहाए ले चली, बयार,
उन्हीं सुनसान, वादियों में,
ढूंढ़ू तेरा पता!

उम्र की क्या खता, वक्त तू ही बता!

लगे, अब आईना भी बेगाना,
ढ़ले, सांझिल आंगना,
दरकते कांच जैसे स्वप्न में,
भूल बैठा पता!

उम्र की क्या खता, वक्त तू ही बता!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 12 December 2021

मैं प्रशंसक

वो, सर्दियों में, गुनगुनी सी धूप जैसे,
पिघलती सांझ सी, रूप वो!

ठगा सा मैं रहूं, ताकूं, उसे ही निहारूं,
ओढ़ लूं, रुपहली धूप वो ही,
जी भर, देख लूं, 
पल-पल, बदलता, इक रूप वो ही,
हो चला, उसी का मैं प्रशंसक,
कह भी दूं, मैं कैसे!

वो, सर्दियों में, गुनगुनी सी धूप जैसे,
पिघलती सांझ सी, रूप वो!

समेट लूं, नैनों में, उसी की इक छटा,
उमर आई, है कैसी ये घटा!
मन में, उतार लूं,
उधार लूं, उस रुप की इक कल्पना,
अद्भुत श्रृंगार का, मैं प्रशंसक,
कह भी दूं, मैं कैसे!

वो, सर्दियों में, गुनगुनी सी धूप जैसे,
पिघलती सांझ सी, रूप वो!

बांध पाऊं, तो उसे, शब्दों में बांध लूं,
लफ़्ज़ों में, उसको पिरो लूं,
प्रकल्प, साकार लूं,
उस क्षितिज पर बिखरता, रंग वो,
उसी तस्वीर का, मैं प्रशंसक,
कह भी दूं, मैं कैसे!

वो, सर्दियों में, गुनगुनी सी धूप जैसे,
पिघलती सांझ सी, रूप वो!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 3 October 2021

अधूरा शै

लगाए, खुद पे पहरा,
हर शख्स, है कितना अधूरा!

कितनी गांठें, बंध गई, इस मन के अन्दर,
प्यासा रह गया, कितना समुन्दर,
बहता जल, नदी का, ज्यूं कहीं हो ठहरा,
लगाए, खुद पे पहरा,
हर शै, यहां कितना अधूरा!

मुरझा चुकी, कितनी कलियां, बिन खिले, 
असमय, यूं बिखरे फूल कितने,
बागवां से, इक बहार, कुछ यूं ही गुजरा,
लगाए, खुद पे पहरा,
हर बाग, है कितना अधूरा!

बरस सके ना, झूमकर, बादल चाहतों के,
ढ़ंग, मौसमों के, बदले-बदले,
वो बादल, आसमां से कुछ यूं ही गुजरा,
लगाए, खुद पे पहरा,
हर चाह, है कितना अधूरा!

तमन्नाओं के डोर थामे, बिताई उम्र सारी,
प्यासी रह गई, जैसे हर क्यारी,
दूर, यूं ढ़ल रहा सांझ, ओढ़े रंग सुनहरा,
लगाए, खुद पे पहरा,
हर रंग, है कितना अधूरा!

लगाए, खुद पे पहरा,
हर शख्स, है कितना अधूरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 14 September 2021

संगी सांझ के

ओ संगी मेरे, मेरी सांझ के...

यूँ न फेरो उधर, तुम अपनी आँखें,
देखो इधर, अभी है सवेरा,
घेरे है, तुझको, ये कैसा अंधेरा, 
सिमटने लगा, क्यूँ मुझसे मेरा सवेरा,
आ रख लूँ, तुझे थाम के!

ओ संगी मेरे, मेरी सांझ के...

तू यूँ न कर, जल्दी जाने की जिद, 
यूँ चल कहीं, वक्त से परे,
खाली ये पल, चल न, संग भरें,
छिनने लगे, क्यूँ सांझ के मेरे सहारे,
आ रख लूँ, तुझे बांध के!

ओ संगी मेरे, मेरी सांझ के...

यूँ न देख पाऊँ, क्लांत चेहरा तेरा,
तमस सी, अशान्त साँसें,
क्यूँ न उधार लूँ, वक्त, सांझ से,
भर लूँ जिन्दगी, उभरते विहान से,
आ रख लूँ, तुझे मांग के!

ओ संगी मेरे, मेरी सांझ के...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)
...............................................
- जाने क्यूँ! हो चला, 
सांझ से पहले, सांझ का अंदेशा,
बिखरी सी, लगे हर दिशा!
जाने क्यूँ!

Saturday 4 September 2021

ये शहर

छोड़िए भी, शहर से बेहतर थी मेरी गली।

न दिन का पता, न खबर शाम की,
जिन्दगी, सिर्फ यहाँ नाम की,
कितनी अधूरी, हर भोर, 
और, अधूरी सी, हर शाम हो चली!

छोड़िए भी, शहर से बेहतर थी मेरी गली।

अधूरे से, कुछ गीत, रहे सदियों मेरे,
टूटे, अभिलाषाओं के तानपूरे,
चुप-चुप, रही ये वीणा,
और, अधखिली उमंगों की कली!

छोड़िए भी, शहर से बेहतर थी मेरी गली।

भोर, चितचोर लगे, तो ये मन जागे,
ये बांध ले, जज्बातों के धागे,
छाए, अंधियारे से साए,
और, सिमटती सी, हर भोर मिली!

छोड़िए भी, शहर से बेहतर थी मेरी गली।

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday 9 August 2021

बहता किनारा

पिघलते सांझ सा, बहता किनारा,
कब, हो सका हमारा!

पर, गुजारे हैं, पल, सारे यहीं,
रख चले, बुनकर, सपनों के सारे, धागे यहीं,
पर, देखती कहाँ, पलट कर?
भागते, वो धारे,
बहा ले जाती, इक उम्र सारा!

पिघलते सांझ सा, बहता किनारा,
कब, हो सका हमारा!

पलटकर, लौट आती है रोज,
बरबस, भर एक आलिंगन, करती है बेवश,
पिघलता, वो रुपहला पहर,
डूबते, वो सहारे,
जैसे, कर जाते हैं.. बेसहारा!

पिघलते सांझ सा, बहता किनारा,
कब, हो सका हमारा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 29 June 2021

फिर याद आए

फिर याद आए, वो सांझ के साए....

था कोई साया, जो चुपके से पास आया,
थी वही, कदमों की हल्की सी आहट,
मगन हो, झूमते पत्तियों की सरसराहट,
वो दूर, समेटे आँचल में नूर वो ही,
रुपहला गगन, मुझको रिझाए....

फिर याद आए, वो सांझ के साए....

हुआ एहसास, कि तुझसे मुक्त मैं न था,
था रिक्त जरा, मगर था यादों से भरा,
बेरहम तीर वक्त के, हो चले थे बेअसर,
ढ़ल चला था, इक, तेरे ही रंग मैं,
बेसबर, सांझ ने ही गीत गाए....

फिर याद आए, वो सांझ के साए....

ढ़लते गगन संग, तुम यूँ, ढ़लते हो कहाँ,
छोड़ जाते हो, कई यादों के कारवाँ,
टाँक कर गगन पर, अनगिनत से दीये,
झांकते हो, आसमां से जमीं पर,
वो ही रौशनी, मुझको जगाए....

फिर याद आए, वो सांझ के साए....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 25 May 2021

अनुभूत

रह-रह, कुछ उभरता है अन्दर,
शायद, तेरी ही कल्पनाओं का समुन्दर,
रह रह, उठता ज्वार,
सिमटती जाती, बन कर इक लहर,
हौले से कहती, पाँवों को छूकर,
एकाकी क्यूँ हो तुम!

अनुभूतियों का, ये कैसा सागर,
उन्मत्त किए जाती है, जो, आ-आ कर,
उभरती, ये संवेदनाएं,
यदा-कदा, पलकों पर उतर आएं,
बूँदों में ढ़ल, नैनों में कह जाए,
एकाकी क्यूँ हो तुम!

हो जैसे, लहरों पे सांझ किरण,
झूलती हों, पेड़ों पे, इक उन्मुक्त पवन,
हल्की सी, इक सिहरन,
अनुभूतियों के, गहराते से वो घन,
कह जाती है, छू कर मेरा मन,
एकाकी क्यूँ हो तुम!

रह-रह, कुछ सिमटता है अंदर,
शायद, ज्वार-भाटा की वो लौटती लहर,
चिल-चिलाती दोपहर,
रुपहला, सांझ का, बिखरा प्रांगण,
कह जाता है, रातों का आंगन,
एकाकी क्यूँ हो तुम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 5 May 2021

अंजान रिश्ते

मन, तू जागा है क्यूँ?
क्यूँ, है थामे!
अनगिनत, अंजान रिश्तों का, धागा तू?

खुद कहाँ, कब, तुझको पता!
कब, जुड़ा रिश्ता!
लग गए, कब अदृश्य से गाँठ कई!
कब गुजर गए, बन सांझ वही!
तो जागा, क्यूँ लिखता?
व्यथा की, वही एक अन्तःकथा तू!

मन, तू जागा है क्यूँ?
क्यूँ, है थामे!
अनगिनत, अंजान रिश्तों का, धागा तू?

कल, पल न बन जाए भारी!
यूँ, निभा न यारी!
न कर, उन अनाम रिश्तों की सवारी,
कल, कौन दे, तुझको यूँ ढ़ाढ़स,
न यूँ, बेकल पल बिता,
यूँ न गढ़, व्यथा की अन्तःकथा तू!

मन, तू जागा है क्यूँ?
क्यूँ, है थामे!
अनगिनत, अंजान रिश्तों का, धागा तू?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 18 April 2021

उभरता गजल

सांझ के, बादल तले,
उभर आए हो, बनकर इक गजल,
देखें किसे!

दैदीप्य सा, इक चेहरा, है वो,
सब, नूर कहते हैं जिसे,
पिघल कर, उतर आए जमीं पर,
चाँद कहते हैं,
हम उसे!

सांझ के, बादल तले...

बड़ी ही, सुरीली सी सांझ ये,
सब, गीत कहते हैं जिसे,
जो, नज्म बनकर, गूंजे दिलों में, 
गजल कहते हैं, 
हम उसे!

सांझ के, बादल तले...

चह-चहाहट, या तेरी आहट,
कलरव, समझते हैं उसे,
सुरों की, इक लरजती रागिणी,
संगीत कहते हैं,
हम उसे!

सांझ के, बादल तले,
उभर आए हो, बनकर इक गजल,
देखें किसे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 10 April 2021

बेजुबां खौफ

जुबां ये, बेजुबां सी हो चली...

अब तो जिंदगी, कैद सी लगने लगी,
अभी, इक खौफ से उबरे, 
फिर, नई इक खौफ!
शेष कहने को है कितना, पर ये सपना!
सपनों तले, क्या उम्र ढ़ली!

जुबां ये, बेजुबां सी हो चली...

पहरे लगे हैं, साँसों की रफ्तार पर,
अवरुद्ध कैसी, सांसें यहाँ,
नया, ये खौफ कैसा!
इस खौफ की, अलग ही, पहचान अब!
पहरों तले, क्या उम्र ढ़ली!

जुबां ये, बेजुबां सी हो चली...

अलग सी ये दास्ताँ, इस दौर की,
बोझिल राह, हर भोर की,
खौफ में, सिमटे हुए,
गुजरते दिन की, अंधेरी सी, सांझ अब!
अंधेरों तले, क्या उम्र ढ़ली!

जुबां ये, बेजुबां सी हो चली...

चुपचाप, सिमटने लगी अब राहें,
बिन बात, अलग दो बाहें,
शून्य को, तकते नैन,
विवश हो एकांत जब, कहे क्या जुबां!
यूंही अकेले, क्या उम्र ढ़ली!

जुबां ये, बेजुबां सी हो चली...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
------------------------------------------------------कोरोना - पार्ट 2....

Wednesday 24 March 2021

स्वप्न कोई खास

उलझे ये नैन, बुनते रहे, स्वप्न कोई खास!

समेट कर, सारी व्यग्रता,
भर कर, कोई चुभन,
बह चली थी, शोख चंचल सी, इक पवन,
सिमटती वो सांझ,
डूबता, गगन,
कैसे न होता, एक अजीब सा एहसास,
अधीर सा करता, एक आभास!

उलझे ये नैन, बुनते रहे, स्वप्न कोई खास!

दीप तले, सिमटती रात,
वो, अधूरी सी बात,
कोई जज्बात लिए, वो सांझ की दुल्हन,
डूबता सा आकाश,
खींचता मन,
दिलाता रहा, उन आहटों का पूर्वाभास,
अधीर सा करता, एक आभास!

उलझे ये नैन, बुनते रहे, स्वप्न कोई खास!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 6 February 2021

परिणति

धूमिल सांझ हो, या जगमग सी ज्योति!
जाने क्या हो, परिणति!
आहुति या पूर्णाहुति!
एक जिद है, तो जिए जाना है!
तपिश में, निखर जाना है!

इक यज्ञ सा जीवन, मांगती है आहुति!
हार कर, जो छोड़ बैठे!
तीर पर ही, रहे बैठे!
ये तो धार है, बस बहे जाना है!
डुबकियाँ ले, पार जाना है!

भूल जा, उन यादों को मत आहूत कर!
हो न जाए, सांझ दुष्कर!
राह, अपनी पकड़!
ठहराव ये, थोड़े ही ठिकाना है!
ये बंध सारे, तोड़ जाना है!

सुबह और शाम, ढूंढते ये अल्पविराम!
संघर्ष, स्वीकारते सहर्ष!
चलते, बिन विराम!
ये संसृति, खुद में ही तराना है!
राग ये ही, सीख जाना है!

गहन अंधेरी रात हो, या प्रदीप्त ज्योति!
जाने क्या हो, परिणति!
आहुति या पूर्णाहुति!
एक प्रण है, तो, पार पाना है!
अगन में, सँवर जाना है!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 19 January 2021

झुर्रियाँ

बोझ सारे लिए, उभर आती हैं झुर्रियाँ,
ताकि, सांझ की गर्दिश तले, 
यादें ओझिल न हो, सांझ बोझिल न हो!

उम्र, दे ही जाती हैं आहट!
दिख ही जाती है, वक्त की गहरी बुनावट!
चेहरों की, दहलीज पर, 
उभर आती हैं.....
आड़ी-टेढ़ी, वक्र रेखाओं सी ये झुर्रियाँ,
सहेजे, अनन्त स्मृतियाँ!

वक्त, कब बदल ले करवट!
खुरदुरी स्मृति-पटल, पे पर जाए सिलवट!
चुनती हैं एक-एक कर,
उतार लाती हैं.....
जीवन्त भावों की, गहरी सी ये पट्टियाँ,
मृदुल छाँव सी, झुर्रियाँ!

घड़ी अवसान की, सन्निकट!
प्यासी जमीन पर, ज्यूँ लगी हो इक रहट!
इस, अनावृष्ट सांझ पर,
न्योछार देती हैं...
बारिश की, भीगी सी हल्की थपकियाँ, 
कृतज्ञ छाँव सी, झुर्रियाँ!

बोझ सारे लिए, उभर आती हैं झुर्रियाँ,
ताकि, सांझ की गर्दिश तले, 
यादें ओझिल न हो, सांझ बोझिल न हो!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 3 December 2020

विस्मृति

नहीं हो तुम कहीं, पर अभी तो, तुम थे यहीं!
स्मृतियाँ, बार-बार ले आती हैं तुम्हें,
और, मूर्त हो उठते हो तुम।

देखो ना! आज फिर, सजल हैं नैन तेरे,
बहते समीर संग, उड़ चले हैं, गेसूओं के घेरे,
चुप-चुप से हो, पर कंपकपाए से हैं अधर,
मौन हो जितने, हो उतने ही मुखर,
कितनी बातें, कह गए हो, कुछ कहे बिन,
चाहता हूँ कि अब रुक भी जाओ तुम!
रोकता हूँ कि अब न जाओ तुम!
विस्मृति के, इस, सूने से विस्तार में,
कहीं दूर, खो न जाओ तुम!
रोके, रुकते हो कहाँ तुम!

पर, तुम्हारी ही स्मृति, ले आती हैं तुम्हें,
दो नैन चंचल, फिर से, रिझाने आती हैं हमें,
खिल आते हो, कोई, अमर बेल बन कर,
बना लेते हो अपना, पास रहकर,
फिर, हो जाते हो धूमिल, कुछ कहे बिन,
उमर आते हो कभी, उन घटाओं संग,
सांझ की, धूमिल सी छटाओं संग,
विस्मृति के, उसी, सूने से विस्तार में,
वापस, सिमट जाते हो तुम!
रोके, रुकते हो कहाँ तुम!

नहीं हो तुम कहीं, पर अभी तो, तुम थे यहीं!
स्मृतियाँ, बार-बार ले आती हैं तुम्हें,
और, मूर्त हो उठते हो तुम।

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 6 March 2020

बरसों ढ़ले

बरसों ढ़ले, सांझ तले, तुम कौन मिले!

फिर पनपा, इक आस,
फिर जागे, सुसुप्त वही एहसास,
फिर जगने, नैनों में रैन चले!

बरसों ढ़ले, सांझ तले, तुम कौन मिले!

फिर पंकिल, नैन हुए,
फिर, कल-कल उमड़ी करुणा,
फिर स्नेह, परिधि पार चले!

बरसों ढ़ले, सांझ तले, तुम कौन मिले!

फिर मिली, वही व्यथा,
फिर, झंझावातों सी बहती सदा,
फिर एकाकी, दिन-रैन ढ़ले!

बरसों ढ़ले, सांझ तले, तुम कौन मिले!

फिर ढ़ली, उमर सारी,
सुसुप्त हुई, कल्पना की क्यारी,
इक दीपक, सा मौन जले!

बरसों ढ़ले, सांझ तले, तुम कौन मिले!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 16 February 2020

अवधान

टूटा ना अवधान,
उस, काल कोठरी में,
कैद हो चला, एक दिन और!
बिन व्यवधान!

और एक दिन....

धारा है अवधान,
मौन धरा नें, 
पल, अनगिनत बह चला,
अनवरत, रात ढ़ली, दिवस ढ़ला,
हुआ, सांझ का अवसान,
बिन व्यवधान!

और एक दिन....

टूटा ना अवधान,
कालचक्र का,
कहीं सृजन, कहीं संहार,
कहीं लूटकर, किसी का श्रृंगार,
वक्त, हो चला अन्तर्धान,
बिन व्यवधान!

और एक दिन....

कैसा ये अवधान,
वही है धरा,
बदला, बस रूप जरा,
छाँव कहीं, कहीं बस धूप भरा,
क्षण-क्षण, हैं अ-समान,
बिन व्यवधान!

और एक दिन....

टूटा ना अवधान,
उस, काल कोठरी में,
कैद हो चला, एक दिन और!
बिन व्यवधान!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)
------------------------------------
अवधान का अर्थ:
1. मन का योग । चित्त का लगाव । मनोयोग ।
2. चित की वृत्ति का निरोध करके उसे एक ओर लगाना । समाधि । 
3. ध्यान । सावधानी । चौकसी ।

Wednesday 29 January 2020

अन्तिम शब्द तेरे

शब्द वो! 
अन्तिम थे तेरे....

कोई हर्फ, नहीं, 
गूंजती हुई, इक लम्बी सी चुप्पी,
कँपकपाते से अधर,
रूँधे हुए स्वर,
गहराता, इक सूनापन,
सांझ मद्धम,
डूबता सूरज,
दूर होती, परछाईं,
लौटते पंछी,
खुद को, खोता हुआ मैं,
नम सी, हुई पलकें,
फिर न, चलके,
कभी थी, वो सांझ आई,
वो हर्फ,
खोए थे, मेरे!

शब्द वो!
अन्तिम थे तेरे....

वही, संदर्भ,
शब्दविहीन, अन्तहीन वो संवाद,
सहमा सा, वो क्षण,
मन का रिसाव,
टीसता, वही इक घाव,
घुटती चीखें,
कैद स्वर,
न, मिल पाने का डर,
उठता सा धुआँ,
धुँध में, कहीं खोते तुम,
कहीं मुझमें होकर, 
गुजरे थे, तुम,
हर घड़ी, गूँजते हैं अब,
वो हर्फ, 
जेहन में, मेरे!

शब्द वो! 
अन्तिम थे तेरे....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)