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Sunday 2 February 2020

बसंत के दरख्त-1

गुजर सा गया हूँ!
या, और थोड़ा, सँवर सा गया हूँ?
बसंत के ये, दरख्त जैसे!

कई रंग, अंग-अंग, उभरने लगे,
चेहरे, जरा सा, बदलने लगे,
शामिल हुई, अंतरंग सारी लिखावटें,
पड़ने लगी, तंग सी सिलवटें,
उभर सा गया हूँ!
या, और थोड़ा, निखर सा गया हूँ?
कभी था, अव्यक्त जैसे!

बसंत के ये, खिले से दरख्त जैसे!

ये सांझ, धूमिल होने को आए,
जैसे, हर-पल, कोई बुलाए,
हासिल हुई, पनपती थी जो हसरतें 
हुई खत्म, सारी शिकायतें,
अदल सा गया हूँ!
या, और थोड़ा, बदल सा गया हूँ?
ना हूँ मैं, आश्वस्त जैसे!

बसंत के ये, खिले से दरख्त जैसे!

दुलारे लगे, ऋतुओं के नजारे,
नदी के, दो बहते से धारे,
ओझल हुई, नजरों से वो नाव अब,
दिखने लगा, वो गाँव अब,
पिघल सा गया हूँ!
या, और थोड़ा, उबल सा गया हूँ?
नसों में, बहे रक्त जैसे!

बसंत के ये, खिले से दरख्त जैसे!

गुजर सा गया हूँ!
या, और थोड़ा, सँवर सा गया हूँ?
बसंत के ये, दरख्त जैसे!
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"बसंत के दरख्त" (भाग-2) इस लिंक पर पढ़ें  "बसंत के दरख्त-2"
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- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 6 April 2019

फीकी सी चाय

चंद बातें, फीकी सी पड़ती इक चाय....

एक रूह, एक मैं,
एक तुम, एक पल एक संग,
एक एहसास, बेवजह एक बकवास,
एक ही जिद, विछोह भरे वो पल,
और एक तुम!

एक ही हकीकत,
एक चाहत, कितने ही ख्वाब,
एक सपना, गमगीन कितनी ही रात,
भँवर से उठते, हजारों जज़्बात,
और एक तुम!

साथ वो एहसास,
कुम्भलाता, कभी इतराता,
गहराता, उन पलों के नजदीक लाता,
कहीं धूँध में लिपटी एक परछाई,
और एक तुम!

सितारों भरी रातें,
खुली ये आँखें, भूली सी बातें,
एक तड़प, करवटो के दोनों ही तरफ,
ताकती दो आँखें, एक ही चेहरा,
और एक तुम!

यादें, भूले से वादे,
फीकी सी पड़ती एक चाय,
कई रातें, हजार करवटें, कई सिलवटें,
कई सुबह, बिन चीनी इक चाय,
और एक तुम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday 30 April 2016

समय की सिलवटें

गुजरता यह समय, कितने ही आवेग से........!

कुलांचे भर रही,
ये समय की सिलवटें,
बड़ी ही तेज रफ्तार इसकी,
भर रही ये करवटें,
रोके ये कब रुक सका है, आदमी के वास्ते।

फिर किस वास्ते,
हैं शिकन की ये लकीरें,
किसका ये कब हो सका,
रोए है तू किसके लिए,
बदलता रहा है समय हमेशा, करवटें लेते हुए।

कुछ साँसें मिली,
है तुझे वक्त की ओट से,
जी ले यहाँ हर साँस तू,
इन मायुसियाें को छोड़ के,
फिर कहा तू जी सकेगा, इस समय की चोट से।