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Friday 11 October 2019

अवगीत मेरे ही

बजती हैं धड़कन में तेरे, अवगीत मेरे!
भूलूँ कैसे मैं, एहसान तेरे!

सुरहीन मेरे गीतों को, जब तुम गाते हो,
मन वीणा संग, यूँ सुर में दोहराते हो,
छलक उठते हैं, फिर ये नैन मेरे।
भूलूँ कैसे मैं, एहसान तेरे!

सूने इस मन में, बज उठते हैं साज कई,
तन्हाई देने लगती है, आवाज कोई,
यूँ दूर चले जाते हैं, अवसाद मेरे!
भूलूँ कैसे मैं, एहसान तेरे!

गा उठते हैं संग, क्षोभ-विक्षोभ के क्षण,
नृत्य-नाद करते हैं, अवसादों के कण,
अनुनाद कर उठते हैं, तान मेरे!
भूलूँ कैसे मैं, एहसान तेरे!

अवगीतों पर मेरे, तूने छनकाए पायल,
गाए हैं रुन-झुन, आंगन के हर पल,
झंकृत हुए है संग, एकान्त मेरे!
भूलूँ कैसे मैं, एहसान तेरे!

बजती हैं धड़कन में तेरे, अवगीत मेरे!
भूलूँ कैसे मैं, एहसान तेरे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday 18 May 2019

अवगीत

अवगीत मेरे सुन लेना, लब से दोहराना!
खूबियों से अपनी, अवगत हो जाना,
फिर ख्वाब सुनहरे, आँखों में भर पाओगे!

सुरविहीन श्रृंगारविहीन, शब्द-पुंज मेरे!
राग-विहीन, राग-विलीन हैं गूँज मेरे,
स्वरांजल, सप्तसुरों की तुम ही दे पाओगे!

वो अनुतान कहाँ मुझमें, जो तेरे स्वर में!
वो आरोह कहाँ, जो तेरे आस्वर में!
मुझमें वो लोच कहाँ, जो तुम भर पाओगे!

सुर का ज्ञान नहीं, भावों से अंजान नहीं!
अवगीतों में, भावों को पढ़ पाओगे!
अवगीत मेरे, तब होठों पर रख गाओगे!

मेरे अवगीतों को, जब पिरोओगे सुर में,
खुद को ही पाओगे, तब मेरे सुर में,
अवगत फिर, इस अंजाने से हो जाओगे!

शब्द पिरोता हूँ, समाते हो तुम शब्दों में!
गा लेता हूँ, तुमको ही इन शब्दों में,
अवगीत अधूरे, तुम ही पूरा कर पाओगे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday 11 November 2018

खुद लिखती है लेखनी

मैं क्या लिखूं! खुद लिख पड़ती है लेखनी....

गीत-विहग उतरे जब द्वारे,
भीने गीतों के रस, कंठ में डारे,
तब बजते है, शब्दों के स्तम्भ,
सुर में ढ़लते हैं, शब्द-शब्द!

मैं क्या लिखूं! फिर खुद लिखती है लेखनी...

भीगी है जब-जब ये आँखें,
अश्रुपात कोरों से बरबस झांके,
तब डोलते हैं, शब्दों के स्तम्भ,
स्खलित होते हैं, शब्द-शब्द!

मैं क्या लिखूं! फिर खुद लिखती है लेखनी...

समुंदर की अधूरी कथाएं,
लहरें, तट तक कहने को आएं,
तब टूटते हैं, शब्दों के स्तम्भ,
बिखर जाते हैं, शब्द-शब्द!

मैं क्या लिखूं! फिर खुद लिखती है लेखनी...

Wednesday 23 May 2018

झ॔झावात

धुन में घुलते ये साज, बेसुरे हुए हैं क्यूं आज?

जीवन के ये झंझावात,
पल पल आँहों में, घिसते ये हालात,
अन्तर्मन में पिसती कोई बात,
धुन से भटकते ये साज.....
ऐसे में मन को कोई छू जाए,
दर्द दिलों के कम जाए,
धुन ऐसी ही कोई, सुना दे ना तू आज!

धुन में घुलते ये साज, बेसुरे हुए हैं क्यूं आज?

कोई अपनों से हो नाराज,
मीठे से रिश्तों में भर जाए खटास,
नदारद हो मिश्री की मिठास,
ये मन रहता हो उदास.....
ऐसे में गीत मधुर कोई गाए,
स्वर लहरी सी लहराए,
सुर ऐसी ही कोई, सुना दे ना तू आज!

धुन में घुलते ये साज, बेसुरे हुए हैं क्यूं आज?

सुरविहीन से ये अंधड़,
दिलों के अन्दर उतार गए ये खंजर,
सुख चैन कहाँ अब पल भर,
भावविहीन ये झंझावात....
ऐसे में स्पर्श कोई कर जाए,
भाव-प्रवण कर जाए,
गीत ऐसा ही कोई, सुना दे ना तू आज!

धुन में घुलते ये साज, बेसुरे हुए हैं क्यूं आज?

चिंतित करते ये लम्हात,
ये जीवन के भयंकर से झंझावात,
ना ही सर पर हो कोई हाथ,
बेकाबू से हों हालात......
ऐसे में हाथ कोई रख जाए,
रौशन राह दिखा जाए,
राग कोई ऐसी ही, सुना दे ना तू आज!

धुन में घुलते ये साज, बेसुरे हुए हैं क्यूं आज?

Wednesday 29 June 2016

ख्याल

तुम ख्वाबों से निकलकर ख्यालों में गुजरती हो कहीं!

तब रूह को छू जाती हैं बरबस यादें तेरी,
जल उठते है माहताब दिल के अंधियारे में कहीं,
महक उठती है ख्यालों से सूनी सी ये तन्हाई,
मद्धम सुरों में उभरता आलाप एक सुरमई।

तुम ख्वाबों से निकलकर ख्यालों में गुजरती हो कहीं!

मन पूछने लगता है पता खुद से खुद का ही,
भूल सा जाता है ये मन के तुम कहीं हो ही नहीं,
बस इक परछाईं सी हो तुम कोई अक्स नहीं,
गुमसुम सा विकल ये मन मानता ही नहीं।

तुम ख्वाबों से निकलकर ख्यालों में गुजरती हो कहीं!

राख बन कर ही सही उर रहीं हैं यादें तेरी,
गहरा धुआँ सा छा रहा हैं मन के गगन पर मेरी,
क्या मिलोगे मुझे उस क्षितिज के किनारे कहीं,
इस रूह की गहराईयों में तुम छुपे हो कहीं।

तुम ख्वाबों से निकलकर ख्यालों में गुजरती हो कहीं!

Thursday 28 April 2016

सुर के गिरह

सुर साधूँ तो मै कैसे,
बार-बार न जाने कितनी बार,
टूटा है मेरा सुर हर बार।

गिरह पड़े हैं सुर में मेरे,
तार-तार सुर के न जाने क्युँ बेजार,
स्वर मेरे लड़खड़ाए हैं हर बार।

संगम हो कैसे सुर का?
नाल-नाल मृदंग जब हो ना तैयार,
गीत मेरे भटके है हर बार।

सुर सधते गीत बजते,
जब-जब पायल की तेरी हो झंकार,
खुल जाते सुर के गिरह हर बार।

Saturday 26 December 2015

आरोह-ठहराव-अवरोह

आरोह अगर सत्य है तो, अवरोह भी अवश्यमभावी,
उत्थान अगर सम्मुख है तो, पतन भी प्रशस्त प्रभावी,
जीवन चेतन सत्य है तो, मृत्यु भी है शास्वत भावी,
समुन्दर मे है ज्वार प्रबल तो, भाटा भी निरंतर हावी।
आरोह है जीवन के उत्थान की तैयारी.........
जैसे खेत मे बीजों का अंकुरित होना,
खिलते कलियों-फूलों का इठलाना,
काली घटाओं का नभ पर छा जाना,
मदमाते सावन का झूम के बरस जाना,
समुद्र में अल्हर ज्वार का उठ जाना,
सुबह के लाली की आँखों का शरमाना,
प्रात: काल पंछियों का चहचहाना,
नव दुलहन का पूर्ण श्रृंगार कर जीवन में..........
..............आशाओं के नव दीप जलाने की बारी।
अवरोह है जीवन के ढलने की बारी.........
जैसे खेतों के बीजों का पौध बन फल जाना,
कलियों-फूलों के चेहरों का मुरझाना,
काली घटाओं का मद्धिम पड़ जाना,
सावन की मदिरा का सूखकर थम जाना,
समुद्री ज्वार का भाटा बन लौट जाना,
सूरज की किरणों का तेज निस्तेज पड़ जाना,
पंछियों का थककर वापस घर लौट आना,
दुल्हन का श्रृंगार जीवन भट्ठी में झौंक.........
............संध्या प्रहर मद्धिम दीप जलाने की तैयारी।
पर आरोह अवरोह के पलों के मध्य,
                  आता है पल ईक ठहराव का भी,
कुछ अंतराल के लिए ही सही पर,
                  दे जाता है इनको अल्पविराम भी,
ठहराव ही तो क्षण हैं, दायित्व पूरा कर जाने को,
मानव से मानव भावना की, गठजोर कर जाने को,
संसार की सारी खुशियाँ, दामन में समेट ले जाने को,
उपलब्धियों की सार्थकता, अर्थपूर्ण कर जाने को,
अवरोह बेला उन्मादरहित, अनुकरणीय बना जाने को!
जैसे सा, रे, ग, म, प, ध, नी, सा,
                 सा, नी, ध, प, म, ग, रे, सा के मध्य,
सा - है ठहराव, अल्पविराम,सम की स्थिति,
                सुर नही सध सकते बिन इनके पूर्ण।
सम है तो निर्माण है संभव,
                         वर्ना है विध्वंश की बारी !!!!!!!!!!