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Friday 30 December 2022

रुकना क्या

रुक जाने की जिद ना कर....

इस धार में, बह जाने दे,
अन्त: जो बातें, मझधार में कह जाने दे,
ले हाथों में पतवार,
वक्त का क्या! 
रोक ले, कब, हवाओं का रुख!
छीन ले कब, ये सुख!

रुक जाने की जिद ना कर....

यूं जिरह, फिर कर लेना,
जिद, रुक जाने की, यूं फिर ना करना,
पर, रखना ऐतबार,
धर लेना करार!
भीगे अँसुवन से ये नैन तुम्हारे,
यूं रोके ना, राह हमारे!

रुक जाने की जिद ना कर....

गर इस जिद पर, मैं हारा,
क्या रुक जाएगी ये जीवन की धारा?
बड़ा तीव्र ये बहाव,
बहा लेगी, नाव!
ले जाएगी उस सागर की ओर,
छूट जाएगी, हर डोर!

रुक जाने की जिद ना कर....

जीवन, चलने का नाम,
चलते ही रहते, ये सुबहो और शाम,
नित ही नया सवेरा,
नित नव जीवन!
इक ज़िद रख, बस चलने की,
सूरज सा ढ़लने की!

रुक जाने की जिद ना कर....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 26 July 2020

उसी पथ पर

सर्वदा, तय पथ पर, तन्हा वो सूरज चला!
बिखेर कर, दिन के उजाले,
अंततः, छोड़ कर,
तम के हवाले!
बे-वश, वो सूरज ढ़ला!

पल, थे वो गम के, जो सांझ बन के ढ़ला!
रुपहले से, उस फलक पर,
बिखरे, रंग काले,
धूमिल उजाले,
बे-रंग, हो सूरज ढ़ला!

हठात् था मैं खड़ा, उसी की सोंच में भूला!
उन्हीं अंधेरों में, खड़ा-खड़ा,
डरा था जरा-जरा,
मन था भरा,
निःशब्द, वो सूरज ढ़ला!

आस कल की लिए, उसी पथ मैं भी चला!
पीछे, क्षितिज पर, उसी के,
जा, मिलने उसी से,
उसे ही बुलाने,
बे-वश, जो सूरज ढ़ला!

सर्वथा, उसी पथ पर, अधखिला वो मिला!
प्रकीर्ण, प्रखर व स्थिर-चित्त,
खोले, दो बाहें पसारे,
गगन के पार,
हँस के, वो सूरज खिला!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 15 January 2020

वो भोर नहीं

कुम्हलाए सूरज में, वो भोर नहीं अब,
अंधेरी रातों का, छोर नहीं अब!
नमीं आ जमीं, या पिघल रहा वो सूरज,
खिली सुबह का, दौर नहीं अब!

झुकते पर्वत पे, बादल और नहीं अब,
उड़ते बादल के, ठौर नहीं अब!
लदी बूँदों से घन, जली वो मन ही मन,
करता क्यूँ कोई, गौर नहीं अब!

चहकते चिड़ियों में, वो शोर नहीं अब,
भौंरे कलियों पे, और नहीं अब!
बदली है फ़िजा, बदल चुका वो सूरज,
बहते झरनों का, शोर नहीं अब!

धधकता ही नहीं, क्या आग सीने में!
राख ही बचा, क्या अब जीने में!
धूल-धूसरित या मुर्छित हुआ वो सूरज,
अंधेरी रातों का, अंत नहीं अब!

खोया भोर कहीं, उन्ही अंधियारों में!
सूरज वो खोया, शायद तारों में,
लपटें नहीं उठती, अब उन अंगारों में, 
चम-चमाता वो, भोर नहीं अब!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 9 June 2019

डूबता सूरज

उतर कर क्यूँ गगन से,
डूब जाता है सूरज......

आकर जमीं पर,
क्षितिज को,
क्यूँ चूम जाता है सूरज!
लाल से हैं भाल,
वो गगन है या है ताल,
है आँखों में हया, या नींद में ऊँघ जाता है सूरज!

उतर कर क्यूँ गगन से,
डूब जाता है सूरज......

या है ये प्रीत की ही,
रंग-रंगीली सी,
रीत कोई!
या सज कर,
उस सुनहरे मंच पर,
क्षितिज को,
वो सुनाता है गीत कोई!
क्या मिलन की चाह में, रोज ढ़ल जाता है सूरज!

उतर कर क्यूँ गगन से,
डूब जाता है सूरज......

या है मिलन की शाम ये,
या है विरह का,
टूटा जाम ये!
बिखरे हैं,
जो उस फलक पर,
छलकते हैं,
जो पैमानों में उतर कर!
या दीवानों सा, फलक पर बिखर जाता है सूरज!

उतर कर क्यूँ गगन से,
डूब जाता है सूरज......

आकर जमीं पर,
क्षितिज को,
क्यूँ चूम जाता है सूरज!
लाल से हैं भाल,
वो गगन है या है ताल,
है आँखों में हया, या नींद में ऊँघ जाता है सूरज!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Wednesday 31 August 2016

अरुणोदय


अरुणोदय की हल्की सी आहट पाकर,
लो फिर मुखरित हुआ प्रभात,
किरणों के सतरंगी रंगों को लेकर,
नभ ने नव-आँचल का फिर किया श्रृंगार।

मौन अंधेरी रातों के सन्नाटे को चीरकर,
सूरज ने छेरी है फिर नई सी राग,
कलरव कर रहे विहग सब मिलकर,
कलियों के संपुट ने किया प्रकृति का श्रृंगार।

नव-चेतन, नव-साँस, नव-प्राण को पाकर,
जागा है भटके से मानव का मन,
नव-उमंग, नव-प्रेरणा, नव-समर्पण लेकर,
आँखों में भर ली है उसने रचना का नया श्रृंगार।

Wednesday 4 May 2016

मादक सुबह

मादक सुबह फिर नींद से जागी, क्या कहने हैं!

फूल खिले हैं अब डाली-डाली,
हर क्यारी पर छाई है कैसी हरियाली,
वहाँ दूर पेड़ो पर गा रही कोयल मतवाली,
मनभावन रंगो में निखरी है सूरज की लाली!

चटक रंग कलियों के आ निखरे हैं,
बाग की कलियों पर भँवरो के ही डेरे हैं,
कहीं दूर उन पपीहों नें भी मस्त गीत छेड़े हैं,
मनमोहक कितनी यह छटा, मन हरने वाली है!

ऐ सुबह, तू बिल्कुल दीवाना सा है,
रोज ही तू खिड़की से झांकने आता है,
गीत कोई मधुर कानों मे तू फिर घोलता है,
प्यार लुटाकर जीवन में, साँझ ढ़ले लौट जाता है!

ऐ सुबह, तू जल्दी सो जा, कल तुम्हें फिर से आना है!