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Thursday 18 July 2019

स्पर्श....छू कर जरा सा

छू कर, जरा सा...
बस, गुजर सी गई थी इक एहसास!

थम सा चुका था, ये वक्त,
किसी पर्वत सा, जड़! यथावत!
गुजरती ही नहीं थी, आँखो से वो तस्वीर,
निरर्थक थी सारी कोशिशें,
दूर कहीं जाने की,
बस, विपरीत दिशा में, सरपट भागता रहा मन,
कहीं उनसे दूर!

छू कर, जरा सा...
बस, गुजर सी गई थी इक एहसास!

जैसे, मन पर लगे थे पहरे,
पर्वतों के वो डेरे, अब भी थे घेरे!
आते रहे पास, बांधते रहे वो एहसास,
निरंतर ही करते रहे स्पर्श,
पुकारते रहे सहर्ष,
खींचते रहे, अपनी ओर, बस भागता रहा मन,
कहीं उनसे दूर!

छू कर, जरा सा...
बस, गुजर सी गई थी इक एहसास!

डरा-डरा, था ये मन जरा!
चाहता न था, ये बंधनों का पहरा!
हो स्वच्छंद, तोड़ कर भावनाओं के बंध,
उड़ चला, ये सर्वदा निर्बंध,
स्पर्श के वो डोर,
रहे बंधे उनकी ही ओर, बस भागता रहा मन,
कहीं उनसे दूर!

छू कर, जरा सा...
बस, गुजर सी गई थी इक एहसास!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Thursday 23 August 2018

दिल धड़कता ही नहीं

धड़कता ही नहीं ये दिल आज-कल...

संवेदन शून्य, संज्ञाविहीन सा ये दिल,
उर कंठ इसे गर कोई लगाता,
झकझोर कर धड़कनों को जगाता,
घाव कुछ भाव से भर जाता,
ये दिल! शायद फिर धड़क जाता!

संवेदनाओं से सिर्फ इसे कैसे जगाएँ,
रिक्त है रक्त की सारी शिराएँ,
धमनियों में निर्वात सा माहौल है,
एकांत सा दिल में कोई आता,
ये दिल! शायद फिर धड़क जाता!

तीर दिल के सदियों कोई आया नहीं,
सदियों यहाँ बसंत छाया नहीं,
स्पंदन तनिक भी कभी पाया नहीं,
स्पर्श जरा भी कोई कर जाता,
ये दिल! शायद फिर धड़क जाता!

संज्ञा-शून्य सा अब हो चला है ये दिल,
विरानियों में ही रमा है ये दिल,
न गम है, न ही है अब इसे विषाद,
विषाद ही गर इसे मिल जाता,
ये दिल! शायद फिर धड़क जाता!

धड़कता ही नहीं ये दिल आज-कल...

Friday 27 April 2018

अस्तित्व

कैसे भूलूं कि तेरे उस एक स्पर्श से ही था अस्तित्व मेरा....

शायद! इक भूल ही थी वो मेरी!
सोचता था कि मैं जानता हूँ खूब तुमको,
पर कुछ भी बाकी न अब कहने को,
न सुनने को ही कुछ अब रह गया है जब,
लौट आया हूँ मैं अपने घर को अब!

पर कैसे भूलूं कि उस एक स्पर्श से ही था अस्तित्व मेरा....

शायद! यूँ ही थी वो मुस्कराहटें!
खिल आई थी जो अचानक उन होंठो पे,
कुछ सदाएँ गूँजे थे यूँ ही कानों में,
याद करने को न शेष कुछ भी रह गया है जब,
क्या पता तुम कहाँ और मैं कहाँ हूँ अब!

पर कैसे भूलूं कि उस एक स्पर्श से ही था अस्तित्व मेरा....

शायद! वो एक सुंदर सपन हो मेरा!
जरा सा छू देने से, कांपती थी तुम्हारी काया  ,
एक स्पंदन से निखरता था व्यक्तित्व मेरा,
स्थूल सा हो चुका है अंग-प्रत्यंग देह का जब,
जग चुका मैं उस मीठी नींद से अब!

पर कैसे भूलूं कि उस एक स्पर्श से ही था अस्तित्व मेरा....

शायद! गुम गई हों याददाश्त मेरी!
या फिर! शब्दों में मेरे न रह गई हो वो कशिश,
या दूर चलते हुए, विरानों में आ फसे हैं हम,
या विशाल जंगल, जहाँ धूप भी न आती हो अब,
शून्य की ओर मन ये देखता है अब!

पर कैसे भूलूं कि उस एक स्पर्श से ही था अस्तित्व मेरा....

शायद! छू लें कभी उस एहसास को हम!
पर भूल जाना तुम, वो शिकवे- शिकायतों के पल....
याद रखना तुम, बस मिलन के वो दो पल,
जिसमें विदाई का शब्द हमने नहीं लिखे थे तब,
दफनाया है खुद को मैने वहीं पे अब!

पर कैसे भूलूं कि उस एक स्पर्श से ही था अस्तित्व मेरा....
मगर अब, भूल जाना तुम, वो इबादतों के पल....

Sunday 14 May 2017

पति की नजर से इक माँ

इक झलक पति की नजर से पत्नी में समाई "माँ"......

कहता है ये मन, स्नेहिल सी माँ है वो बस इक प्रेयसी नहीं,
है इक कोरी सी कल्पना, या है वो इक ममता की छाँव..

वो खूबसूरत से दो हाथ, वो कोमल से दो पाँव,
वो ऊँगलियों पर बसा मेंहदी का इक छोटा सा गाँव,
है वो इक धूप की सुनहरी सी झिलमिल झलक,
या है वो लताओं से लिपटी, बरगद की घनेरी सी छाँव...

कहता है ये मन, वो महज इक कोरी सी कल्पना नहीं,
वो तन, वो मन है इक पीपल की भीनी सी छाँव....

निखरी है मेंहदी, उन हथेलियों पर बिखरकर,
खुश हैं वो कितनी, उन पंखुरी उँगलियों को सजाकर,
ऐ मेरे व्याकुल से मन, तू भी रह जा उनके गाँव,
यूँ ही कुछ पल जो बिखरेगा, क्षण भर को पाएगा ठाँव...

कहता है ये मन, वो है इक कोमल सा हृदय निष्ठुर नहीं,
है किसी सहृदय के हाथों का यह मृदुल स्पर्शाभाव...

14 मई, मातृ दिवस पर विशेष....

Tuesday 7 February 2017

मृदु पल

सुखद स्पर्श दे गए, मृदु अनुभूति के थिरकते पल...

ऊबा था जग की बेमतलब बातों से ये दिल,
बिंध चुका था कटीले शब्दों के नश्तर से ये दिल,
चैन कहीं था मन का और कहीं पर था ये दिल,
वेदना के दंश कई झेल चुका था ये दिल,
मन को ऐसे में छू गए, स्नेह भरे दो मीठे से पल...

कुछ पल को ही तो मिला था दिल को वो मृदु संसर्ग!!!
व्यथित मन की पीड़ा हर गया स्नेह का वो स्पर्श,
मृदु अनुभूति की घनी सी छाँव दे गया था वो संसर्ग,
जैसे याचक की चाह पूर्ण कर गया था वो संसर्ग,
करुणा के सागर में मन को डुबो गया था वो संसर्ग....

कनकन नीर तन को जैसे कर गई हो शीतल,
घनेरी धूप में, छाँव सघन सी जैसे दे गई हो पीपल,
मिला बिलखते बचपन को जैसे स्नेह का आँचल,
बाँध तोड़ जैसे बह गई हो दरिया का जल,
मृदु अनुभूति के सुखद स्पर्श मन ढूंढता है हर पल......

Monday 25 July 2016

नेह चाहता स्नेह

नेह पल रहा मन में तुम स्नेह का इक स्पर्श दे दो.....

स्नेह अंकुरते हैं तेरी ही कोख में,
धानी चुनर सी रंगीली ओट में,
कजरारे नैनों संग मुस्काते होठ में....,

तड़पता है प्यासा नेह तुम स्नेह की बरसात दे दो....

नित रैन बसेरा तुम संग स्नेह का ,
आँगन तेरा ही है घर स्नेह का,
तेरी ही बोली तो बस भाषा स्नेह का....,

मूक बिलखता है नेह तुम स्नेह का मधु-स्वर दे दो.....

स्नेह उपजता है तेरे हाथों की स्पर्श से,
स्नेह छलकता तेरे नैनों की कोने से,
जा छुपता है स्नेह तेरी आँचल के नीचे.....,

बिन आँचल है मेरा नेह तुम स्नेह का आँचल दे दो.....

तेरे हृदय खिलती है स्नेह की फुलवारी,
मैने तो बस माँगा थोड़ा सा स्नेह,
नेह भरा ये मन चाहो तो बदले में ले लो....,

कुम्हलाया है मेरा नेह तुम स्नेह की ये बगिया दे दो....

Thursday 7 April 2016

स्पर्श रूह तक

स्पर्श कर गया वो लम्हा, तन्हाईयों में मचलकर!

रूह में उठती रही लहरें,
रूह को कोमल स्पर्श मिला,
तन्हा वो गुजरते रहे, रूह की साहिलों से होकर!

तरन्नुम की बात चली,
शब्दों को इक नया मोड़ मिला
भीगते रहे पाँव उनके, रूह की लहरों में चलकर!

मन में घुलते रहे शब्द वो,
रूह को शब्दों का कंपन मिला,
रूह तक भीगे हैं अब वो, इन लहरों में उलझकर!

रूह भींगती रही हदों तक,
मन कों एहसास-ए-शुकून मिला,
मन चाहता मिल जाएँ वो, तन्हाईयों से निकलकर!

काश! स्पर्श उन लम्हों के, साथ-साथ हों यूँ ही उम्र भर!

Thursday 25 February 2016

बूँद एक स्पर्श कर गई

बूँद एक स्पर्श कर गई,
रूह के अन्त:स्थ को छू गई,
स्निग्ध मन के तार छेड़ गई,
इक रेशमी एहसास दे गई।

बूँद वो नन्ही सी कितनी,
सुकोमल पंखुड़ी सी जितनी,
क्षण भर की ही उम्र उसकी,
इच्छाएँ भरी मन में कितनी।

टूट टूट बिखरती धरा पर,
बूँद बूँद आह्लादित होती पर,
कलियों संग बूँद रही निखर,
खुले तृण के केश हो प्रखर।

बूँद बूँद मिल बनती सरिता,
अस्तित्व विलीन कर खुश होती,
मिट जाती प्रकृति प्रेम में वो,
बूँद बूँद अब लब्जों की कविता।

Monday 15 February 2016

स्पर्शानुभूति

स्पर्श किया किसी ने दामन,
पीठ के पीछे से चुपके से,
कौंधी कहीं तब मेरी चितवन,
महसूस हुआ जैसे कंधों पर,
अपनी सी गर्माहट किसी ने रख दी।

उस स्पर्श मे कैसा अपनापन,
चल पड़ा परिमल का झोंका,
गूँजी पड़ीं फिर खिलखिलाहट,
टूक-टूक होकर बिखरा सन्नाटा,
निखरे होठ जब मर्माहट उसने रख दी।

स्पर्श किया था उसने जीवन,
स्पर्शानुभूति की सिलवटे मन में,
हृदय मंदार मंद मंद मुस्काता,
नींव रिश्तों की रखी तनमन में,
सिलसिले ख्वाबों के बनी हकीकत सी।

Friday 29 January 2016

मधुर स्मृति स्पर्श अनुराग

मधुर स्मृति स्पर्श अनुराग छू जाते अंतर के स्वर!

मैं प्रेमी जीवन के स्वर्गिक स्पर्शो का, 
मै अनुरागी जीवन के हर्ष विमर्शों का,
मैं प्रेमी विद्युत सम मधुर स्मृतियों का।

शीतल उज्जवल अनुराग छू जाते अंतर के स्वर!

उज्जवलता दूँ मैं जीवन भर जलकर,
निश्चल बस जाऊँ हृदय संग चलकर,
अंबर की धारा से उतर आऊँ भू पर।

महत् कर्म मधुरगंध छू जाते अंतर के स्वर!

उच्च उड़ान भर लूँ मैं महत् कर्म कर,
त्याग दूँ जीवन के चमकीले आडंबर,
पी जाऊँ मधुरगंध साँसों में घोल कर।

मधुर स्मृति स्पर्श अनुराग छू जाते अंतर के स्वर!

Sunday 27 December 2015

प्यार इक कशिश

प्यार ! जो पूरा न हो, 
तू उन्हीं ख्वाइशों में से है एक!

प्यार! तू है इक कशिश,
कोशिशों के बावजूद भी 
जो रह जाती हो अधूरी ..! 
तू उन्हीं ख्वाइशों में से है एक....!!

गर कर सको तुम,
ले कोरे कागज़ को हाथो में,
दो अपने अक्शों का स्नेह स्पर्श,
तू उन्ही खलिशों में से है एक ...!!

हमने खुद में पिरोया है तुम्हे,
एक ताबीर की तरह ,.,
टूटे गर हम बिखर जाओगे तुम भी,
तू उन्ही तपिशों में से है एक ...!!

प्यार ! जो पूरा न हो, 
तू उन्हीं ख्वाइशों में से है एक!