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Sunday 17 December 2017

सहांश

हिस्से मे आए हैं मेरे कुछ बेचैन से पल,
सहांश है ये मेरे...
जो तुमने ही दिए थे कल.....

परस्पर मुझ में ही कहीं ये पिरोए हैं हरपल,
अनुस्यूत हो इस मन में कहीं,
उलझे से धागों की, अन्तहीन सी लड़ी बनकर!
सहरा में किसी एकाकी वृक्ष पर लिपटी लताओं जैसी..
तन मन को गूँधकर तुम यहीं बैठे हो कहीं...

एकाकी सा ये वैरागी मन बेचैन है हरपल,
विमुख क्षण-भर ये तुझसे नहीं,
जाएँ भी ये कहाँ, उन यादों से अनुस्यूत होकर!
ज्यूँ अमरलता कोई जीती हो मरती हो इक डाली पर...
सहांश हैं ये तेरे, यूँ जीते हैं मुझ में ही कही...

वो ही सहांश, नैनों को कर गए हैं सजल,
राग रहित हो चुकी हो जैसे गजल,
दूर तलक फैली है, इक तन्हाई मन की राहों पर,
सूना है ये सहरा, गाते थे जो खुले गेसूओं को देखकर...
अनुस्यूत हो बंधा है, ये मन इनमें ही कहीं....

हिस्से मे आए हैं मेरे ये कुछ बेचैन से पल,
सहांश है ये मेरे...
जो तुमने ही दिए थे कल.....

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सहांश : किसी के साथ रहने या होने पर मिलने वाला अंश या भाग। 
अनुस्यूत: 1. गूँथा या पिरोया हुआ 2. सिला हुआ 3. क्रमबद्ध
4. परस्पर मिला हुआ।