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Sunday 4 February 2024

उस रोज

नीरव से, बहते उस पल में,
ठहरे से, जल में,
हलचल कितने थे, उस रोज!

उस रोज!
ठहरा था, सागर पल भर को,
विवश, कुछ कहने को,
उस, बादल से,
लहराते, उस आंचल से!

उस रोज!
किधर से, बह आई इक घटा!
बदली थी, कैसी छटा!
छलकी थी बूंदे,
सागर के, प्यासे तट पे!

उस रोज,
चीर गया था, कोई सन्नाटों को,
छेड़ गया, नीरवता को,
अवाक था, मैं, 
प्रश्न कई थे, उस पल में!

उस रोज,
किससे कहता मैं, सुनता कौन!
खड़ा यूं ही, रहा मौन,
यूं गिनता कौन!
वलय कई थे धड़कन में!

नीरव से, बहते उस पल में,
ठहरे से, जल में,
हलचल कितने थे, उस रोज!

Wednesday 4 November 2020

पूछे कोई

मन की गगन पे, वो उतरा था कैसे!

निशा थी, गुम हर दिशा थी,
कहीं बादलों में, छुपी कहकशाँ थी,
न कोई कारवाँ, न कोई निशां,
कोई स्याह रातों से पूछे,
वो गुजरा था कैसे!

मन की गगन पे, वो उतरा था कैसे!

घुलती हुई, पिघलती फिजां,
फिसलन लिए, भीगी थी राहें वहाँ,
आसां न था, खुद को बचाना,
कोई सर्द आहों से पूछे,
वो कहरा था कैसे!

मन की गगन पे, वो उतरा था कैसे!

हलचल सी, रहती प्रतिपल,
वो बेचैन, कहीं ठहरता न इक पल,
ना ठौर कोई, ना ही ठिकाना,
कोई उन ख्यालों से पूछे,
वो ठहरा था कैसे!

मन की गगन पे, वो उतरा था कैसे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday 24 September 2018

सुप्रिय जज्बात

जज्ब कर जज्बात बातों में,
दो पल दे गया कोई साथ, तन्हा रातों में....
खोया मैं उस पल, उनकी ही बातों में....

टटोल कर, मेरा भावुक सा मन,
बोल कर कई सुप्रिय वचन,
पूछ कर न जाने, कितने ही प्रश्न,
रख गया था कोई हाथ, मेरे हाथों में....

जज्ब कर जज्बात बातों में,
दो पल दे गया कोई साथ, तन्हा रातों में....

हृदय के तट, मची है हलचल,
है जिज्ञासा जागी प्रबल,
उस ओर ही, मन ये रहा मचल,
सुप्रिय से वो हालात, लम्बी बातों में....

जज्ब कर जज्बात बातों में,
दो पल दे गया कोई साथ, तन्हा रातों में....

है खींच चुकी, इक लकीर सी,
उठ रही है इक पीर सी,
हो न हो, वो है कोई इक हीर सी,
सुप्रिय है वो ही पीर, मेरे जज़्बातों में...

जज्ब कर जज्बात बातों में,
दो पल दे गया कोई साथ, तन्हा रातों में....
मैं भूला हूँ अब भी, उनकी बातों में....

Sunday 11 June 2017

हलचल व सम्मान

http://halchalwith5links.blogspot.in/2017/06/695.html?m=1&_utm_source=1-2-2

*पाँच लिंकों का आनन्द*

दिन भर ब्लॉगों पर लिखी पढ़ी जा रही 5 श्रेष्ठ रचनाओं का संगम[5 लिंकों का आनंद] ब्लॉग पर आप का ह्रदयतल से स्वागत एवं अभिनन्दन...

*रविवार, 11 जून 2017*

*695....पाठकों की पसंद.... आज के पाठक हैं श्री पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा*

सादर अभिवादन

आज इस श्रृंखला में प्रस्तुत है

*श्री पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा की पसंद की रचनाएँ...*
पढ़िए और पढ़ाइए....

*नदी का छोर...ओम निश्छल*
यह खुलापन
यह हँसी का छोर
मन को बाँधता है
सामने फैला नदी का छोर
मन को बाँधता है

*भ्रमण पथ.. कल्पना रामानी*
भ्रमण-पथ लंबा अकेला
लिपटकर कदमों से बोला
तेज़ कर लो चाल अपनी
प्राणवायु का है रेला
हर दिशा संगीतमय है
मूक सृष्टि
के इशारे

*'वो' गीत.......शिवनाथ कुमार*
पीर की गहराई में
दिल की तन्हाई में
ढूँढते खुद को
खुद की परछाई में
'वो' कुछ बोल पड़ा है
हाँ, 'वो' जो सोया पड़ा था

*गोधूलि होने को हुई है...आनन्द कुमार द्विवेदी*
हृदय तड़पा
वेदना के वेग से
ये हृदय तड़पा
अश्रु टपका
रेत में
फिर अश्रु टपका

*कुछ पल तुम्हारे साथ.....श्वेता सिन्हा*
मीलों तक फैले निर्जन वन में
पलाश के गंधहीन फूल
मन के आँगन में सजाये,
भरती आँचल में हरसिंगार,
अपने साँसों की बातें सुनती


*घोर आश्चर्य...*
श्री सिन्हा जी की पसंद बहुत ही निराली है पर...
उनके अपने ब्लॉग की कोई रचना नहीं..

हमें आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि भविष्य में भी

इनकी पसंदीदा रचनाएं पढ़ने को मिलेगी

*दिग्विजय*

*:: पाठक परिचय ::*

मेरा परिचय अति साधारण है।

12 अगस्त 1968 को माता श्रीमति ऊषा सिन्हा एवं पिता स्व.रत्नेश्वर प्रसाद के आंगन मेरा जन्म हुआ तथा बचपन से ही अपनी बड़ी माँ श्रीमति सुलोचना वर्मा,  जो स्वयं हिन्दी की कुशल शिक्षिका एवं सक्षम कवयित्री है, के सानिध्य में पलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ फलतः हिन्दी लेखन का शौक एक आकार लेता गया। 1987-1990 में कृषि स्नातक तथा 1992 से इलाहाबाद बैंक में अधिकारी के रूप में कार्य करते हुए, वर्तमान में मुख्य प्रबंधक,  व्यस्तता के कारण लेखनी को आगे नहीं ले जा पाया। अभी कोशिश जारी है। अब तक लगभग अपनी 700 रचनाओं के साथ आपके समक्ष प्रस्तुत हूँ तथा जल्द ही अपनी कविताओं की श्रृंखला प्रकाशित कराने की योजना है।

सादर।।।।

*पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा*

*Digvijay Agrawal पांच लिंकों का आनंद पर... 4:00 am*

Monday 21 March 2016

एक टुकड़ा नीरद

एक टुकड़ा नीरद, मीनकेतु सा छाया मन पर,
चातक मन बावरा उस नीरद का,
उमर घुमर वो नीरद वापस आता इस मन पर,
मनसिज सा बूँद बन बिखरा ये मन पर।

आज कहीं गुम वो मनसिज नीरद,
परछाई खोई कहीं बेचैन सी झील मे उसकी,
हलचल इस जल में आज कितनी,
सूख चुकी है शायद उस नीरद की बूँद भी?

नीरद आशाओं के कल फिर वापस आएंगे,
मन के झील पर ये फिर झिलमिलाएंगे,
तस्वीर नीरद की नई उभरेगी परछाई बन,
मनसिज नीरद की बूँदे फिर बरस जाएंगे मन पर।