Friday 12 February 2016

बेफिक्री के क्षण

स्वच्छंद श्वास हैं, बेफिक्र मन का पंछी पावंदियों से है परे...

उड़ बेफिक्र मन मेरे,
बेफिक्री के स्वच्छंद क्षण साथ तेरे,
रवानियाें मे डूबे ये हर्षित पल जीवन के सारे।

दिल करता है रोक लू मैं,
चपल वक्त के इन बढ़ते कदमों को,
इन्हीं खुमारियों मे बीते क्षण जीवन के ये सारे।

हासिल बेफिक्री आज मुझको,
स्फूर्त बेफिक्री की साँसे समाहित मुझमें,
हृदय के तार-तार स्पन्दित बेफिक्री के क्षण में सारे।

पल-पल मुखरित जीवन के,
साँसों की लय हैं आपाधापी से उन्मुक्त,
बेफिक्री के ये स्वच्छंद जीवन क्षण अब मेरे है सारे। 

उड़ने को मुक्त है ये पर मेरे,
उलझनों से मुक्त जीवन के ये क्षण मेरे,
इक विश्वास हैं, बेफिक्र पंछी क्युँ न ऊँची उड़ान भरे...

टहनियाँ-फुनगियाँ

टहनियाँ जीवन की, नींव भविष्य के आंगण की।

टहनियों को रखता हूँ संभालकर
नाजुक कोमल सी ये टहनियाँ,
जीवन उर्जित करने की शक्ति से परिपूर्ण,
लवरेज मादकता सौंन्दर्य से,
पर कितना सीधा, सरल, काम्य।

फुनगियाँ टहनियाें की, नींव भविष्य के जीवन की।

टहनियों की फुनगी प्यारी कोमल,
परागकण जीवन के संभालता,
अंग प्रत्यंग सुकोमल माधूर्य रस से भरा,
जीवन्त जीने की कलाओ से,
पर कितना सीधा, सरल, काम्य।

टहनियाँ, फुनगियाँ नींव जीवन के आंगण की।

अमरत्व गरल अश्रुधार!

तुम अविरल अश्रुधार पोछ नही पाओगी!

एक अश्रु-धार नभ से होकर आती,
रुकती कहाँ सुनती कहाँ ये मन की,
निर्झर सी बस आँखों से बह जाती।

तुम अश्रुओं की भाषा पढ़ नही पाओगी!

अश्रु-धार बन कहती प्रेम की भाषा,
वेदना हृदय के आँखों से कह जाती,
थम जाती नैनों में ओस की बुंदों सी।

तुम कोलाहल अश्रुधार की सुन नही पाओगी!

सजते नैन सजल अश्रुधार अविरल,
सागर मंथन से ज्यों निकलता गरल,
हलाहल मन में क्यूँ जब नैन सजल?

तुम मंथन गरल नैनों की पी नही पाओगी!

नैन गरल पीकर अमरत्व पा जाऊँ,
सजल नैन नित्य अश्रुधार ले आऊँ,
निर्झर नैनों में प्रीत सदा भर जाऊँ।

तुम अमरत्व नैन गरल की पा नही पाओगी!

नभ की सुन लो, नभ संग तुम भींग लो!

तुम नभ की सुन लो, जरा सा नभ संग तुम भींग लो!

उमड़-घुमड़ नभ आते तुझसे मिलने,
लटें घुँघराली पुकारती हैं आकाश से,
नभ मंडल गूंजित करती आवाज से,

नभ की गर्जना सुन लो, नभ संग तुम भी भींग लो!

मंद मंद फाहा सी गिर रही बूंदे नभ से,
कण कण धरा की भीग रहे हैं बूंदों से,
तुम भी पीड़ हृदय के बूंदों संग धो लो,

नभ की साधना सुन लो, नभ संग तुम भी भींग लो!

है वो कौन सी पीड़ जो है नभ से भारी,
नभ नीर से सागर की प्यास बुझ जाती,
विचर रही नभ यहाँ भिगोने तुमको ही,

नभ की वेदना सुन लो, नभ संग तुम भी भींग लो!

उधर लताओं संग भीग रहे हैं पत्ते पत्ते,
फूल भीगी संग सारे कलियाँ भी भींगे,
नभवृष्टि प्रेम में हृदय के तार तार भींगे,

नभ की प्रेमलीला सुन लो, नभ संग तुम भी भींग लो!

अवसाद में जन्मदिन

क्षण क्षण उम्र बढ़ रही है अवसान को,
 यह जन्मदिन जन्म दे रही अवसाद को।

अब तो प्रहर सांझ की ढलने को आई,
 मुझसे मीलों पीछे छूटी है मेरी तरुणाई।

मनाऊँ कैसे जन्मदिन इस उम्र में अब,
तार वीणा के सुर में बजते नही है अब।

मृदंग के स्वर कानों में गूंजते नहीं अब,
तानपूरे की उम्र ही ढल गई मानो अब।

केक मिठाई तो बन चुके है मेरे दुश्मन,
जन्मदिन मनाने का अब रहा नहीं मन।

Thursday 11 February 2016

मेरी साधना

गीत मैं वो गा न सका, क्या कभी गा पाऊंगा?

सदियों साधना की उस संगीत की,
अभिमान था मुझको मेरे दृढ़ विश्वास पर,
पर साथ दे न सका मुझको मेरा अटल विश्वास,
असफल रही कठिन साधना मेरी।

गीत मैं वो गा न सका, गीत मैं वो दोहरा न सका।

सुर ही कठिन है इस जीवन संगीत का,
या साधना के योग्य नही बन पाया मै ही शायद,
साधक हूँ मैं पर! निरंतर रत रहूंगा साधना मे,
है मुझको विश्वास लगन पर मेरी।

गीत मैं जो गा न सका, गीत मैं वो फिर दोहराऊंगा!

मैं प्रीत का गीत

प्रिय, मैं प्रीत का गीत बन तुम पर अर्पित हो जाऊँ।

मंदिर इक बनी है कल्पनाओं में मेरी,
सपन सलोनी मूरत रखी है वहाँ तेरी,
अर्पित करता प्रीत नित पूजा में तेरी।

प्रिय, चाहत मेरी पलकों में तेरी सपने मैं सजाऊँ।

सपनों के भँवर जाल मे उलझा तेरी,
मोहक वो स्वप्न जिसमें है सूरत तेरी,
सपनों सम रंगीन दुनिया तुझमें मेरी।

प्रिय, तेरे शब्दों से मन के मर्म की कहानी लिख जाऊँ। 

विवश मर्म मन के मुखरित हो कैसे,
अधरों के शब्द निःशब्द पड़े हों जैसे,
चाह अधरों को तेरी शब्दों की जैसे।

प्रिय, सुरमई संगीत बन तेरे अधरों पर रंजित हो जाऊँ।