Thursday 29 June 2017

उजड़ा हुआ पुल

यूँ तो बिसार ही चुके हो अब तुम मुझे!
देख आया हूँ मैं भी वादों के वो उजरे से पुल,
जर्जर सी हो चुकी इरादों के तिनके,
टूट सी चुकी वो झूलती टहनियों सी शाखें,
यूँ ही भूल जाना चाहता है अब मेरा ये मन भी तुझे!

पर इक धुन! जो बस सुनाई देती है मुझे!
खीचती है बार बार उजरे से उस पुल की तरफ,
टूटे से तिनकों से ये जोड़ती है आशियाँ,
रोकती है ये राहें, इस मन की गिरह टटोलकर ,
बांधकर यादों की गिरह से, खींचती है तेरी तरफ मुझे!

कौंधती हैं बिजलियाँ कभी मन में मेरे!
बरस पड़ते हैं आँसू, आँखों से यूँ ही गम में तेरे,
नम हुई जाती है सूखी सी वो टहनियाँ,
यादो के वो घन है अब मेरे मन के आंगन,
कोशिशें हजार यूँ ही नाकाम हुई है भूलाने की तुझे!

इस जनम यूँ तड़पाया है तेरे गम ने मुझे!
बार-बार, हर-बार तेरी यादों ने रुलाया है मुझे,
खोल कर बाहें हजार मैने किया इन्तजार,
पर झूठे वादों ने तेरे इस कदर सताया है मुझे,
अब न मिलना चाहुँगा, कोई जनम मैं राहों में तुझे !

Tuesday 27 June 2017

जीवन यज्ञ

इक अनवरत अनुष्ठान सा,
है यह जीवन का यज्ञ,
पर, विधि विधान के फेरों में, 
है उलझी यह जीवन यज्ञ।

कठिन तपस्या......!
संपूर्णता की चाह में कठिन तपस्या कर ली मानव ने,
पर, मनोयोग पाने से पहले.....
पग-पग बाधाएँ कितनी ही आई तपयोग की राह में।

समुन्द्र मंथन......!
अमरत्व की चाह में समुन्द्र मंथन कर ली मानव ने ,
पर, अमृत पाने से पहले ...
कितने ही गागर गरल के आए अमरत्व की राह में।

पूर्णता की राहों में 
हैं पग-पग रोड़े यहों,
विघ्न रुपी विधान जड़ित रोड़ों से लड़ जाने को,
दो घूँट सुधा के फिर पाने को,
अमृत कलश इन होठों तक लाने को
ऐ मानव! समुद्र मंथन तुम्हे फिर से दोहराना होगा!

विधि विधान जड़ित बाधाओं से लड़,
सुधा-निहित गरल,
जो मानव हँसकर पी जाएगा,
सम्पूर्ण वही जीवन यज्ञ कर पाएगा।

Friday 23 June 2017

विखंडित मन

विखंडित ऐ मेरे मन! मैं तुझको कैसे समझाऊँ?

हैं अपने ही, वो जिनसे रूठा है तू,
हुआ क्या जो, खंड-खंड बिखरा या टूटा है तू,
है उनकी ये नादानी, जिनके हाथों टूटा है तू,
माना कि टूटी है, वीणा तेरे अन्तर की,
अब मान भी जा, गीत वही फिर से दोहरा दे तू।

विखंडित ऐ मेरे मन! मैं मन ही मन कैसे मुस्काऊँ?

संताप लिए, अन्दर क्यूं बिखरा है तू,
विषाद लिए, अपने ही मन में क्यूं ठहरा है तू,
उसने खोया है जिसको, वो ही हीरा है तू,
क्यूं फीकी है, मुस्कान तेरे अन्तर की?
अब मान भी जा, फिर से खुलकर मुस्का दे तू।

विखंडित ऐ मेरे मन! चल गीत कोई गा मेरे संग तू!

Thursday 22 June 2017

त्यजित

त्यजित हूँ मै इक, भ्रमित हर क्षण रहूँगा इस प्रेमवन में।

क्षितिज की रक्तिम लावण्य में,
निश्छल स्नेह लिए मन में,
दिग्भ्रमित हो प्रेमवन में,
हर क्षण जला हूँ मैं अगन में...
ज्युँ छाँव की चाह में, भटकता हो चातक सघन वन में।

छलता रहा हूँ मैं सदा,
प्रणय के इस चंचल मधुमास में,
जलता रहा मैं सदा,
जेठ की धूप के उच्छवास में,
भ्रमित होकर विश्वास में, भटकता रहा मैं सघन घन में।

स्मृतियों से तेरी हो त्यजित,
अपनी अमिट स्मृतियों से हो व्यथित,
तुम्हे भूलने का अधिकार दे,
प्रज्वलित हर पल मैं इस अगन में,
त्यजित हूँ मै इक, भ्रमित हर क्षण रहूँगा इस प्रेमवन में।

भ्रमित रक्तिम लावण्यता में,
श्वेत संदली ज्योत्सना में,
शिशिर के ओस की कल्पना में,
लहर सी उठती संवेदना में,
मधुरमित आस में, समर्पित कण कण मैं तेरे सपन में।

त्यजित हूँ मै इक, भ्रमित हर क्षण रहूँगा इस प्रेमवन में।

Tuesday 20 June 2017

रक्तधार

अविरल बहती ये धारा, हैं इनकी पीड़ा के आँसू,
अभिलाषा मन में है बोझिल, रक्तधार से बहते ये आँसू.....

चीरकर पर्वत का सीना, लांघकर बाधाओं को,
मन में कितने ही अनुराग लिए ये धरती पर आई,
सतत प्रयत्न कर भी पाप धरा के न धो पाई,
व्यथित हृदय ले यह रोती अब, जा सागर में समाई।

व्यर्थ हुए हैं प्रयत्न सारे, पीड़ित है इसके हृदय,
अन्तस्थ तक मन है क्षुब्ध, सागर हुआ लवणमय,
भीग चुकी वसुन्धरा, भीगा न मानव हृदय,
हत भागी सी सरिता, अब रोती भाग्य को कोसती।

व्यथा के आँसू, कभी बहते व्यग्र लहर बनकर,
तट पर बैठा मूकद्रष्टा सा, मैं गिनता पीड़ा के भँवर,
लड़ी थी ये परमार्थ, लुटी लेकिन ये यहाँ पर,
उतर धरा पर आई, पर मिला क्या बदले में यहाँ पर?

अविरल बहती ये धारा, हैं इनकी पीड़ा के आँसू,
अभिलाषा मन में है बोझिल, रक्तधार से बहते ये आँसू.....

Monday 19 June 2017

खिलौना

तूने खेल लिया बहुत इस तन से,
अब इस तन से तुझको क्या लेना और क्या देना?
माटी सा ये तन ढलता जाए क्षण-क्षण,
माटी से निर्मित है यह इक क्षणभंगूर खिलौना।

बहलाया मन को तूने इस तन से,
जीर्ण खिलौने से अब, क्या लेना और क्या देना?
बदलेंगे ये मौसम रंग बदलेगा ये तन,
बदलते मौसम में तू चुन लेना इक नया खिलौना।

है प्रेम तुझे क्यूँ इतना इस तन से,
बीते उस क्षण से अब, क्या लेना और क्या देना?
क्युँ रोए है तू पगले जब छूटा ये तन,
खिलौना है बस ये इक, तू कहीं खुद को न खोना।

मोह तुझे क्यूँ इतना इस तन से,
मोह के उलझे धागों से क्या लेना और क्या देना?
बढाई है शायद मोह ने हर उलझन,
मोह के धागों से कहीं दूर, तू रख अब ये खिलौना।

तूने खेल लिया बहुत इस तन से,
अब इस तन से तुझको क्या लेना और क्या देना?

Friday 16 June 2017

परखा हुआ सत्य

फिर क्युँ परखते हो बार-बार तुम इस सत्य की सत्यता?

सूर्य की मानिंद सतत जला है वो सत्य,
किसी हिमशिला की मानिंद सतत गला है वो सत्य,
आकाश की मानिंद सतत चुप रहा है वो सत्य!
अबोले बोलों में सतत कुछ कह रहा है वो सत्य!

फिर क्युँ परखते हो बार-बार तुम इस सत्य की सत्यता?

गंगोत्री की धार सा सतत बहा है वो सत्य,
गुलमोहर की फूल सा सतत खिला है वो सत्य,
झूठ को इक शूल सा सतत चुभा है वो सत्य!
बन के बिजली बादलों में चमक रहा है वो सत्य!

फिर क्युँ परखते हो बार-बार तुम इस सत्य की सत्यता?

असंख्य मुस्कान ले सतत हँसा है वो सत्य,
कंटकों की शीष पर गुलाब सा खिला है वो सत्य,
नीर की धार सा घाटियों में बहा है वो सत्य!
सागरों पर अनन्त ढेह सा उठता रहा है वो सत्य!

फिर क्युँ परखते हो बार-बार तुम इस सत्य की सत्यता?