Thursday 27 July 2017

उम्र की दोपहरी

उम्र की दोपहरी, अब छूने लगी हलके से तन को...

सुरमई सांझ सा धुँधलाता हुआ मंजर,
तन को सहलाता हुआ ये समय का खंजर,
पल पल उतरता हुआ ये यौवन का ज्वर,
दबे कदमों यहीं कहीं, ऊम्र हौले से रही है गुजर।

पड़ने लगी चेहरों पर वक्त की सिलवटें,
धूप सी सुनहरी, होने लगी ये काली सी लटें,
वक्त यूँ ही लेता रहा अनथक करवटें,
हाथ मलती रह गई हैं,  जाने कितनी ही हसरतें।

याद आने लगी, कई भूली-बिसरी बातें,
वक्त बेवक्त सताती हैं, गुजरी सी कई लम्हातें,
ढलते हुए पलों में कटती नहीं हैं रातें,
ये दहलीज उम्र की,  दे गई है सैकड़ों सौगातें।

एहसास की बारीकियों से हो आबद्ध,
दिए हैं जो वचन, उन बंधनों के हो प्रतिबद्ध,
उम्र के स्नेहिल स्पर्श से होकर स्तब्ध,
अग्रसर अवसान की राह पर, हरक्षण कटिबद्ध।

उम्र की दोपहरी, अब छूने लगी हलके से तन को...

Monday 24 July 2017

आसक्ति

आसक्त होकर निहारता हूँ मैं वो खुला सा आकाश!

अनंत सीमाओं में स्वयं बंधी,
अपनी ही अभिलाषाओं में रमी,
पल-पल रूप अनंत बदलती,
कभी निराशाओं के काले घनघोर घन,
सन्नाटों में कभी घन की आहट,
वायु सा कभी प्रतिपल तेज चरण,
कभी साए सी चुपचाप, प्रतिविम्ब सी मौन....

आसक्त होकर निहारता हूँ मैं वो खुला सा आकाश!

विशाल भुजपाश में जकड़ी,
व्याकुल मन सी दौड़ती वो हिरणी,
कभी ब्रम्हांड में हुंकार भरती,
वेदनाओं मे क्रंदन करती वो दामिणी,
कभी आँसूओं में करती क्रंदन,
या कभी सन्नाटों के क्षण, आँसुओं के मौन...

आसक्त होकर फिर निहारता हूँ मैं वो खुला आकाश!
जहाँ....
मुक्त पंख लिए नभ में उड़ते वे उन्मुक्त पंछी,
मानो क्षण भर में पाना चाहते हो वो पूरा आकाश...

Saturday 22 July 2017

चुप सी धड़कन

इस दिल में ही कहीं, इक धड़कन अब चुप सा रहता है!

चुप सी अब रहने लगी है, इक शोख सी धड़कन!
बेवजह ही ये कभी बेजार सा धड़कता था,
भरी भीड़ में अब, तन्हा-तन्हा ये क्यूँ रहता है!
अब तन्हाई में न जाने, ये किस से बातें करता है?

इस दिल में ही कहीं, इक धड़कन अब चुप सा रहता है!

कोई खलिश सी है दबी, शायद उस धड़कन में!
ऐसे गुमसुम चुप, ये पहले कब रहता था?
कोई एहसास है जगी, शायद उस धड़कन में!
संवेदनाओं के ज्वर, अब अकेला ही ये सहता है?

इस दिल में ही कहीं, इक धड़कन अब चुप सा रहता है!

चाहे मेरा ये धड़कन, सतत् प्रणय का कंपन!
निरन्तर मृदु भावों से मन का अवलम्बन!
अनवरत छूटते साँसों संग, साँसों का बंधन!
अविरल अश्रृधार का आलिंगन ये यूँ ही करता है!

इस दिल में ही कहीं, इक धड़कन अब चुप सा रहता है!

Thursday 20 July 2017

समर्पण

वो पुष्प! संपूर्ण समर्पित होकर भी, शायद था वो कुछ अपूर्ण!

अन्त: रमती थी उसमें निष्ठा की पराकाष्ठा,
कभी स्वयं ईश के सर चढ कर इठलाता,
या कभी गूँथकर धागों में पुष्पगु्च्छ बन इतराता,
भीनी सी खुश्बु देकर मन मंत्रमुग्ध कर जाता,
मुरझाते ही लेकिन, पाँवों तले बस यूँ ही कुचला जाता!

जिस माली के हाथों समर्पित था जीवन,
प्रथम अनुभव छल का, उस माली ने ही दे डाला,
अब छल करने की बारी थी अपने किस्मत की,
रूठी किस्मत ने भी कहर जमकर बरपाया,
रंगत खोई, खुश्बु अश्कों में डूबी, विवश खुद को पाया!


निरीह पुष्प की निष्ठा, शायद थी इक मजबूरी,
पूर्ण समर्पित होकर ही अनुभव सुख का वो पाता,
ज्यूँ प्रीत में पतंगा, खुद आग में जलने को जाता,
असंदिग्ध, श्रेष्ठ रही उस पुष्प की सर्वनिष्ठा!
जीवन मरण उत्सव देवपूजन, शीष पुष्प ही चढ पाता।

वो पुष्प! संपूर्ण समर्पित होकर भी, शायद था वो कुछ अपूर्ण!

Wednesday 19 July 2017

कभी

कभी गुजरना तुम भी मन के उस कोने से,
विलखता है ये पल-पल, तेरे हो के भी ना होने से...

कुछ बीत चुके दिन सा है...
तेरा मौजूदगी का अनथक एहसास!
हकीकत ही हो तुम इक,
मन को लेकिन ये कैसे हो विश्वास?
कभी चुपके से आकर मन के उस कोने से कह दो,
इनकी पलकों से ये आँसू यूँ ही ना बहने दो।

माना कि बीत चुका कल ....
फिर वापस लौट सका है ना मुड़कर,
पर मन का ये गुमसुम सा कोना,
अबतक बैठा है बस उस कल का होकर,
कहता है ये, वो गुजरा वक्त नहीं जो फिर ना आएंगे,
वापस मेरी गलियों में ही वो लौट कर आएंगे।

कल के उस पल में था जीवन...
नृत्य जहाँ करते थे जीवन के हर क्षण,
गूँज रही है अब तक वो तान,
रह रह कर गीत वही दोहराता है वो कोना,
सांझ ढले, दोबारा धुन वही सुनने को तुम आ जाना,
कोई बहका सा सुर बहकी साँसों में भर जाना।

यूँ गुजरना तुम कभी मन के उस कोने से,
विलखता है ये पल-पल, तेरे हो के भी ना होने से...

Wednesday 12 July 2017

श्रापमुक्त

कुछ बूँदे! ... जाने क्या जादू कर गई थी?
लहलहा उठी थी खुशी से फिर वो सूखी सी डाली....

झेल रहा था वो तन श्रापित सा जीवन,
अंग-अंग टूट कर बिखरे थे सूखी टहनी में ढलकर,
तन से अपनों का भी छूटा था ऐतबार,
हर तरफ थी टूटी सी डाली और सूखे पत्तों का अंबार..

कांतिहीन आँखों में यौवन थी मुरझाई,
एकांत सा खड़ा अकेला दूर तक थी इक तन्हाई,
मुँह फेरकर दूर जा चुकी थी हरियाली,
अब दामन में थे बस सूखी कलियों का टूटता ऐतबार...

कुछ बूँदे कहीं से ओस बन कर आई,
सूखी सी वो डाली हल्की बूँदों में भीगकर नहाई,
बुझ रही थी सदियों की प्यास हौले होले,
मन में जाग उठा फिर हरित सपनों का अनूठा संसार...

हुई प्रस्फुटित नवकोपल भीगे तन पर,
आशा की रंगीन कलियाँ गोद भरने को फिर आई,
हरीतिमा इठलाती सी झूम उठी तन पर,
ओस की कुछ बूँदें, स्नेह का कुछ ऐसा कर गई श्रृंगार..

उम्मीदों की अब ऊँची थी फरमाईश,
बारिश की बूँदों में भीग जाने की थी अब ख्वाहिश,
श्रापित जीवन से मुक्त हुआ वो अन्तर्मन,
कुछ बूँदे! ..जाने क्या जादू कर गई थी सूखी डाली पर..

Sunday 9 July 2017

मन का इक कोना

मन का इक कोना, तुम बिन है आज भी सूना.....

यूँ तो अब तन्हा बीत चुकी हैं सदियाँ,
बहाने जी लेने के सौ, ढूँढ लिया है इस मन ने,
फिर भी, क्युँ नही भरता मन का वो कोना?
क्युँ चाहे वो बस तेरी ही यादों में खोना?

मन का इक कोना, तुम बिन है आज भी सूना.....

मिले जीवन के पथ कितने ही सहारे,
मन के उस जिद्दी से कोने से बस हम हैं हारे,
खाली खाली सा रहता हरदम वो कोना!
वो सूना सा कोना चाहे तेरा ही होना!

मन का इक कोना, तुम बिन है आज भी सूना.....

खिलते रहें हैं फूल मन के हर कोने में,
इक पतझड़ सा क्यूँ छाया, मन के उस कोने में,
रिमझिम बारिश क्यूँ बरसे ना उस कोना?
कोई फूल खिले ना क्यूँ उस कोना?

मन का इक कोना, तुम बिन है आज भी सूना.....

अधिकार तुम्हारा शायद उस कोने पर,
इक अविजित साम्राज्य है तुम्हारा उस कोने पर,
जीत सका तुझसे ना वापस कोई वो कोना!
मेरे अन्दर ही पराया मुझसे वो कोना!

मन का इक कोना, तुम बिन है आज भी सूना.....

हरी चूड़ियाँ

चहकी हाथों में हरीतिमा, ललचाए मन साजन के...

हरी सी वो चूड़ियाँ, गाते हैं गीत सावन के,
छन-छन करती वो चूड़ियाँ, कहते हैं कुछ हँस-हँस के,
नादानी है ये उनकी या है वो गीत शरारत के?

चहकी हाथों में हरीतिमा, ललचाए मन साजन के...

छनकती है चूड़ियाँ, कलाई में उस गोरी के,
हँसती हैं कितनी चूड़ियाँ, साजन के मन बस-बस के,
चितवन चंचल है कितनी हरी सी उस चूड़ी के!

चहकी हाथों में हरीतिमा, ललचाए मन साजन के...

भीग चुकी हैं ये चूड़ियाँ, बदली में सावन के,
मदहोश हुई ये चूड़ियाँ, प्रेम मद सावन संग पी-पी के,
अब गीतों में आई रवानी, हरी सी उस चूड़ी के!

चहकी हाथों में हरीतिमा, ललचाए मन साजन के...

Friday 7 July 2017

छलकते बूँद

छलकी हैं बूँदें, छलकी सावन की ठंढी सी हवाएँ....

ऋतु सावन की लेकर आई ये घटाएँ,
बारिश की छलकी सी बूँदों से मन भरमाए,
मंद-मंद चंचल सा वो बदरा मुस्काए!

तन बूंदो से सराबोर, मन हो रहा विभोर,
छलके है मद बादल से, मन जाए किस ओर,
छुन-छुन छंदों संग, हिय ले रहा हिलोर!

थिरक रहे ठहरे से पग, नाच उठा है मोर,
झूम उठी है मतवाली, झूम रहा वो चितचोर,
जित देखूँ तित, बूँदे हँसती है हर ओर!

कल-कल करती बह चली सब धाराएँ,
छंद-छंद गीतों से गुंजित हो चली सब दिशाएँ,
पुकारती है ये वसुन्धरा बाहें सब फैलाए!

ऋतु ये आशा की, फिर आए न आए!
उम्मीदों के बादल, नभ पर फिर छाए न छाए!
चलो क्युँ ना इन बूँदों में हम भीग जाएँ!

छलकी हैं बूँदें, छलकी सावन की ठंढी सी हवाएँ....

Tuesday 4 July 2017

रिमझिम सावन

आँगन है रिमझिम सावन, सपने आँखों में बहते से...

बूदों की इन बौछारों में, मेरे सपने है भीगे से,
भीगा ये मन का आँगन, हृदय के पथ हैं कुछ गीले से,
कोई भीग रहा है मुझ बिन, कहीं पे हौले-हौले से....

भीगी सी ये हरीतिमा, टपके  हैं  बूदें पत्तों से,
घुला सा ये कजरे का रंग, धुले हैं काजल कुछ नैनों से,
बेरंग सी ये कलाई, मुझ बिन रंगे ना कोई मेहदी से....

भीगे से हैं ये ख्वाब, या बहते हैं सपने नैनों से,
हैं ख्वाब कई रंगों के, छलक रहे रिमझिम बादल से,
वो है जरा बेचैन, ना देखे मुझ बिन ख्वाब नैनों से....

भीगी सी है ये रुत, लिपटा है ये आँचल तन से,
कैसी है ये पुरवाई, डरता है मन भीगे से इस घन से,
चुप सा भीग रहा वो, मुझ बिन ना खेले सावन से......

बूँद-बूँद बिखरा ये सावन, कहता है कुछ मुझसे,
सपने जो सारे सूखे से है, भीगो ले तू इनको बूँदो से,
सावन के भीगे से किस्से, जा तू कह दे सजनी से....

आँगन है रिमझिम सावन, सपने आँखों में बहते से...