Sunday, 30 April 2017

अचिन्हित तट

ओ मेरे उर की सागर के अचिन्हित से निष्काम तट....

अनगिनत लहर संवेदनाओं के उमरते तुम पर,
सूना है फिर भी क्यूँ तेरा ये तट?
सुधि लेने तेरा कोई, आता क्यूँ नहीं तेरे तट?
अचिन्हित सा अब तक है क्यूँ तेरा ये निश्छल तट?

ओ मेरे उर की सागर के अचिन्हित से निष्काम तट....

निश्छल, निष्काम, मृदुल, सजल तेरी ये नजर,
विरान फिर भी क्यूँ तेरा ये तट?
सजदा करने कोई, फिर क्यूँ न आता तेरे तट?
बिन पूजा के सूना क्यूँ, तेरा मंदिर सा ये निर्मल तट?

ओ मेरे उर की सागर के अचिन्हित से निष्काम तट....

भावुक होगा वो हृदय, जो तैरेगा तेरी लहरों पर,
चिन्हित होगा तब तेरा ये सूना तट!
प्रश्रय लेगी संवेदनाएं, सजदे जब होगे तेरे तट!
रुनझुन कदमों की आहट से, गूजेगा फिर तेरा ये तट।

ओ मेरे उर की सागर के अचिन्हित से निष्काम तट....

नियंत्रित तुम कर लेना, अपनी भावनाओ के ज्वर,
गीला न हो जाए कहीं तेरा ये तट!
पूजा के थाल लिए, देखो कोई आया है तेरे तट!
सजल नैनों से वो ही, सदा भिगोएगा फिर तेरा ये तट!

ओ मेरे उर की सागर के अचिन्हित से निष्काम तट....

Thursday, 27 April 2017

बस मिले थे

बस मिले थे मुलाकात के वो, अनगिनत से सैकड़ों पल..

चंद बिसरी सी बातें, चंद भूले से वादे,
बेवजह की मुफलिसी, बेबात की मनमानियाँ,
बे इरादा नैनों की वो नादान सी शैतानियाँ,
पर कहाँ बदल सके वो, हालात के चंद बिगरते से पल...

बस मिले थे जज्बात के वो, अनगिनत से सैकड़ों पल...

बहकते पलों में, थे किए कितने ही वादे,
अनकही कह गए कुछ, अनसुना रह गया कुछ,
थी वो लहर इक, मन हुआ था यूँ ही भावुक,
जाती लहर में धुल गए वो, जज्बात के बहके से पल...

बस मिले थे लम्हात के वो, अनगिनत से सैकड़ों पल...

ठहरे से उन लम्हों में, ठहर गए सारे वादे,
ठहरी सी धुन, ठहरी सी लय और बेसुरा सा गीत,
ठलती सी उस पहर में, ढल गए गीतों के रीत,
अब न लौटेंगे वो लम्हे, बस देखेंगे मुड़-मुड़ के वो पल...

बस मिले थे बिन बात के वो, अनगिनत से सैकड़ों पल..

ये दूरियाँ

क्यूँ रही दिल के बहुत करीब वो सदियों की दूरियाँ?

क्या कोई तिलिस्म है ये
या गहरा है कोई राज ये,
या है ये हकीकत,
या है ये बस इक तसब्बुर की बात।

क्यूँ थम सी गई है धूँध सी चलती हुई ये आँधियाँ?

क्यूँ हवाओं में ललक ये,
या ठहर गई है खुद पवन ये,
या है ये बेताबियाँ,
या है ये बस बदलते मौसमों की बात।

क्या है ये दूरियों में बारीकी से पिरोई नजदीकियाँ?

क्युँ अंधेरों में है चमक ये,
या हैं ये शाम के उजाले,
या है ये सरगोशियाँ,
या है ये दिल उन्हीं दूरियों में आज।

चल संभल ले ऐ दिल, बहकाए न तुझको ये दूरियाँ ।

Tuesday, 25 April 2017

टूटते ख्वाहिशों की जिन्दगी

दिखने में नायाब! मगर किसी भी क्षण ढहने को बेताब!
बेमिसाल, मगर टूटती हुई ख्वाहिशों की जिन्दगी!

अकस्मात् ही,
रुक से गए जैसे जिन्दगी के रास्ते,
मोहलत भी न मिली हो
ख्वाहिशों के परिंदों को ऊड़ने की जैसे!
रूठ जो गई थी
खुद उसकी ही सांसे उससे!
मोह के धागे सब टूट चुके थे उसके....

जैसे सरकती हुई बर्फ की पहाड़ी ढह गई हो कोई,
पत्तियों के कोर पर शबनमी बूंदों की सूखती सी लड़ी,
रेगिस्तान में बनता बिगरता रेत का टीला कोई!

कभी थे कितने
प्रभावशाली, जीवन्त,
गतिशीलताओं से भरे ये जिन्दगी के रास्ते,
निर्बाध उन्मुक्त,
उड़ान भरते थे ये ख्वाहिशों के परिंदे....
पर जैसे अब टूटी हो तन्द्रा,
माया के टूटे हों जाल,
विरक्त हुआ हो जीवन से जैसे.....

दिखने में नायाब! मगर किसी भी क्षण ढहने को बेताब!
बेमिसाल, मगर टूटती हुई ख्वाहिशों की जिन्दगी!

Sunday, 23 April 2017

उल्लास

इशारों से वो कौन खींच रहा क्षितिज की ओर मेरा मन!

पलक्षिण नृत्य कर रहा आज जीवन,
बज उठे नव ताल बज उठा प्राणों का कंपन,
थिरक रहे कण-कण थिरक रहा धड़कन,
वो कौन बिखेर गया उल्लास इस मन के आंगन!

नयनों से वो कौन भर लाया मधुकण आज इस उपवन!

पल्लव की खुशबु से बौराया है चितवन,
मधुकण थोड़ी सी पी गया मेरा भी यह जीवन,
झंकृत हुआ झूमकर सुबासित सा मधुबन,
जीर्ण कण उल्लासित चहुंदिस हँसता उपवन!

इशारों से वो कौन खींच रहा क्षितिज की ओर मेरा मन!

Friday, 21 April 2017

बेचैन खग

तट के तीरे खग ये प्यासा,
प्रीत की नीर का जरा सा,
नीर प्रीत का तो मिलता दोनो तट ही!
कलकल सा वो बहता, इस तट भी! उस तट भी!
पर उभरती कैसी ये प्यास,
सिमटती हर क्षण ये आश,
यह कैसी है विडम्बना?
या शायद है यह इक अमिट पिपास....?
या है अचेतन मन के चेतना की इक अधूरी यात्रा,
या भीगे तन की अंतस्थ प्यास की इक अधूरी ख्वाहिश!

उस डाली खग ढूंढे बसेरा,
चैन जहाँ पर हो जरा सा,
छाँव प्रीत का तो मिलता हर डाली पर!
रैन बसेरा तो रमता, इस डाली भी! उस डाली भी!
पर किस आशियाँ की है तलाश,
क्युँ उस खग का मन है उदास,
कैसा है यह अनुराग?
या शायद है यह अन्तहीन सी तलाश....?
या है एकाकीपन से कारवाँ बनने तक की अधूरी यात्रा,
या एकांत मन को यूँ बहलाने की इक अधूरी कोशिश!

Wednesday, 19 April 2017

हमेशा की तरह

हकीकत है ये कोई या है ये दिवास्वप्न, हमेशा की तरह!

हमेशा की तरह, है किसी दिवास्वप्न सा उभरता,
ख्यालों मे फिर वही, नूर सा इक रुमानी चेहरा,
कुछ रंग हल्का, कुछ वो नूर गहरा-गहरा.......
हमेशा की तरह, फिर दिखते कुछ ख्वाब सुनहरे,
कुछ बनते बिगरते, कुछ टूट के बिखरे,
सपने हों ये जैसे, किसी हकीकत से परे......

हमेशा की तरह,किसी झील में जैसे पानी हो ठहरा,
मन की झील में, चुपके से कोई हो आ उतरा,
वो मासूम सी, पर छुपाए राज कोई गहरा.....
हमेशा की तरह, खामोशियों के ये पहरे,
रुमानियत हों ये जैसे, किसी हकीकत से परे.......

हमेशा की तरह, दामन छुड़ा दूर जाता कोई साया,
जैसे है वो, मेरे ही टूटे हृदय का कोई टुकड़ा,
फिर पलट कर वापस, क्युँ देखती वो आँखें.....
हमेशा की तरह, अपनत्व क्युँ ये बढाते,
अंजान से है ये रिश्ते, किसी हकीकत से परे.......

हकीकत है ये कोई या है ये दिवास्वप्न, हमेशा की तरह!

Monday, 17 April 2017

वक्त के सिमटते दायरे

हैं ये वक्त के सिमटते से दायरे,
न जाने ये कहाँ, किस ओर लिए जाए रे?

अंजान सा ये मुसाफिर है कोई,
फिर भी ईशारों से अपनी ओर बुलाए रे,
अजीब सा आकर्षण है आँखो में उसकी,
बहके से मेरे कदम उस ओर खीचा जाए रे,
भींचकर सबको बाहों में अपनी,
रंगीन सी बड़ी दिलकश सपने ये दिखाए रे!

हैं ये वक्त के सिमटते से दायरे,
न जाने ये कहाँ, किस ओर लिए जाए रे?

छीनकर मुझसे मेरा ही बचपन,
मेरी मासूमियत दूर मुझसे लिए जाए रे,
अनमने से लड़कपन के वो बेपरवाह पल,
मेरे दामन से पल पल निगलता जाए रे,
वो लड़कपन की मीठी कहानी,
भूली बिसरी सी मेरी दास्तान बनती जाए रे!

हैं ये वक्त के सिमटते से दायरे,
न जाने ये कहाँ, किस ओर लिए जाए रे?

टूटा है अल्हर यौवन का ये दर्पण,
वक्त की विसात पर ये उम्र ढली जाए रे,
ये रक्त की बहती नदी नसों में ही सूखने लगी,
काया ये कांतिहीन पल पल हुई जाए रे,
उम्र ये बीती वक्त की आगोश में ,
इनके ये बढते कदम कोई तो रोके हाए रे!

हैं ये वक्त के सिमटते से दायरे,
न जाने ये कहाँ, किस ओर लिए जाए रे?

Sunday, 16 April 2017

गूंजे है क्युँ शहनाई

क्युँ गूँजती है वो शहनाई, अभ्र की इन वादियों में?

अभ्र पर जब भी कहीं, बजती है कोई शहनाई,
सैकड़ों यादों के सैकत, ले आती है मेरी ये तन्हाई,
खनक उठते हैं टूटे से ये, जर्जर तार हृदय के,
चंद बूंदे मोतियों के,आ छलक पड़ते हैं इन नैनों में...

क्युँ गूँजती है वो शहनाई, अभ्र की इन वादियों में?

ऐ अभ्र की वादियाँ, न शहनाईयों से तू यूँ रिझा,
तन्हाईयों में ही कैद रख, यूँ न सोए से अरमाँ जगा,
गा न पाएंगे गीत कोई, टूटी सी वीणा हृदय के,
अश्रु की अविरल धार कोई, बहने लगे ना नैनों से....

क्युँ गूँजती है वो शहनाई, अभ्र की इन वादियों में?

निहारते ये नैन अपलक, न जाने किस दिशा में,
असंख्य सैकत यादों के, अब उड़ रही है हर दिशा में,
खलबली सी है मची, एकांत सी इस निशा में,
अनियंत्रित सा है हृदय, छलके से है नीर फिर नैनों में....

क्युँ गूँजती है वो शहनाई, अभ्र की इन वादियों में?

क्षितिज की ओर

भीगी सी भोर की अलसाई सी किरण,
पुरवैयों की पंख पर ओस में नहाई सी किरण,
चेहरे को छूकर दिलाती है इक एहसास,
उठ यार! अब आँखे खोल, जिन्दगी फिर है तेरे साथ!

ये तृष्णगी कैसी, फिर है मन के आंगन,
ढूंढती है किसे ये आँखे, क्युँ खाली है ये दामन,
अब न जाने क्युँ अचेतन से है एहसास,
चेतना है सोई, बोझिल सी इन साँसों का है बस साथ!

ये किस धुंध में गुम हुआ मन का गगन,
फलक के विपुल विस्तार की ये कैसी है संकुचन,
न तो क्षितिज को है रौशनी का एहसास,
न ही मन के धुंधले गगन पर, उड़ने को है कोई साथ!

पर भीगती है हर रोज सुबह की ये दुल्हन,
झटक कर बालों को जगाती है नई सी सिहरन,
मन को दिलाती है नई सुखद एहसास,
कहती है बार बार! तु चल क्षितिज पर मैं हूँ तेरे साथ!

Saturday, 15 April 2017

भरम वहम

इक भरम सा हुआ मन को,
चोरी चोरी चुपके किन्ही बातों से जरा डर गए वो,
वहम है ये मेरा या हकीकत है कोई वो!

शीतल सी कोई पवन है वो,
या चिंगारी सी जलती हुई दहकती अगन है वो,
लग रहा जैसे मेरा ही भरम है वो,
शायद थोड़ी डरी सहमी सी वहम है वो!

अब तो हर पल मन मे है वो,
चाहता है ये मन खूबसूरत सा वो वहम हर पल हो,
डरता है ये मन के भरम टूटे न वो,
बड़ी शिद्दत से पाला है दिल मे भरम को!

चुपके ही सही कुछ तो कहो,
न जाने ये पल, ये वहम, या कहीं हम कल हो न हो,
दास्ताँ कोई अनकही बन जाने तो दो,
बेसबर सा है ये मन ख्वाबों में आने तो दो।

इक भरम सा हुआ मन को,
चोरी चोरी चुपके किन्ही बातों से जरा डर गए वो,
वहम है ये मेरा या हकीकत है कोई वो!

Friday, 14 April 2017

कुछ कदम और

साँस टूटने से पहले कुछ कदम मैं और चल लूँ,
मंजिलों के निशान बुन लूँ,
कांटे भरे हैं ये राह सारे,
कंटक उन रास्तों के मैं चुन लूँ,
बस कुछेक कदम मैं और चल लूँ......

आवाज मंजिलों को लगा लूँ,
मूक वाणी मैं जरा मुखर कर लूँ,
साए अंधेरों के हैं उधर,
मशालें उजालों के मैं जला लूँ,
बस कुछेक कदम मैं और चल लूँ......

ज्ञान की मूरत बिठा लूँ,
अज्ञानता के तिमिर अंधेरे मिटा लूँ,
बेरी पड़े हैं विवेक पे,
मन मानस को मैं जरा जगा लूँ,
बस कुछेक कदम मैं और चल लूँ......

दर्द गैरों के जरा समेट लूँ,
विषाद हृदय के मैं जरा मिटा लूँ,
अब कहाँ धड़कते हैं हृदय,
हृदय को धड़कना मैं सीखा लूँ,
बस कुछेक कदम मैं और चल लूँ......

प्रगति पथ प्रशस्त कर लूँ,
मुख बाधाओं के मैं निरस्त कर लूँ,
चक्रव्युह के ये हैं घेरे,
व्युह भेदन के गुण सीख लूँ,
बस कुछेक कदम और चल लूँ......

साँस टूटने से पहले बस कुछ कदम मैं और चल लूँ।

Thursday, 13 April 2017

क्युँ हुई ये सांझ!

आज फिर क्युँ हुई है, ये शाम बोझिल सी दुखदाई?

शांत सी बहती वो नदी, सुनसान सा वो किनारा,
कहती है ये आ के मिल, किनारों ने है तुझको पुकारा,
बहती सी ये पवन, जैसे छूती हो आँचल तुम्हारा,
न जाने किस तरफ है,  इस सांझ का ईशारा?

ईशारों से पुकारती ये शाम, है बोझिल बड़ी दुखदाई?

चुप सी है क्युँ, कलरव सी करती वो पंछियाँ,
सांझ ढले डाल पर, जो नित करती थी अठखेलियाँ,
निष्प्राण सी किधर, उड़ रही वो तितलियाँ,
निस्तेज क्युँ हुई है, इस सांझ की वो शोखियाँ?

चुपचुप गुमसुम सी ये शाम, है बोझिल बड़ी दुखदाई?

हैं ये क्षण मिलन के, पर विरहा ये कैसी आई,
सिमटे हैं यादों में वो ही, फैली है दूर तक तन्हाई,
निःशब्द सी खामोशी हर तरफ है कैसी छाई,
निष्काम सी क्युँ हुई है, इस सांझ की ये रानाई?

खामोशियों में ढली ये शाम, है बोझिल बड़ी दुखदाई?

वो नव पाती

मृदुल कोमल सकुचाती सी वो इक नव पाती,
कोपलों से झांकती, नव बसंत में वो लहलहाती,
मंद बयार संग कभी वो झूमती मुस्कुराती,
कभी सुनहले धूप की, गर्म बाहों में वो झूल जाती,
नादान सी वो नव पाती, मृदुलता ही रही लुटाती!

जैठ की दोपहर, जला गई तन उस पात की,
वो किरण धूप की, रही तन को जलाती आग सी,
मौसमों से इतर, विहँसती रही थी वो पात भी,
रही निखरती वो पात, देती सघन छाँव सी,
सकुचाती बलखाती वो पाती, मृदुलता रही लुटाती!

सुकोमल मृगनयनी बिखरती रही वो नव पाती,
रंग बदलते हैं ये मौसम, नादान न थी ये जानती,
वही मंद सी बयार अब बन चुकी थी आंधी,
टूटी वो डाल से, अस्तित्व को अब कहीं तलाशती,
चिलचिलाती धूप में, झुलस चुकी थी वो पाती!

Thursday, 6 April 2017

ख्वाहिशों के पर

न जाने वो दिल कैसा होगा? कैसे होंगे वो लोग?
जो ख्वाहिशों के पर लगाए,
तलाशते रहते हैं आदतन जिन्दगी को आकाश में!

देखो न, जिन्दगी की कविता लिखकर हर बार,
तुम्हे सुनाने का मैनें किया लम्बा इंतजार,
हर बार कहा तुमने, वक्त नही है!
फिर डाल की सूखी पत्तियों को मैने सुनाई कविता,
अनेको फूल उग आए अबकी बरस वहाँ,
उन फूलों को है अब तुम्हारा इंतजार,
पर मुझको है पता कि अब भी वक्त नहीं है तुम्हारे पास,
इचछाएं जो मन में जगी थी, बुझ सी गईं हैं छन्न से।

इच्छाएं पलती है तो जगती है उम्मीद,
एक आदमी निकल पड़ता है ...
डग भरता, आकाश को भेद जाता है कद उसका,
आकाश को भेदता वो करता है महसूस,
कितने ही एहसासों के खिल चुके हैं महकते से फूल,
और उनमें सबसे खूबसूरत फूल ......
प्रेमातुर आँसुओं के, वसीकृत भावनाओं के...

ज़मीन से जुड़े अपने पाँवों पर,
यहीं से शुरू होती है एक आदमी की जीवन यात्रा,
जो एक लम्बी राह में बदल जाती है आखिर,
उम्मीद, इच्छाएं और आश मन मे लिए,
लेकिन, ख्वाहिशों के तो निकले होते हैं पर......
अधूरी इच्छाएं व्याप जाती हैं धरती में....

अब देखो न! क्युँ लगता है भूल चुके होगे मुझे तुम,
पर अंकित है वो कविताएं अब भी किसी पन्ने पर,
ख्वाहिशों के बादल अब भी ठहरे हैं वहीं,
और अकेले तड़प रहें है कुछ अनपढ़े से शब्द,
कभी वक्त मिले तो तुम पढ़ना,
वो अधूरी इच्छाएं मैं उतार लाया हूँ अपनी कविता में....

या फिर तुम्ही बताओ न!
कैसा होगा वो दिल? कैसे होंगे वो लोग?
जो ख्वाहिशों के पर लगाए,
तलाशते रहते हैं आदतन जिन्दगी को आकाश में!

Wednesday, 5 April 2017

मन भरमाए

इक इक आहट पर, क्युँ मेरा ये मन भरमाए!
तुम न आए, बैरी सजन तुम घर न आए!

तू चल न तेज रे पवन, आस न मेरा डगमगाए,
उड़ती पतंग सा ये मन, न जाने किस ओर लिए जाए,
पागल सा ये मन, अब पल पल है ये घबराए,
तुम न आए, बैरी सजन तुम घर न आए!

ऐ सांझ के मुसाफिर, कोई साजन को ये बताए,
सांझ आने को हुई अब, कोई भूला भी घर लौट आए,
याद करके सारी कसमें, वादा तो अब निभाए,
तुम न आए, बैरी सजन तुम घर न आए!

लौ ये दीप की है जली, क्युँ न रस्ता तुम्हे दिखाए,
ये दो आँख मेरी है खुली, वो डेहरी ये हर क्षण निहारे,
पलकें पसारे ये रैन ढली, न चैन हिया में आए,
तुम न आए, बैरी सजन तुम घर न आए!

इक इक आहट पर, क्युँ मेरा ये मन भरमाए!
तुम न आए, बैरी सजन तुम घर न आए!

Tuesday, 4 April 2017

क्या थी वो?

क्या वो हवा थी इक, हाथों में न समा सकी थी जो?
महसूस हुई हरपल हरबार,
पर, बढ चली वो आगे तोड़कर ऐतबार,
सिहर उठा कुछ क्षण को ये तन,
वो बहती सी पवन हाथों को दे गई इक छुअन।

क्या वो खुश्बू थी कोई, साँसों मे न समा सकी थी जो?
घुल सी गई साँसों में हरबार,
पर, सिमटी यूँ जैसे खुद पे ही न हो ऐतबार,
मदहोश कुछ क्षण को हुआ ये मन,
दे गई वो खुश्बू, सासों को विरह का आलिंगन।

क्या वो लहर थी कोई, किनारों पे न रुक सकी थी जो?
लिपट सी गई पावों से हरबार,
पर, लौट गई जैसे भूले से वो आई हो इसपार,
भीगो गई उस क्षण को वो प्यासा तन,
वो चंचल सी लहर, लौटी न भिगोने को दामन।

क्या वो सपना था कोई, दामन में न थम सकी थी जो?
दिखती रही नैनों में जो हरबार,
पर, बिखर गई वो जैसे टूटा हो छोटा सा संसार,
एहसास नई सी देती रही वो हरक्षण,
वो टूटी सी सपन, छुपी इस मन के ही आंगन।

ऐ कुम्हार

तू ले चल उस ओर मुझे, जहाँ आश पले मन का।

ऐ कुम्हार! रख दे तू चाक पर तन मेरा ये माटी का,
छू ले तू मुझको ऐसे, संताप गले मन का,
तू हाथों से गूंध मुझे, मैं आकार धरूँ कोई ढंग का,
तू रंग दे मुझको ऐसे, फिर रंग चढै ना कोई दूजा,
बर्तन बन निखरूँ मैं, मान बढाऊँ आंगन का।

तू ले चल उस ओर मुझे, जहाँ आश पले मन का।

ऐ कुम्हार! माटी का तन मेरा, कठपुतली तेरे हाथों का,
तू रौंदता कभी गूँधता, आकार कोई तू देता,
हाथों से अपने मन की, कल्पना साकार तू करता,
कुछ गुण मुझको भी दे, मैं ढल जाऊ तेरे ढंग का,
एक हृदय बन देखूँ मैं, कैसा है जीवन सबका।

तू ले चल उस ओर मुझे, जहाँ आश पले मन का।

ऐ कुम्हार! तन मेरा माटी का, क्युँ दुख न ये झेल सका,
सुख की आश लिए, क्युँ ये मारा फिरता,
पिपाश लिए मन में, क्युँ इतना क्षुब्ध निराश रहता,
करुवाहट भरे बोलों से, क्युँ औरों के मन बिंथता,
इक मन तू बना ऐसा, सुखसार जहाँ मिलता।

तू ले चल उस ओर मुझे, जहाँ आश पले मन का।

Sunday, 2 April 2017

पूछूंगा ईश्वर से

सांसों के प्रथम एहसास से,
मृत्यु के अन्तिम विश्वास तक तुम पास रहे मेरे,
पूजा के प्रथम शंखनाद से,
हवन की अन्तिम आग तक तुम पास रहे मेरे,
पर क्युँ टूटा है अब ये विश्वास,
क्युँ छोड़ गए तुम साथ,
अंधियारे में जीवन के उस पार तुम क्युँ साथ नहीं हो मेरे?

जीवन मृत्यु के इस द्वंद में,
धडकनों के मध्य पलते अन्तर्द्वन्द में तुम पास रहे मेरे,
गीतों के उभरते से छंद में,
आरोह-अवरोह के बदलते से रंग मे तुम पास रहे मेरे,
पर क्युँ बदला है अब तुमने राग,
क्युँ छोड़ गए तुम साथ,
जीवन की अन्तर्द्वन्द के उस पार तुम क्युँ साथ नहीं हो मेरे?

अब दोष किस किसका दूँ मैं,
सदैव ईश्वर में करती अनन्त विश्वास तुम पास रहे मेरे,
चन्दन, टीका, टिकली, सिन्दूर से,
टटोलती हर पल हृदय के तार सदा तुम पास रहे मेरे,
पर क्युँ विधाता को न आई ये रास,
क्युँ छोड़ गए तुम साथ,
ईश्वर से पूछूँगा जीवन के उस पार तुम क्युँ साथ नहीं हो मेरे?

Saturday, 1 April 2017

अंजाने में तुम बिन

अंजाने में कुछ पल को यदि तुम्हे भूल भी पाता मैं .....!

खुद ही खुद अकेलेपन में फिर क्या गुनगुनाता मैं!
समय की बहती धार में क्या उल्टा तैर पाता मैं?
क्या दिन को दिन, या रात को रात कभी कह पाता मैं?
अपने साये को भी क्या अपना कह पाता मै?

अंजाने में कुछ पल को यदि तुम्हे भूल भी पाता मैं .....!

सितारों से बींधे आकाश की क्या सैर कर पाता मैं?
सहरा की सघन धूप को क्या सह पाता मैं!
क्या अपने होने, न होने का एहसास भी कर पाता मैं?
अपने जीवित रहने की वजह क्या ढूढता मैं?

अंजाने में कुछ पल को यदि तुम्हे भूल भी पाता मैं .....!

उन लम्हों की दिशाएँ फिर किस तरफ मोड़ता मैं?
देती हैं जो सदाएँ वो पल कहाँ छोड़ता मैं?
क्या उन उजली यादों से इतर मुँह भी मोड़ पाता मैं?
अपने अन्दर छुपे तेरे साए को कहाँ रखता मैं?

अंजाने में कुछ पल को यदि तुम्हे भूल भी पाता मैं .....!

संवेदनहीन

पतंग प्रीत की उड़ती है कोमल हृदयाकाश में,
संवेदनहीन हृदय क्या भर पाएगा इसे बाहुपाश में,
पाषाण हृदय रह जाएगा बस प्रीत की आश में,
मुश्किल होगा प्रीत की डोर का आकाश मे उड़ पाना,
व्यर्थ सा होगा संवेदनाओं के पतंग उड़ाना!

हो चुके हो जब तुम इक पाषाण सा संवेदनहीन,
निरर्थक ही होगा तुमसे प्रीत की कोरी उम्मीद लगाना,
संवेदनाओं के पतंगों को हमें ही होगा समेटना,
असम्भव ही होगा धागे की एक छोर को पकड़े बिना,
प्रीत की पतंग का ऊँचे आकाश में उड़ पाना!

हाँ, पर कोमल सा हृदय हूँ मैं, कोई पत्थर नहीं,
इन कटी पतंगों संग तब तक सिसकेगा ये मेरा मन,
बस उम्मीद की डोर थामे, मैं तुमसे मिलूंगा वहीं,
जग जाए जब संवेदना, वो छोड़ दूजा तुम थाम लेना,
है मुश्किल तुम बिन प्रीत की पतंग उड़ाना!