Sunday, 30 September 2018

खुमारियाँ

सुस्त लम्हों में, खुमारियों का है ये आलम....

खुश्क सी ये कैसी, चल रही है हवा,
वक्त, जैसे ठहर चुका है यहाँ,
मंद सी हो चली, सूरज की रौशनी,
मंद मंद बह रही, ये बयार भी,
सुस्त से हैं कदम, अधूरी है प्यास भी....

ठहरा सा ये लम्हा, ये उन्मुक्त से पल,
ठहरा सा है, वो बीता सा कल,
ठहरे से हैं, वो ही बेसब्रियों के पल,
गुजरता नहीं, सुस्त सा ये लम्हा,
जाऊँ किधर, कैद ये कर गया यहाँ....

इस पल ने, यूँ ही बांध रखे है कदम,
आकुल से हैं प्राणों के कण,
इक आहट सी, उठ रही है कहीं,
खोया हूँ मैं, इस पल में यहीं,
है माधुर्य सा, इन खुमारियों में कही....

सुस्त लम्हों में, खुमारियों का है ये आलम....

Thursday, 27 September 2018

मन के आवेग

आवेग कई रमते इस छोटे से मन में,
जैसे बूँदें, बंदी हों घन में....

गम के क्षण, मन सह जाता है,
दुष्कर पल में, बह जाता है,
तुषारापात, झेल कर आवेगों के,
विकल हो जाता है.....

मन कोशों दूर निकल जाता है,
फिर वापस मुड़ आता है,
बंधकर आवेगों में, रम जाता है,
वहीं ठहर जाता है...

प्रवाह प्रबल मन के आवेगों में,
कहीं दूर बहा ले जाता है,
कण-कण प्लावित कर जाता है,
बेवश कर जाता है....

गर वश होता इन आवेगों पर,
धीर जरा मन को आता,
खुद को ले जाता निर्जन वन में,
चैन जहाँ रमता है...

आवेग कई रमते इस छोटे से मन में,
जैसे बूँदें, बंदी हों घन में....

Monday, 24 September 2018

सुप्रिय जज्बात

जज्ब कर जज्बात बातों में,
दो पल दे गया कोई साथ, तन्हा रातों में....
खोया मैं उस पल, उनकी ही बातों में....

टटोल कर, मेरा भावुक सा मन,
बोल कर कई सुप्रिय वचन,
पूछ कर न जाने, कितने ही प्रश्न,
रख गया था कोई हाथ, मेरे हाथों में....

जज्ब कर जज्बात बातों में,
दो पल दे गया कोई साथ, तन्हा रातों में....

हृदय के तट, मची है हलचल,
है जिज्ञासा जागी प्रबल,
उस ओर ही, मन ये रहा मचल,
सुप्रिय से वो हालात, लम्बी बातों में....

जज्ब कर जज्बात बातों में,
दो पल दे गया कोई साथ, तन्हा रातों में....

है खींच चुकी, इक लकीर सी,
उठ रही है इक पीर सी,
हो न हो, वो है कोई इक हीर सी,
सुप्रिय है वो ही पीर, मेरे जज़्बातों में...

जज्ब कर जज्बात बातों में,
दो पल दे गया कोई साथ, तन्हा रातों में....
मैं भूला हूँ अब भी, उनकी बातों में....

Saturday, 22 September 2018

अपरिचित

ओ अपरिचित, अपना कुछ परिचय ही दे जाओ....

विस्मित हूँ निरख कर मैं वो स्मित,
बार-बार निरखूं, मैं इक वो ही अपरिचित,
हिय हर जाओ, चित मेरा ले जाओ,
विस्मित फिर से कर जाओ...

ओ अपरिचित, अपना कुछ परिचय ही दे जाओ....

हो कौन तुम? क्यूँ ऐसे मौन तुम?
पा लूं परिचय, कुछ बोलो तो अपरिचित,
संवाद करो, कुछ अपनी बात कहो,
आसक्त मुझे फिर कर जाओ....

ओ अपरिचित, अपना कुछ परिचय ही दे जाओ....

उद्दीप्त हुए, इस मन में दीप कई,
दीपक का उद्दीपन, तुमसे है अपरिचित,
प्रकाश भरो, तम इस रात के हरो,
असंख्य दीप फिर ले आओ.....

ओ अपरिचित, अपना कुछ परिचय ही दे जाओ....

Friday, 21 September 2018

ब्रम्ह और मानव

सुना है! ब्रम्ह नें, रचकर रचाया ये रचना....
खुद हाथों से अपने,
ब्रम्हाण्ड को देकर विस्तार,
रचकर रूप कई,
गढ़ कर विविध आकार,
किया है साकार उसने कोई सपना...

सुना हैं! उन सपनों के ही इक रूप हैं हम....
अंश उसी का सबमें,
रंग विविध से दिए है उसने,
भरकर भाव कई,
देकर मन रुपी संसार,
किया है हृदय में ममता का श्रृंगार....

सुना है! ब्रम्हलोक गए वे सब कुछ देकर...
दे कर विशाल सपने,
एहसास उपज कर मानव में,
इच्छाएं दे कई,
किए बिन सोच विचार,
सृष्टि पर सौंप दिया था अधिकार....

सुना है! अब पश्चाताप कर रहा वो ब्रम्ह...
श्रेष्ठ ज्ञान दिया जिसे,
योनियों में उत्तम रचा जिसे,
भूला राह वही,
कपट क्लेश व्यभिचार,
सृष्टि की संहार पर तुला है मानव...

सुना है! टूट चुकी है अब ब्रम्ह की तन्द्रा...
रूठ चुका है वो सबसे,
त्रिनेत्र खोल दिए है शिव ने,
प्रलय न हो कहीं!
प्रकृति में है हाहाकार,
हो न हो, है विनाश का ये हुंकार...

सुना है! अब भी नासमझ बना है मानव...

Thursday, 20 September 2018

कहकशाँ

तुम हो, अस्तिव है कहीं न कहीं तुम्हारा....

बादलों के पीछे, उस चाँद के सरीखे,
छुपती छुपाती, तू ही तू बस दिखे,
मन को न इक पल भी गंवारा,
कि अस्तिव, कहीं भी नही है तुम्हारा....

तुम हो, अस्तिव है कहीं न कहीं तुम्हारा....

होती न तुम तो, बरसते न मेघ ऐसे,
उड़ते न फिर, मेघों से केश ऐसे,
भटकते न, बादल ये आवारा,
न ही भीगता, बेजार सा ये मन बेचारा...

तुम हो, अस्तिव है कहीं न कहीं तुम्हारा....

तारों की पूंज में, कहीं तुम हो छुपी,
हो रही है जहाँ, मद्धम सी रौशनी,
चमकती वो आँखे ही हैं तेरी,
है तुमसे ही, कहकशाँ सा सुंदर नजारा....

तुम हो, अस्तिव है कहीं न कहीं तुम्हारा....

रिमझिम हुई, जब कहीं भी बारिशें,
राग मल्हार जब कहीं भी छिड़े,
खनकी है आवाज बस तेरी,
बजते हैं सितार, हो जैसे सुर तुम्हारा.... 

तुम हो, अस्तिव है कहीं न कहीं तुम्हारा....

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कहकशाँ का अर्थ :
- आकाश में दूरस्थ तारों का ऐसा समूह जो धुँधले बादल जैसा दिखाई देता है; आकाशगंगाछायापथ; (मिल्की वे)।

Tuesday, 18 September 2018

मत कर ऐसी बात

मत कर फिर वो बात,
सखी, अब दिल भर आया है....

किस्मत का लेखा किसने देखा,
समय ही दे गया धोखा,
न वश मे थे हालात, फिर कैसा विलाप,
संताप मिला जो किस्मत में था,
विधि का था यही विधान,
बात वही फिर काहे का दोहराना.....

छेड़ो मत फिर वो बात,
सखी, अब दिल भर आया है....

सखी! भूले ना भूलेगा वो गम,
है उपरवाला ही बेरहम,
थी दामन में खुशी, दिया उसने ही गम,
मुश्किल है फिर से खिल पाना,
था भाग्य में ही मुरझाना,
फिर क्यूँ उन बातों को दोहराना....

यूँ दोहराओ ना वो बात,
सखी, अब दिल भर आया है....

टूटे जो तारे, गिरते हैं अवनि पर,
टूटे पत्ते गलते हैं यहीं पर,
अवनि पर छोड़ गए, यूँ मुझको भी वो,
है किस्मत में, यूँ ही मिट जाना,
कहते हैं, अम्बर पर हैं वो,
अब मुझको भी उन तक है जाना....

ना और कोई हो बात,
सखी, अब दिल भर आया है....

Sunday, 16 September 2018

बह जाते हैं नीर

जज्बातों में, बस यूँ ही बह जाते हैं नीर...

असह्य हुई, जब भी पीड़,
बंध तोड़ दे, जब मन का धीर,
नैनों से बह जाते हैं नीर,
बिन बोले, सब कुछ कह जाते हैं नीर...

नीर नहीं, ये है इक भाषा,
इक कूट शब्द, संकेत जरा सा,
सुख-दुख हो थोड़ा सा,
छलकते हैं, नैनों से बह जाते हैं नीर...

संयम, थोड़ा ना खुद पर,
ना धैर्य तनिक भी लम्हातों पर,
न जाने किन बातों पर,
जज्बातों में, बस यूँ बह जाते हैं नीर...

सम्भले ना, ये आँखों में,
तड़पाते हैं, आके तन्हा रातों में,
डूबोकर यूँ ख्यालों में,
किसी अंजान नगर, ले जाते हैं नीर...

भिगोते हैं भावों को नीर,
पिरोते है मन के भावों को नीर,
धोते हैं घावों को नीर,
बातों ही बातों में, भिगो जाते हैं नीर....

असह्य हुई, मन की पीड़,
बंध तोड़ रहे, अब मन का धीर,
बह चले अब नैनों से नीर,
कर संकेत, सब कुछ कह रहे हैं नीर...

जज्बातों में, बस यूँ ही बह जाते हैं नीर...

Friday, 14 September 2018

दायरा

ये अब किन दायरों में सिमट गए हो तुम...

छोड़ कर बाबुल का आंगन,
इक दहलीज ही तो बस लांघी थी तुमने!
आशा के फूल खिले थे मन में,
नैनों में थे आने वाले कल के सपने,
उद्विग्नता मन में थी कहीं,
विस्तृत आकाश था दामन में तुम्हारे!

ये अब किन दायरों में सिमट गए हो तुम...

कितने चंचल थे तुम्हारे नयन!
फूट पड़तीं थी जिनसे आशा की किरण,
उन्माद था रक्त की शिराओं में,
रगों में कूट-कूटकर भरा था जोश,
उच्छृंखलता थी यौवन की,
जीवन करता था कलरव साथ तुम्हारे!

ये अब किन दायरों में सिमट गए हो तुम...

कुंठित है क्यूँ मन का आंगन?
संकुचित हुए क्यूँ सोच के विस्तृत दायरे?
क्यूँ कैद हुए तुम चार दिवारों में?
साँसों में हरपल तुम्हारे विषाद कैसा?
घिरे हो क्यूँ अवसाद में तुम?
क्यूँ है हजार अंकुश जीवन पे तुम्हारे!

ये अब किन दायरों में सिमट गए हो तुम...

Wednesday, 12 September 2018

यूँ भी होता

यूँ भी होता............

मन के क्षितिज पर,
गर कहीं चाँद खिला होता,
फिर अंधेरों से यहाँ,
मुझको न कोई गिला होता!

अनसुना ना करता,
मन मेरे मन की बातें सुनता,
बातें फिर कोई यहाँ,
मुझसे करता या न करता!

हो मन में जो लिखा,
गर कोई कभी पढ़ लेता,
लफ़्ज़ को यूँ शब्दों में,
ढ़लकर ना ही जलना होता!

करीब रहकर भी,
न फासला मिटा होता,
बेवजह गले मिल ले,
ऐसा न गर कोई मिला होता!

दिल तक पथ होता,
दूरी न ये तुम तक होता
थकता न ये पथिक,
मुश्किल भरा ना पथ होता!

गम से मन टूटता,
मन गैरों के गम में ही रोता,
भूले से भी गम कोई,
फिर दुश्मन को भी न देता!

यूँ भी होता..........

Tuesday, 11 September 2018

बीहड़- इक याद

यदा कदा जाता हूँ मैं यादों के उन बीहड़ में....

यत्र तत्र झाड़ झंखर, राहों में धूल कंकड़,
कंटीली झाड़ियों से ढ़की, वीरान सी वो बीहड़,
वृक्ष विशाल से उग आए हैं अब वहाँ,
शेष है कुछ तस्वीरें, बसी है जिनसे वो जहाँ,
कुछ बातें कर लेता हूँ मैं उनसे वहाँ...

यदा कदा जाता हूँ मैं यादों के उन बीहड़ में....

कुछ भी तो अब नहीं बचा, उस बीहड़ में,
हर शै में समय की जंग, खुद समय भी है दंग,
हैरान हूँ मैं भी, समय ये क्या कर गया?
खुद ही रचयिता, खुद ही विनाशक वो बना,
समय से बातें कर लेता हूँ मैं वहाँ....

यदा कदा जाता हूँ मैं यादों के उन बीहड़ में....

घने वृक्ष, चीखते झींगुर, अंतहीन बीहड़,
चीखते फड़फड़ाते, अनमनस्क से चमगादड़,
कुछ ज़िन्दगियाँ अब भी रहती है वहाँ,
दम घोंटती हवाओं में, पैबन्द हैं साँसें जहाँ,
जिन्दगी को ढ़ूँढ़ने जाता हूँ मैं वहाँ...

यदा कदा जाता हूँ मैं यादों के उन बीहड़ में....

ऐ वक्त, ऐ निर्मम समय, ये कैसा बीहड़!
रचता ही है तो रच, बीहड़ साँसों की लय पर,
वो बीहड़! तरन्नुम हवाओं में हों जहाँ,
तैरते हों शुकून, मन की तलैय्या पर जहाँ,
मन कहता रहे, तू ले चल मोहे वहाँ....

यदा कदा जाता हूँ मैं यादों के उन बीहड़ में....

Monday, 10 September 2018

बरसते घन

थमती ही नहीं, रिमझिम बारिश की बूँदें.....

ये घन, रोज ही भर ले आती हैं बूँदें,
भटकती है हर गली, गुजरता हूँ जिधर मैं,
भीगोती है रोज ही, ढूंढकर मुझे...

थमती ही नहीं, रिमझिम बारिश की बूँदें.....

थमती ही नहीं, बूँदों से लदी ये घन,
बरसकर टटोलती है, रोज ही ये मेरा मन,
पूछती है कुछ भी, रोककर मुझे...

थमती ही नहीं, रिमझिम बारिश की बूँदें.....

जोड़ गई इक रिश्ता, मुझसे ये घन,
कभी ये न बरसे, तो बरसता है मेरा मन,
तरपाती है कभी, यूँ छेड़कर मुझे...

थमती ही नहीं, रिमझिम बारिश की बूँदें.....

ये घन, निःसंकोच भिगोती है मुझे,
निःसंकोच मैं भी, कुछ कह देता हूँ इन्हें,
ये रोकती नही, कुछ कहने से मुझे...

थमती ही नहीं, रिमझिम बारिश की बूँदें.....

यूँ निःसंकोच, मिलती है रोज मुझे,
तोहफे बूँदों के, रोज ही दे जाती है मुझे,
भीगना तुम भी, भिगोए जो ये तुझे...

थमती ही नहीं, रिमझिम बारिश की बूँदें.....

निःस्वार्थ हैं कितने, स्नेह के ये घन,
सर्वस्व देकर, हर जाती है धरा का तम,
बरस जाती हैं, अरमानों के ये बूँदें....

थमती ही नही, रिमझिम बारिश की बूँदें.....

Saturday, 8 September 2018

दरिया का किनारा

हूँ मैं इक दरिया का खामोश सा किनारा....

कितनी ही लहरें, यूँ छूकर गई मुझे,
हर लहर, कुछ न कुछ कहकर गई है मुझे,
दग्ध कर गई, कुछ लहरें तट को मेरे,
खामोश रहा मै, लेकिन था मैं मन को हारा,
गाती हैं लहरें, खामोश है किनारा....

बरबस हुई प्रीत, उन लहरों से मुझे,
हँसकर बहती रही, ये लहरें देखकर मुझे,
रुक जाती काश! दो पल को ये लहर,
समेट लेता इन्हें, अपनी आगोश में भरकर,
बहती है लहरें, खामोश है किनारा....

भिगोया है, लहरो ने यूँ हर पल मुझे,
हूँ बस इक किनारा, एहसास दे गई मुझे,
टूटा इक पल को, बांध धैर्य का मेरे,
रीति थी पलकें, मैं प्रीत में था सब हारा,
बस प्रीत बिना, खामोश है किनारा....

हूँ मैं इक दरिया का खामोश सा किनारा....

Thursday, 6 September 2018

खेवैय्या

हो गुम कहाँ तुम, ऐ मेरे खेवैय्या!
गहरी सी इस वापी में डोल रही मेरी नैय्या!

धीरज थिरता था, पहले इस वापी में,
धीर बड़ा मन को मिलता था इस वापी में,
अब आब नहीं इसकी मन माफिक,
तू खे मेरी ये नैय्या, जरा ध्यान से नाविक,
है संकट में है मेरी ये छोटी सी नैय्या,
हो गुम कहाँ, ऐ मेरे खेवैय्या!

थी बड़ी पावन, कभी आब यहाँ की,
किसी ने धोया है इसमें, सारे पाप जहाँ की,
अब खिलते नही हैं कमल यहाँ भी,
उस जलकुम्भी से, जरा बचना ऐ नाविक,
उलझ जाए न, मेरी ये टूटी सी नैय्या,
हो गुम कहाँ, ऐ मेरे खेवैय्या!

गहरी है वापी, ठहरी है आब यहाँ की,
अब बदली सी है, आब-ए-हयात यहाँ की,
अब यहाँ न मन को शुकून जरा भी,
चिन्ता मेरे मन की, बढाओ न ऐ नाविक,
पलट जाए न, है बेकाबू सी ये नैया,
हो गुम कहाँ, ऐ मेरे खेवैय्या!

हो गुम कहाँ तुम, ऐ मेरे खेवैय्या!
गहरी सी इस वापी में डोल रही मेरी नैय्या!

Sunday, 2 September 2018

वही है जीवन

है जीवन वही, जो मरण के क्षण को जीत ले...

झंकृत शब्दों से मौन को चीर दे,
ठहरे पलों को अशांत सागर का नीर दे,
टूटे मन को शांति का क्षीर दे,
है जीवन वही......

अचम्भित हूं मैं मौन जीवन पे,
कब ठहरा है जीवन मौन की प्राचीर पे,
मृत्यु के पल आते है मौन पे,
है जीवन वही......

मरण दाह है, लौ जीवन की ले,
ज्वलंत पलों से पल जीवन के छीन ले,
यूं जीते जी क्यूँ दाह में जले,
है जीवन वही......

इक गूंज गुंजित है ब्रम्हाण्ड में,
ओम् अहम् वही गुंजित है हर सांस में,
गूंज वही गूंजित कर मौन में,
है जीवन वही......

कोलाहल हो जब ये दीप जले,
हो किलकारी जब भी कोई फूल खिले,
मुखरित मन के संवाद चले,
है जीवन वही......

है जीवन वही, जो मरण के क्षण को जीत ले...