Tuesday, 30 April 2019

बांधो मत उसको

सृष्टि खुद जिसमें, सिमटी है आकर,
नित स्वरूप नए से लेकर, खिलती है वो बलखाकर!
अद्भुत सी वो चित्रकारी,
रचनाओं में, श्रेष्ठतम है नारी!

नारी है, शक्ति है, सृष्टि समूल है वो!
रचयिता की भूल नहीं, उसकी रचना का मूल है वो!
श्रष्टा के बंद किताबों में,
झांक कर पढ़ लेना!
कल्पना नहीं, सशक्त संकल्पना है,
कालसमय से परे, तर्क की तार्किक विवेचना है वो!
सीमाओं के बंधन में,
बांध कर मत रखना उसको!

मृदुल है वो, सशक्त हैं पर उसके,
आयाम सफलताओं के, नए लिख सकती हैं वो!
संकीर्णताओं के जंजीरों में,
उन्हे कैद न रखना!
आसमान, छू सकते हैं उसके पर,
आकांक्षाओं के वृहदाकार, मन के मुक्ताकाश पर,
चाहत के दीर्घ श्वास,
सीने में भर लेने देना उसको!

नारी है, इस व्योम का सार है वो!
श्रृष्टि की जटिल रचना का, विशिष्ट मूलाधार है वो!
प्राण उसी के गर्भ में,
निष्प्राण न होने देना उसको!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Friday, 26 April 2019

तुम थे तो

तुम जिस पल थे,
वो ही थे,
आकर्षण के दो पल!

तुम थे तो,
जागे थे नींद से ये एहसास,
धड़कन थी कुछ खास,
ठहरी सी थी साँस,
आँखों नें,
देखे थे कितने ही ख्वाब,
व्याकुल था मन,
व्याप गई थी इक खामोशी,
न जाने ये,
थी किसकी सरगोशी,
तन्हाई में,
तेरी ही यादों के थे पल!

तुम जिस पल थे,
वो ही थे,
आकर्षण के दो पल!

तुम थे तो,
वो पल था कितना चंचल,
नदियों सा बहता था,
वो पल कल-कल,
हवाओं में,
प्रतिध्वनि सी थी हलचल,
तरंगों सी लहरें,
विस्मित करती थी पल-पल,
खींचती थी,
छुन-छुन बजती पायल,
क्षण भर में,
सदियाँ गुजरी थी उस पल!

तुम जिस पल थे,
वो ही थे,
आकर्षण के दो पल!

तुम थे तो,
अधूरा सा न था ये आंगण,
मूर्त हुई थी चित्रकलाएं,
बोलती थी तस्वीरें,
अंधेरों में,
जग पड़ते थे कितने तारे,
सजता था गगन,
गुम-सुम कुछ कहते थे तुम,
तारों संग,
विहँसते थे वो बादल,
उन बातों में,
जीवन्त थे रातों के पल!

तुम जिस पल थे,
वो ही थे,
आकर्षण के दो पल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday, 21 April 2019

प्यार

न जाने, कितनी ही बार,
चर्चा का विषय, इक केन्द्र-बिंदु, रहा ये प्यार!
जब भी कहीं, अंकुरित हुई कोमलता,
भीगी, मन की जमीन,
अविरल, आँखों से फूटा इक प्रवाह,
बह चले, दो नैन,
दिन हो या रैन, मन रहे बेचैन,
फिर चर्चाओं में,
केन्द्र-बिंदु बन कर, उभरता है ये प्यार!

हर दिन, क्षितिज के पार,
उभरता है सूरज, जगाकर संभावनाएं अपार!
झांकता है, कलियों की घूँघट के पार,
खोल कर, उनके संपुट,
सहलाकर किरणें, भर देती हैं उष्मा,
विहँसते हैं शतदल,
खिल आते हैं, करोड़ों कमल,
अद्भुत ये श्रृंगार,
क्यूँ न हो, चर्चा के केन्द्र-बिन्दु में प्यार!

कल्पना, होती हैं साकार,
जब सप्तरंगों में, इन्द्रधनुष ले लेता है आकार!
मन चाहे, रख लूँ उसे ज़मीं पर उतार,
बिखर कर, निखरती बूंदें,
किरणों पर, टूट कर नाचती वो बूंदें,
भींगता, वो मौसम,
फिजाओं में, पिघली वो धूप,
शीतल वो रूप,
चर्चाओं के केन्द्र-बिंदु, क्यूँ न बने ये प्यार!

न जाने, कितनी ही बार,
चर्चा का विषय, इक केन्द्र-बिंदु, रहा ये प्यार!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Friday, 19 April 2019

रिश्तों की चाय

फीकी ही सही, चाय, गर्म तो हो मगर,
रिश्ते ना सही, मायने, रिश्तों के तो हों मगर!

सिमट कर रह गए, रिश्तों के खुले पर,
महज औपचारिकताओं के, जकड़े पाश में
उड़ते नही ये, अब खुले आकाश में!

चहचहाते थे कभी, मीठी प्यालियों में,
उड़ते थे ये कभी, चाय संग सर्द मौसमों में,
अब बची, औपचारिकताएँ चाय में!

फीकी सी हुई, रिश्तों की सुगबुगाहट,
अब कहाँ है, चाय के प्यालियों की आहट,
हो न हो चीनी, कम गई है चाय में!

या जरूरतें! या स्वार्थ! हुई हैं प्रभावी,
या झूठी तरक्की, सब पे हो चुकी हैं हावी,
कम हो चुकी है, गर्माहट चाय में!

फीकी ही सही, चाय, गर्म तो हो मगर,
रिश्ते ना सही, मायने, रिश्तों के तो हों मगर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

वादों का नया संस्करण

रुक गए थे जहाँ, पल भर को कदम,
ठहरी है वहीं, वो ठंढ़ी सी पवन,
और बिखरे हैं वहीं, रूठे से कई ख्वाब भी,
चलो मिल आएं हम,
फिर, ख्वाबों से, उन्ही पगडंडियों पर!

लहराए थे तुमने, कभी आँचल जहाँ,
सूना सा है, आजकल वो जहां,
रह रही हैं वहाँ, कुछ चुभन और तन्हाईयाँ,
चलो मिटा आएं हम,
फिर, ये तन्हाईयाँ, उन्हीं पगडंडियों पर!

रख दिए थे जहाँ, मन के सारे भरम,
कहीं होके जुदा, तुम और हम,
न जाने उनपर हुए, वक्त के कितने सितम,
चलो तोड़ आएं हम,
फिर वो भरम, उन्हीं पगडंडियों पर!

जहाँ वादों का था, इक नया संस्करण,
हुआ ख्वाबों का, पुनर्आगमण,
शायद बनने लगे, भ्रम के नए समीकरण,
चलो कर आएं हम,
फिर कुछ वादे, उन्हीं पगडंडियों पर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Wednesday, 17 April 2019

रुहानी बातें-पुरानी बातें

बड़ी ही रुहानी, थी वो पुरानी बातें!

सजाए बदन पर, संस्कारों का गहना,
नजरों का उठना, वो पलकों का गिरना,
लबों का हिलना, मगर कुछ भी न कहना,
शर्मो-हया की, वो ही पर्दों की बातें,
रुहानी बातें, वर्षों पुरानी बातें...

सुबह-सबेरे, उनकी गलियों के फेरे,
भरी दोपहरी, अमुआ के बागों में डेरे,
संध्या-प्रहर, रेडियो संग प्रियजनों के घेरे,
रूमानी रातें, संग सितारों की बातें,
रुहानी बातें, वर्षों पुरानी बातें!

शिष्टता में, कुछ बुजुर्गों से न कहना,
खिदमत में उनकी, गर्व महसूस करना,
प्रथम आशीर्वचन, उन बुजुर्गों से ही लेना,
शिष्टाचार और परम्पराओं की बातें,
रुहानी बातें, वर्षों पुरानी बातें...

खेत-खलिहानों की, वो पगडंडियाँ,
ओस में भीगी हुई, गेहूँ की वो बालियाँ,
भींगकर पैरों में सटी, नाजुक सी पत्तियाँ,
फर्स पर घास की, कई सुहानी बातें,
रुहानी बातें, वर्षों पुरानी बातें...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Monday, 15 April 2019

पूछती है राहें

न जाने क्यूँ, इक मुझे ही टोक कर,
शायद, तन्हा सफर में देख कर!
थाम कर मेरी बाहें, पूछती है मुझसे ही राहें....

तुम तो हो, बस इक मुसाफिर,
तुम भी, गुजर ही जाओगे,
मैं हूँ इक राह बस, फिर लौट कर न आओगे!

गुजरे कई, गुजरी न ये तन्हाई,
सह गई, विरह और जुदाई,
वर्षों मैं तन्हा रही, क्षणभर न ऐसे रह पाओगे!

इक आग में, मैं सदियों जली,
बिना अनुराग, वर्षों पली,
राहगीर हो तुम, छाँव राहतों के न दे पाओगे!

मिले कई, अपना सा न मिला,
मन में रहा, बस ये गिला,
अपने तो हो तुम भी, अपनापन न दे पाओगे!

अनगिनत रास्ते, हैं तेरे वास्ते,
एक तुझसे, मेरा वास्ता,
हर शै छोड़ गई तन्हा, तुम भी छोड़ जाओगे!

मन पर अंकित हैं, ये रेखाएँ,
जख्म किसे दिखलाएँ,
रेखाएँ के इक मकरजाल, तुम भी दे जाओगे!

न जाने क्यूँ, इक मुझे ही टोक कर,
शायद, तन्हा सफर में देख कर!
थाम कर मेरी बाहें, पूछती है मुझसे ही राहें....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday, 13 April 2019

पदचिन्ह

पदचिन्ह हैं ये किसके....

क्या गाती विहाग, नींद से जागी प्रभात?
या क्षितिज पे प्रेम का, छलक उठा अनुराग?
या प्रीत अनूठा, लिख रहा प्रभात!

पदचिन्ह हैं ये किसके....

ये निशान किस के, अंकित हैं लहर पे!
क्या आई है प्रभा-किरण, करती नृत्य-कलाएँ?
या आया है कोई, रंगों में छुपके?

पदचिन्ह हैं ये किसके....

स्थिर-चित्त सागर, विचलित हो रहा क्यूँ?
हर क्षण बदल रही, क्यूँ ये अपनी भंगिमाएं?
हलचल सी मची, क्यूँ निष्प्राणों में?

पदचिन्ह हैं ये किसके....

चुपके से वो कौन, आया है क्षितिज पे?
या किसी अज्ञात के, स्वागत की है ये तैयारी!
क्यूँ आ छलके है, रंग कई सतरंगे?

पदचिन्ह हैं ये किसके....

टूट चली है मेरी, धैर्य की सब सीमाएँ!
दिग्भ्रमित हूँ अब मैं, कोई मुझको समझाए!
तनिक अधीर, हो रहा क्यूँ सागर?

पदचिन्ह हैं ये किसके....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा।

Thursday, 11 April 2019

संकेत

प्रथमतः, संकेत मुखर हो,
प्रबल कोई आशा, फिर प्रत्युत्तर की हो!

संकेत बसंत का पाकर,
झूमी ये वसुधा,
नव श्रृंगार किए पल्लव नें,
रसपान किया भौरों ने,
कूकी कोयल,
गूंजा एक स्वर, जय-जय बसंत की हो!

प्रथमतः, संकेत मुखर हो,
प्रबल कोई आशा, फिर प्रत्युत्तर की हो!

संकेत मिला जब सावन का,
करती नृत्य क्रीड़ा,
बरसी झूम-झूमकर बदरा,
भींगी हरित हो वसुधा,
लहलहाए फसल,
गूंजा प्राणों में स्वर, सावन की जय हो!

प्रथमतः, संकेत मुखर हो,
प्रबल कोई आशा, फिर प्रत्युत्तर की हो!

संंकेत, मौन व्योम की भाषा,
जीने की अभिलाषा,
मुखरित चेतना की जिज्ञासा,
लिख जाते हैं दो नैंना,
संकेतों में गजल,
गूंजा है ओम, चराचर व्योम की जय हो!

प्रथमतः, संकेत मुखर हो,
प्रबल कोई आशा, फिर प्रत्युत्तर की हो!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Monday, 8 April 2019

कहीं हम न हैं

तुम हो, मैं हूँ, सब हैं, पर कहीं न हम हैं!

बस भीड़ है, शून्य को चीड़ता इक शोर है,
अंतहीन सा, ये कोई दौर है,
तुम से कहीं, तुम हो गुम,
मुझसे कहीं, मैं हो चुका हूँ गुम,
थके से हैं लम्हे, लम्हों में कहीं न हम हैं!

जिन्दा हैं जरूरतें, कितनी ही हैं शिकायतें,
मिट गई, नाजुक सी हसरतें,
पिस गए, जरूरतों में तुम,
मिट गए, इन शिकायतों में हम,
चल रही जिन्दगी, जिन्दा कहीं न हम हैं!

वश में न, है ये मन, है बेवश बड़ा ही ये मन,
इसी आग में, जल रहा है मन,
तिल-तिल, जले हो तुम,
पलभर न खुलकर जिये हैं हम,
इक आस है, पास-पास कहीं न हम है!

चल रहे हैं रास्ते, अंतहीन रास्तों के मोड़ हैं,
दूर तक कहीं, ओर है न छोड़ है,
गुम हो, इन रास्तों में तुम,
गुम हैं कहीं इन फासलों में हम,
सफर तो है, हमसफर कहीं न हम हैं!

दूर कहीं दूर, खड़ी है जिन्दगी,
तुम हो, मैं हूँ, सब हैं, पर कहीं न हम हैं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday, 6 April 2019

फीकी सी चाय

चंद बातें, फीकी सी पड़ती इक चाय....

एक रूह, एक मैं,
एक तुम, एक पल एक संग,
एक एहसास, बेवजह एक बकवास,
एक ही जिद, विछोह भरे वो पल,
और एक तुम!

एक ही हकीकत,
एक चाहत, कितने ही ख्वाब,
एक सपना, गमगीन कितनी ही रात,
भँवर से उठते, हजारों जज़्बात,
और एक तुम!

साथ वो एहसास,
कुम्भलाता, कभी इतराता,
गहराता, उन पलों के नजदीक लाता,
कहीं धूँध में लिपटी एक परछाई,
और एक तुम!

सितारों भरी रातें,
खुली ये आँखें, भूली सी बातें,
एक तड़प, करवटो के दोनों ही तरफ,
ताकती दो आँखें, एक ही चेहरा,
और एक तुम!

यादें, भूले से वादे,
फीकी सी पड़ती एक चाय,
कई रातें, हजार करवटें, कई सिलवटें,
कई सुबह, बिन चीनी इक चाय,
और एक तुम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Friday, 5 April 2019

चुप्पी

और न अब कहना, कि चुप क्यूँ रहते हो....

मन के कोलाहल, क्या सुन पाओगे?
उठते है जो शोर, कदापि ना सह पाओगे,
बवंडर है, इसमें ही फ़ँस जाओगे!

और न अब कहना, कि चुप क्यूँ रहते हो....

मन के आईने में, अक्श ही देखोगे,
बेदाग सा दामन, कहाँ खुद का पाओगे,
सच का सामना, कैसे कर पाओगे!

और न अब कहना, कि चुप क्यूँ रहते हो....

असह्य सी होती हैं, रातों की चीखें,
अंधियारों में, कौन भला किसी को टोके,
वो चीख, भला कैसे सुन पाओगे!

और न अब कहना, कि चुप क्यूँ रहते हो....

चुप्पी साधे, रहता हूँ मन को बांधे,
कितने गिरह, मन की इस गठरी में डाले,
गाँठें मन की, कैसे छुड़ा पाओगे!

और न अब कहना, कि चुप क्यूँ रहते हो....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Thursday, 4 April 2019

जीवन-मृत्यु

प्रवाह में जीवन के, क्यूँ मृत्यु की परवाह करूँ!

गहन निराशा के क्षण, मुखरित होते हैं दो प्रश्न,
दो ही विकल्प, समक्ष रखता है जीवन?
मृत्यु स्वीकार करूँ, या जीवन अंगीकार करूँ!
जग से प्रयाण करूँ, या कुछ प्रयास करूँ!

जीवन के हर संदर्भ में, पलता है दो भ्रम!
किस पथ है मंजिल, मुकम्मल कौन सी चाहत?
सारांश है क्या? क्यूँ होता है मन आहत?
क्या रखूँ, क्या छोड़ूँ, क्या भूलूँ, क्या याद करूँ?

धुन जीवन के सुन लूँ, या मृत्यु ही चुन लूँ!
संदर्भ कोई आशा के, निराश पलों से चुन लूँ!
गर्भ में मृत्यु के, क्या चैन पाता है जीवन?
उलझाते हैं प्रश्न, इक क्षण मिलती नहीं राहत!

अटल है मृत्यु, पर शाश्वत सत्य है जीवन भी....
मृत्यु के पल भी, जीती है जीने की चाहत!
क्यूँ ना, जीवन जी लूँ, क्यूँ मृत्यु को याद करूँ!
जीवन के साथ चलूँ, जीने की चाह बुनूँ!

प्रवाह में जीवन के, क्यूँ मृत्यु की परवाह करूँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Tuesday, 2 April 2019

वक्त के संग

यूँ! वक्त के संग, थोड़े हम भी गए बदल...

ठहरा कहीं न जीवन, शाश्वत है परिवर्तन,
गतिशील वक्त, हो वन में जैसे हिरण,
न छोड़ता कहीं, अपने पाँवों की भी निशानी,
चतुर-चपल, फिर करता है ये चतुराई,
वक्त बड़ा ही निष्ठुर, जाने कब कर जाए छल!

यूँ! वक्त के संग, थोड़े हम भी गए बदल...

न की थी वक्त ने, कोई हम पे मेहरबानी,
करवटें खुद ही, बदलता रहा हर वक्त,
तन्हाई खुद की, है उसे किसी के संग मिटानी,
सोंच कर यही, रहता वो संग कुछ पल,
फिर मौसमों की तरह, बस वो जाता है बदल!

यूँ! वक्त के संग, थोड़े हम भी गए बदल...

हैं बड़े ही बेरहम, वक्त के ज़ुल्मों-सितम,
चल दिए तोड़ कर, मन के सारे भरम,
यूँ न कोई किसी से करे, छल-कपट बेईमानी,
ज्यूं कर गया है, वक्त अपनी मनमानी,
बिन धुआँ इक आग यह, इन में न जाएं जल!

यूँ! वक्त के संग, थोड़े हम भी गए बदल...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा