Tuesday, 31 December 2019

नववर्ष 2020: एक विचार

प्रिय पाठकगण...

मन थोड़ा भावुक भी है और एक खुशनुमा अनुभव भी महसूस कर रहा हूँ इस वक्त। एक वर्ष, जो हर लम्हा हमारे साथ जिया, खामोशी से अलविदा कहने वाला है ।

बात करूँ, या यूँ खामोश रहूँ?
दरिया था, चुपचाप उसे था बह जाना,
ओढ़ी थी, उसने भी खामोशी,
बंदिशों में, मुश्किल था बंध जाना,
बीत चला, यूँ वर्ष पुराना!

लेकिन, उसकी खामोशी में हमने समाज की कटु विसंगतियों पर दर्द भी महसूस किया है। साथ ही, बहुत सारी उपलब्धियां हमें गर्वान्वित भी कर गई हैं । काश, ये सामाजिक विसंंगतियां हमें शर्मसार न करती।

कब होता है सब वैसा, चाहे जैसा ये मन,
वश में नही होते, ये आकाश, ये घन,
मुड़ जाए कहीं, उड़ जाए कहीं, पड़ जाए कहीं!
सोचें कितना कुछ, हो जाता है कुछ,
उग आते हैं मन में, फिर ये, काश के वन!

काश, हम थोड़ा और धनात्मक हो जाएँ नए वर्ष में और हमारा नजरिया सिर्फ अपना सर्वश्रेेष्ठ देने और सर्वश्रेष्ठ हासिल करने की हो । 

महसूस हो रहा है जैसे ये नया साल, मुस्कुराहट लेकर आनेवाला है।

किसकी है मुस्कुराहट, ये कैसी है आहट!
छेड़े है कोई सरगम, या है इक सुगबुगाहट!
चौंकता हूँ, सुन पत्तियों की सरसराहट!
सुनता हूँ फिर, अंजानी सी आहट!
खुली सी पलकें, हैं मेरी आज!
लगे तन्हाईयों में, कहीं बज रहे हैं साज!
मुस्कुराहटों के, बदले हैं अंदाज!

एक नव-आगन्तुक की तरह, वर्ष 2020 दहलीज लांघने को तैयार है। आइए, सब मिलकर इसका स्वागत करें ।

नव-वर्ष की अग्रिम शुभकामनाओं सहित आप सभी का।   पुरुषोत्तम ।।।।।।।

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
31.12.2019

Monday, 30 December 2019

स्मृति

सघन हो चले कोहरे, दिन धुँध में ढ़ला,
चादर ओढ़े पलकें मूंदे, वो पल यूँ ही बीत चला,
बनी इक स्मृति, सब अतीत बन चला!

कितने, पागल थे हम,
समझ बैठे थे, वक्त को अपना हमदम,
छलती वो चली, रफ्तार में ढ़ली,
रहे, एकाकी से हम!
टूटा इक दर्पण,
वो टुकड़े, संजोए या जोड़े कौन भला!

कल भी है, ये जीवन,
पर दे जाएंगे गम, स्मृति के वो दो क्षण,
श्वेत उजाले, लेकर आएंगी यादें,
बिखरे से, होंगे हम!
सूना सा आंगण,
धुंधली सी स्मृतियाँ, जोहे कौन भला!

छूट चले हैं सारे, वो कल के गलियारे,
विस्मृत करते, वो क्षण, वो दो पल, प्यारे-प्यारे,
सब कुछ है अब, कुछ धुंधला-धुंधला!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 29 December 2019

सांझ सकारे

सांझ सकारे, झील किनारे,
वो कौन पुकारे, जानूं ना, मैं जानूं ना!

मन की गली, जाने कहाँ, मुड़ जाए,
तन ये कहे, चलो वही, कहीं चला जाए,
सांझ सकारे, गली वो पुकारे!

अपने मेरे, मन के, वहीं मिल जाए,
सपन मेरे, शायद वहीं, कहीं खिल जाए,
सांझ सकारे, चाह वो पुकारे!

वो कौन डगर, वो नजर, नहीं आए,
जाऊँ मैं ठहर, जो नजर, वो कहीं आए,
सांझ सकारे, राह वो पुकारे!

रुके जो कदम, तो लगे, वो बुलाए,
चले जो पवन, सनन-सनन, सांए-सांए,
सांझ सकारे, रे कौन पुकारे!

धुंध जो हटे, ये मन, उन्हें ले आए,
पलकों की छाँव, वो गाँव, ढूंढ़ ही लाए,
सांझ सकारे, वो ठाँव पुकारे!

सांझ सकारे, झील किनारे,
वो कौन पुकारे, जानूं ना, मैं जानूं ना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 28 December 2019

मींड़

अक्सर, मेरे ही मींड़ गुनगुनाओगे,
दूर, कहाँ जाओगे!

बिसरे वो, मेरे ही मींड़,
बहा ले आएगी, ये मंद समीर,
मुझको है मालूम, खामोश गजल हो तुम,
भूल चुके, बस हीड़ मेरे,
इक ठहरी सी, चंचल आरोह हो तुम,
अवरोह तलक, लौट आओगे,
झंकार वही, दोहराओगे,
दूर, कहाँ जाओगे!

रह-रह, जाग जाएगी,
बलखाती मूर्च्छनाओं से पीड़,
महसूस मुझे है, गुमसुम सा रहते हो तुम,
हो आहों में, हीड़ भरे,
खामोश लहर, सुरीली स्वर हो तुम,
दर्द भरे, मींड़ मेरे दोहराओगे,
विचलन, सह न पाओगे,
दूर, कहाँ जाओगे!

अक्सर, आरोह मेरे,
सुन कर, रुक जाते हैं समीर,
लगता है जैसे, ऐसे ही ठहर चुके हो तुम,
मुर्छनाओं में, हो घिरे,
गँवाए सुध-बुध, यूँ सुन रहे हो तुम,
बंध कर, फिर लौट आओगे,
यूूँ ही, तुम रुक जाओगे,
दूर, कहाँ जाओगे!

अक्सर, मेरे ही मींड़ गुनगुनाओगे,
दूर, कहाँ जाओगे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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मींड़: (स्त्रीलिंग) का अर्थ:
१. मींड़ने की अवस्था, क्रिया या भाव
२. संगीत में एक स्वर से दूसरे स्वर पर जाते समय मध्य का अंश ऐसी सुन्दरता से कहना कि दोनों स्वरों के बीच का सम्बन्ध स्पष्ट हो जाय

हीड़: (स्त्रीलिंग) का अर्थ:
यह एक प्रकार का प्रबन्ध काव्य है, जो बुन्देल-खंड, मालवे, राजस्थान आदि में गूजर लोग दिवाली के समय गाते हैं

मूर्च्छना: (स्त्रीलिंग) का अर्थ:
संगीत के स्वरों का आरोह-अवरोह

Friday, 27 December 2019

बेर और बैर

बोए थे हमने भी, बेर के बीज!
वृक्ष उगे, हरियाली छाई,
बाग भी, कुछ पल को इतराई,
खुश थे हम, बेर लगेंगे,
खट्टे-मीठे, कुछ हम भी चख लेंगे,
लेकिन, उसने पाले थे काँटे,
दामन में, उसके थे जितने,
सब, उसने बाँटे!

बेर ने, खूब निभाई मुझसे ही बैर!
चलो खैर, समझ ये आई,
न बोना था, ये बेर मुझे ऐ भाई,
कल को ये, दुख ही देंगे,
आते-जाते, बरबस पाँवों में चुभेंगे,
भर ही देंगे ये, राहों में काँटे,
दर्द, पड़ेंगे खुद ही सहने,
गर, उसने बाँटे!

फिर भी, रोप रहे वो थोक में बेर!
सबकी मति, गई है मारी,
फैल गई है, शायद ये महामारी,
बन कर रोग, बैर उगेंगे,
रिश्ते लहु-लुहान, ये काँटे कर देंगे,
बनेंगे, दुःख के कारण काँटे,
बैर मन के, बढ़ेंगे जितने,
विषैले, होंगे काँटे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 26 December 2019

बातें

तड़पाती हैं कुछ बातें, अंदर ही अंदर,
ज्यूँ बहता हो खामोश समुंदर,
वो उठता, उफान लिखूँ,
बहा लाया जो तिनका, कैसे वो तुफान लिखूँ!

कहने को तो, ढ़ेर पड़े हैं जज्बातों के,
अर्थ निकलते दो, हर बातों के,
कैसे वो, दो बात लिखूँ,
उलझाती है हर बात, कैसे वो जज्बात लिखूँ!

मिलन लिखूँ या विरह की बात लिखूँ,
सांझ लिखूँ या लम्हात लिखूँ,
भूलूँ, या दिन-रात लिखूँ,
जज्ब हुए जो सीने में, क्यूँ वो जज्बात लिखूँ!

नम होती हैं आँखें, यूँ सूखते हैं आँसू,
ज्यूँ तपिश में, जलते हैं आँसू,
जलन, या संताप लिखूँ,
तड़पाते ये क्षण, मैं कैसे क्षण की बात लिखूँ!

दिन भर, कैसे जलता है सूरज तन्हा,
वो ही जाने, वो बातें हैं क्या,
वो अगन वो ताप लिखूँ,
रहता वो किस राह, कैसे उसकी चाह लिखूँ!

अगन लिखूँ या जलन की बात लिखूँ,
राख लिखूँ या लम्हात लिखूँ,
भूलूँ, या दिन-रात लिखूँ,
दफ्न हैं जो दिल में, कैसे वो जज्बात लिखूँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 24 December 2019

नया इक वर्ष

हर नई सुबह, नए किरण, सूरज लाएगा,
नव रंगों में, ढ़ल क्षितिज,
नव-सवेरा, लाएगा,
नव आश, नव प्राण, नया वर्ष है लाया!

विषाद हुआ या हर्ष, बीत चला इक वर्ष,
नव अवसर, यह ले आया,
मना लो, खुशियाँ,
इक नव-विहान, इक नया वर्ष है आया!

चमक उठी गलियाँ, छूटी हैं फुलझड़ियाँ,
खिल उठी हैं, ये कलियाँ,
गा उठे, पंछी सारे,
लेकर नव सौगात, नया वर्ष है आया!

जो हैं तृष्णा के मारे, हैं जो खुद से हारे,
क्या बदलेगे, वो बेचारे?
जागेंगे, वो सतर्ष?
संभावनाएं अपार, नया वर्ष है लाया!

जगाएगी ये प्यास, तू करले कुछ प्रयास,
कर स्वीकार, हार सहर्ष,
शुरू कर, नव-संघर्ष,
तज मन के विषाद, नया वर्ष है आया!

अचम्भित हूँ, देख कर इनकी निरंतरता,
अंतहीन पथ, यह चलता,
बिन थके, बिन रुके,
मन में प्रवेश किए, नया वर्ष है आया!

मन के पार, वो दस्तक दे रहा द्वार-द्वार,
वो कहता, जी ले हर पल,
राह नई, इक चल,
खुद को ले पहचान, नया वर्ष है आया!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

नववर्ष 2020  की शुभकामनाओं सहित

Monday, 23 December 2019

वर्ष पुराना

 
क्या कहूँ, किसकी राह तकूँ?
पृष्ठ पलटता, गुजर चुका है वर्ष पुराना,
रच कर, इक अलग पृष्ठभूमि,
निर्मित कर, गुजरा सा इक जमाना,
बीत चला, वो वर्ष पुराना!

बात करूँ, या यूँ खामोश रहूँ?
दरिया था, चुपचाप उसे था बह जाना,
ओढ़ी थी, उसने भी खामोशी,
बंदिशों में, मुश्किल था बंध जाना,
बीत चला, यूँ  वर्ष पुराना!

क्या कहूँ, किसकी बात करूँ?
वो क्षण था, हर पल था ढ़लते जाना,
डूबते हर क्षण, साँसें थी रूँधी,
मुश्किल था, हर वो क्षण भूलाना,
बीत चला, जो वर्ष पुराना!

रंज सहूँ, या यूँ रंजिशों में रहूँ?
मन कहता, असहज सा है उसे भुलाना,
अब तक रुका, मैं वहीं कहीं,
कैसे भूल जाऊँ, वो संगीत सुहाना,
बीत चला, जो वर्ष पुराना!

थाम लूँ, हाथों में ये जाम लूँ,
दिल कहता, फिर आएगा वो जमाना,
रची थी, उसने ही ये पृष्ठभूमि,
वो जानता है, पृष्ठों में ढ़ल जाना,
बीत चला, जो वर्ष पुराना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
नववर्ष 2020 की शुभकामनाओं सहित

Thursday, 19 December 2019

कैसा जीवन

उड़ चले कहीं, डाल के पंछी सारे!

कल तक थे, घौसले हर डाल पर,
चहकते थे वो चूजे, पंछी की हर बात पर,
मुस्कान पंछी की थी निराली,
झूल जाती थी, किलकारियों से डाली,
गुम हो चले, वो गूंज सारे!

उड़ चले कहीं, डाल के पंछी सारे!

विलीन हो चले , वो विहँसते पल,
स्वर-विहीन हुए, वो कलकल से हलचल,
दीन-हीन, हो चली है डाली,
सुर-विहीन हो चली, सुबह की लाली,
बिखर गए, वो गीत सारे!

उड़ चले कहीं, डाल के पंछी सारे!

सिर्फ तिनकों के, बचे अवशेष,
टूटी पंखुड़ी सी, बिखरी हैं कुछ यादें शेष,
रिक्त सी, लग रही वो डाली,
कुछ सिक्त सी, हो चली है हरियाली,
बदले हैं, वो संगीत सारे!

उड़ चले कहीं, डाल के पंछी सारे!

अनबुझ सा, ये कैसा है जीवन,
मिलन के हैं दो पल, उम्र भर है विछड़न,
टूटती है यूँ ही, दिल की डाली,
क्यूूँ छूटती है मेहंदी, उतरती है लाली,
बदल जाते हैं, रंग सारे!

ज्यूँ उड़ते हैं, डाली के पंछी सारे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 16 December 2019

बिखरो न यूँ

बिखरो न यूँ, मन के मनके, चुनो तुम,
चलो, सपने बुनो तुम!
सँवार लो, अपनी ही रंगों में,
ढ़ाल लो, हकीकत में, इन्हें तुम!

सपने ही हैं, गर टूट भी जाएँ तो क्या,
नए, सपने गुनो तुम!
उतर कर, निशा की छाँव में,
तम की गाँव के, तारे चुनो तुम!

बसे हैं इर्द-गिर्द, तुम्हारे सपनों के घर,
घर, कोई चुनो तुम!
बसा लो, इन्हें अपने नैन में,
बिखरे पलों को, समेट लो तुम!

या हों बिखरे, या चाहों मे रहे पिरोए,
उन्हीं की, सुनो तुम!
बिखर कर, स्वाति बूँदों में,
गगन से आ, सीप में गिरो तुम!

वस्तुतः, है अन्त ही, इक नया आरंभ,
पथ, अनन्त चुनो तुम!
राहें, बदल जाते हैं, मोड़ में,
हर छोड़ में, खुद से मिलो तुम!

बिखरो न यूँ, मन के मनके, चुनो तुम,
चलो, सपने बुनो तुम!
निराशा के, डूबे से क्षणों में,
नींव, आशा की, नई रखो तुम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 12 December 2019

हर पात पर

हर पात पर, शायद कोई पैगाम लिख रहा है,
न जाने ये क्या, शाम लिख रहा है!

ज्यूँ, बुलाता है वो, मन को टटोलकर,
यूँ सरेशाम, लौट आते हैं वो पंछी डोलकर,
चहकती है शाम, ज्यूँ बिखरे हों जाम,
बातें तमाम, उनके ही नाम लिख रहा है,
जाने, ये शाम क्या लिख रहा है!

हर पात पर, शायद कोई पैगाम लिख रहा है,
न जाने ये क्या, शाम लिख रहा है!

गुनगुनाते हैं पवन, फूलों से बोलकर,
कैसे मन को बांधे, क्यूँ ना रख दे खोलकर,
बिखेरे हैं लाल रंग, किरणों ने तमाम,
सिंदूरी राज, वो क्या आज लिख रहा है,
जाने, ये शाम क्या लिख रहा है!

हर पात पर, शायद कोई पैगाम लिख रहा है,
न जाने ये क्या, शाम लिख रहा है!

पात-पात रंगे गुलाल, कैसे डोलकर,
हर पात पर लिखी है, बात कुछ बोलकर,
ऐ शाम, कर दे जरा कुछ बातें आम,
क्यूँ चुपचाप, खत गुमनाम लिख रहा है,
जाने, ये शाम क्या लिख रहा है!

हर पात पर, शायद कोई पैगाम लिख रहा है,
न जाने ये क्या, शाम लिख रहा है!

आएंगे वो, पढ़ ना पाएंगे बोलकर,
कुछ कह भी न पाएंगे, वो मुँह खोलकर,
लबों से कह भी दे, तू किस्से तमाम,
बयाँ क्यूँ, आधी ही हकीकत, कर रहा है,
जाने, ये शाम क्या लिख रहा है!

हर पात पर, शायद कोई पैगाम लिख रहा है,
न जाने ये क्या, शाम लिख रहा है!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 8 December 2019

ये सांझ कैसे

बीत जाते हैं, न जाने ये वक्त कैसे!
अभी तो, सुबह थी, ये नई जिन्दगी की,
सिमट आई, आँखों में सांझ कैसे?

कल-कल बही थी, इक धार सी ये!
अभी तो, शुरुआत थी, इक प्रवाह की,
रुकने लगी, अभी से ये धार कैसे?

लेनी थी अभी , चैन की चँद साँसें!
अभी तो, पहली थी, साँस एहसास की,
सिमटने लगी, है ये एहसास कैसे?

विस्मृत कर गई थी, यूँ ये क्षितिज!
फैली थी, अभी तो, ये किरण भोर की,
छाने लगी, अभी से ये रात कैसे?

सिमटते हैं कैसे, प्रबल से प्रवाह ये!
अभी तो, उत्थान थी, ये इक प्रवाह की,
रुकने लगी, अभी से प्रवाह कैसे?

समेटा है किसने, आँचल गगन से!
सजी थी, अभी तो, गगन ये दुल्हन सी,
हुई बेरंग, गगन ये आज ही कैसे?

जगते ही चाह, छूट जाते हैं ये राह!
अभी था जीवन, अब है परवाह इसकी,
बदलते रहे, ये जीवन के राह कैसे!

बीत जाते हैं, न जाने ये वक्त कैसे!
अभी तो, सुबह थी, ये नई जिन्दगी की,
सिमट आई, आँखों में सांझ कैसे?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

एक लम्हा नहीं

एक लम्हा नहीं, उम्र भर की है ये बात,
तेरी मेरी, अनकही सी है ये बात!

तुझ में कहीं, करता हूँ खुद की तलाश,
गुजरा था कहीं, तुझ से ही होकर,
परवाह किसे, थी कहाँ राहों में ठोकर!
रोक लेते, तुम एक पल ही काश,
समेट लाता, मैं अधूरा सा ये आकाश!

सपने ही रहे, थी जो सपनों की बात,
तेरी मेरी, अनकही सी है ये बात!

सब कुछ तो है, पर कहीं कुछ भी नहीं,
हर रंग में है, उस रंग की ही कमी,
खोई है महफिल, खामोश है ये गजल!
धुन कोई, छेड़ देते तुम जो काश,
सज ही उठते तराने, गूँजते ये आकाश!

थमा सा है लम्हा, थमी सी है ये बात,
तेरी मेरी, अनकही सी है ये बात!

हर शै में है, इक तेरे झलक की कमी,
सूनी हैं पलकें, आँखों में है नमीं,
हो चला है बोझिल, लम्हों का सफर!
होते जो हमसफर, तुम ही काश,
समेट लाता, मैं अधूरा सा ये आकाश!

एक लम्हा नहीं, उम्र भर की है ये बात,
तेरी मेरी, अनकही सी है ये बात!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 5 December 2019

लचकती शाखें

अनसुने ये गीत मेरे, तु जरा गुनगुना..

अनकहा वही, जो है अनसुना,
आवाज मेरी, जो न अब तलक बना,
गीत ये मेरे, तू जरा गुनगुना...

लचकती शाख सी, मन में रही,
डोलती हर बात पर, चुपचाप सी रही,
बाहें थाम कर, तू इसे मना...

राज ये कौन सा, गीत में ढ़ला,
साज ये कौन सा, इक संगीत में ढ़ला,
आवाज दे, तू जरा गुनगुना....

थिरका ये, समय की चाल पर,
रोता फिरा कभी ये, मेरे इस हाल पर,
नग्मा कोई, तू मुझको सुना..

लचकती हैं, रूँधी सी ये साँसें,
मचलती शाख सी, झूलती है ये साँसें,
आ संग-संग, तू इसे गुनगुना..

फिर न आएंगे, लौट कर हम,
न जाने कहाँ, किधर खो जाएंगे हम,
रह जाए न, गीत ये अनसुना..

अनसुने ये गीत मेरे, तु जरा गुनगुना..

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)