और कुछ तो नहीं, संग मेरे.....
पुराने कुछ पल, सिमटे हैं तेरे खत में,
घुंघरुओं सी, बजती लिखावटें,
अब भी, करती हैं बातें,
कभी कोई जिद,
और कभी, कोई जिद न करने की कस्में,
निभ न पाई, जो, वो रस्में,
कुछ भी नहीं, वश में!
बह जाता हूँ, अब भी उसी पल में.....
और कुछ तो नहीं, संग मेरे.....
इक मेरा वश, खुद ही नहीं, वश में,
एक मेरा मन, है कहाँ संग में,
भटके, कोई बंजारा सा,
जाने कौन दिशा,
ढ़ल चले, जीवन के रंग, ढ़ल चली निशा,
धूमिल हुई, सारी कहकशाँ,
ढ़ूँढ़ता, उनके ही निशां,
बह जाता हूँ, अब भी उसी छल में.....
और कुछ तो नहीं, संग मेरे.....
धुंधलाने लगे हैं, अब वो सारे मंज़र,
तुम्हारी खत के, वो सारे अक्षर,
पर हुए, मन पे टंकित,
तेरे शब्द-शब्द,
तन्हा पलों को, वो कर जाते हैं निःशब्द,
और गूंजते हैं, वो ही शब्द,
महक उठते हैं, वो पल,
बह जाता हूँ, अब भी उसी कल में.....
और कुछ तो नहीं, संग मेरे.....
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" रविवार 18 जुलाई 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteहार्दिक आभार
Deleteसुन्दर
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद सर
Deleteबहुत सुंदर रचना 🌹
ReplyDeleteविनम्र आभार आदरणीया
Deleteहृदय स्पर्शी भाव, सुन्दर रचना!!
ReplyDeleteविनम्र आभार आदरणीया
Delete"बह जाता हूँ, अब भी उसी छल में....." .. क़ुदरत कुछ ऐसा करे कि .. ख़त पर टंकित, मन पर अंकित .. मन के ये व्याकुल उद्गार उन बदनसीब छलिया मायाविनी तक भी पहुँचे .. बस यूँ ही ...
ReplyDeleteविनम्र आभार आदरणीय
Deleteपुराने कुछ पल, सिमटे हैं तेरे खत में,
ReplyDeleteघुंघरुओं सी, बजती लिखावटें,
अब भी, करती हैं बातें,
कभी कोई जिद,
और कभी, कोई जिद न करने की कस्में,
वाह !! बहुत खूब....सादर नमन
विनम्र आभार आदरणीया
Deleteमन के भावों को अंकित कर दिया । सुंदर सृजन
ReplyDeleteविनम्र आभार आदरणीया
Deleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteविनम्र आभार आदरणीया
Deleteबहुत सुंदर रचना आदरणीय पुरुषोत्तम जी |पत्र हमारे जीवन का सबसे खुबसुरत सरमाया होते हैं | और उसमें लिखी इबारत मन के बहुत करीब होती है | एकांत में यादों के महकते पल खुद बखुद संवाद करते हैं | भावपूर्ण स्मृतियों को संजोती रचना के लिए हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई |
ReplyDeleteअभिनन्दन व विनम्र आभार आदरणीया रेणु जी।
Deleteबहुत सुंदर रचना आदरणीय।
ReplyDeleteविनम्र आभार आदरणीया
Deleteऐसा लग रहा है पुरुषोत्तम जी कि अब आप क़लम से नहीं, दिल से लिख रहे हैं और सियाही की जगह अश्कों का इस्तेमाल हो रहा है। ऐसे अशआर सिर्फ़ एक जज़्बाती दिल की तलहटी से ही उठ सकते हैं - यादों की धुंध में लिपटे हुए।
ReplyDeleteआदरणीय जितेन्द्र जी, इन्द्रियों को वश में कौन रख सका है? कौन परे है अपनी परछाईयों से? इनसे बाहर निकलना इतना आसान भी तो नहीं!
Deleteबस, शब्दों का ही सहारा है।
आपके प्रेरक शब्दों व बेहतरीन प्रतिक्रिया हेतु हृदयतल से आभारी हूँ। ।।।।