वक्त संग, तुम ढ़ल ही जाओगे,
कब तलक, आईनों में, खुद को छुपाओगे!
वक्त की, खुली सी है ये विसात,
शह दे, या, कभी दे ये मात,
इस वक्त से, यूं न जीत पाओगे,
कभी हारकर भी, ये बाजी, जीत जाओगे!
दिन-ब-दिन, ढ़ल रहा, ये वक्त,
राह भर, ये मांगती है रक्त,
धार, वक्त के, ना मोड़ पाओगे,
रहगुजर, इस वक्त को ही, तुम बनाओगे!
छल जाएगा, कल ये आईना,
बदल जाएगा, ये आईना,
छवि, इक, अलग ही पाओगे,
वक्त की विसात पर, यूं ढ़ल ही जाओगे!
उसी शून्य में, कभी झांकना,
कल का, वो ही आईना,
वक्त के वो पल, कैद पाओगे,
वो आईना, चाहकर भी न तोड़ पाओगे!
वक्त संग, तुम ढ़ल ही जाओगे,
कब तलक, आईनों में, खुद को छुपाओगे!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार(२४-१२ -२०२१) को
'अहंकार की हार'(चर्चा अंक -४२८८) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत बहुत धन्यवाद
Deleteवाह ♥️
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद
Deleteहकीकत को बयां करती बहुत ही बेहतरीन रचना...
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद
Deleteबहुत सुंदर रचना।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद
Deleteभावपूर्ण रचना है ...
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद
Deleteछल जाएगा, कल ये आईना,
ReplyDeleteबदल जाएगा, ये आईना,
छवि, इक, अलग ही पाओगे,
वक्त की विसात पर, यूं ही ढल जाओगे
बहुत ही सुंदर , दर्शन से भरपूर
बहुत बहुत धन्यवाद
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