पलट आईं, यूँ उनकी अनुभूतियों के पल,
सूनी सी, दहलीज पर,
स्मृतियां, खटखटाने लगी सांकल!
यूँ कल, कितने, विखंडित थे वो पल,
न था, अन्त, अनन्त तक,
बस इक, टिमटिमाता सा एहसास,
जरा सी चांदनी,
और, दूर तलक, बिखरा सा आकाश,
यूँ ही, अचानक,
संघनित हो उठी, स्मृतियां,
बरस पड़े बादल!
छूकर, बह चली, इक अल्हड़ पवन,
यूँ, बज उठे, सितार सारे,
लरज उठी, कूक सी कोयलों की,
गा उठे, पल,
थिरकने लगे, उनकी पांवों के पायल,
यूँ ही, छनन-छन,
भूल कर राहें, यह पथिक,
जाए, वहीं चल!
ये कैसी तृप्ति, ये कैसी आत्ममुग्धि!
मंत्रमुग्ध हो, एक प्यासा,
बिन पिये ही, ज्यूं पी चुका सुधा,
सदियाँ जी चुका,
उस गगन पर, एक हारिल उड़ चला,
स्वप्न ही बुन चला,
यूँ ही, कहीं ना, टूट जाए,
ख्वाबों के महल!
पलट आईं, यूँ उनकी अनुभूतियों के पल,
सूनी सी, दहलीज पर,
स्मृतियां, खटखटाने लगी सांकल!
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