Tuesday, 28 June 2022

ढ़लती शाम


बोलो ना, नैन तले, कैसे ढ़ल जाती है शाम!

ढ़लते वक्त का आँचल, कौन लेता है थाम!
क्षितिज पर, थककर, कौन हो जाता है मौन!
शायद, घुल जाती हैं, दो नैनों में काजल!
और, क्षितिज पर, घिर आता है बादल,
वक्त सभी, हो जाते हों, बिंदिया के नाम!

बोलो ना, नैन तले, कैसे ढ़ल जाती है शाम!

कदम-ताल करते, कैसे, थम जाते हैं वक्त!
बहते रक्त, नसों में, बरबस, क्यूं होते हैं सुन्न!
शायद, भाल पर, चमक उठते हैं गुलाल!
क्षितिज पर, बिखर जाते हैं सप्त-रंग,
और काजल, कर जाती हों, काम तमाम!

बोलो ना, नैन तले, कैसे ढ़ल जाती है शाम!

महज, संयोग नहीं, यूं, दिवस का ढ़लना!
यूं, पल से पल का मिलना, पल-पल ढ़लना!
शायद, आरंभ तुम हो, अंत तुम ही तक!
नैनों में काजल, बहता हो तुम्हीं तक,
बीत चला, फिर ये लम्हा बस तेरे ही नाम! 

बोलो ना, नैन तले, कैसे ढ़ल जाती है शाम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 24 June 2022

मनमीत वो ही


गुम हो, तुम कहीं,
पर तेरी परछाईयां, थी अभी तो यहीं,
तुम, गुम तो नहीं!

ज्यूं पर्वतों के दायरों में, एक खाई,
तलहटों में, सागरों के, दुनिया इक समाई,
लगती, अनबुझ सी इक पहेली,
अन-सुलझी, अन-कही,
यूं, तुम हो कहीं!

मुड़ गए कहीं उधर, मन के सहारे,
दूर, जाने किस किनारे, बिखरे शब्द सारे, 
चुन कर, लिख दूं, गीत वो ही,
बुन लूं, मनमीत वो ही,
वो, गुम ही सहीं!

रख लूं बांध कर, सब से चुरा लूं,
खुद को मना लूं, पर ये मन कैसे संभालूं,
ढूंढ लूं, फिर वही, परछाईयां,
फिर, वो ही, तन्हाईयां,
यूं, तुम संग कहीं!

गुम हो, तुम कहीं,
पर तेरी परछाईयां, थी अभी तो यहीं,
तुम, गुम तो नहीं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 15 June 2022

बिसारिए ना


बिसरिए ना, न बिसारने दीजिए,
गांठ, मन के बांधिए,
इधर जाइए!

यूं नाजुक, बड़े ही, ये डोर हैं,
निर्मूल आशंकाओं के, कहां कब ठौर हैं,
ढ़ल न जाए, सांझ ये,
दिये, उम्मीदों के,
इक जलाइए!

बिसरिए ना, न बिसारने दीजिए,
गांठ, मन के बांधिए,
आ जाइए!

धुंधली, हो रही तस्वीर इक,
खिच रही हर घड़ी, उस पर लकीर इक,
सन्निकट, इक अन्त वो,
जश्न, ये बसन्त के,
संग मनाईए!

बिसरिए ना, न बिसारने दीजिए,
गांठ, मन के बांधिए,
आ जाइए!

बिसार देगी, कल ये दुनियां,
एक अंधर, बहा ले जाएगी नामोनिशां,
सिलसिला, थमता कहां,
वक्त ये, मुकम्मल,
कर जाईए!

बिसरिए ना, न बिसारने दीजिए,
गांठ, मन के बांधिए,
आ जाइए!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 1 June 2022

शक


बेशक दुश्मन बड़ा, मन इक शक भरा!

उस मन, पल न सका इक पौधा विश्वास का,
भरोसे का, उग न सका, इक बीज,
शक, बेशक बांझ करे मन को,
डसे, पहले खुद को,
फिर, रह-रह, दे मन को दर्द बड़ा!

बेशक दुश्मन बड़ा, मन इक शक भरा!

उजड़ी, फुलवारी, कितनी ही, मन की क्यारी,
मुरझाए, आशाओं के, वृक्ष सभी,
बिखर चले, मन उप-वन सारे,
सूख चली, वो नदी,
जो सदियों, पर्वत के, शीश चढ़ा!

बेशक दुश्मन बड़ा, मन इक शक भरा!

सशंकित मन, विचरे निर्मूल शंकाओं के वन,
पाले, बर-बस, निरर्थक आशंका,
विराने, पथ पर, घन में घिरा,
ढूंढ़े, अपना ही पग,
अनिर्णय के, उन राहों पर खड़ा!

बेशक दुश्मन बड़ा, मन इक शक भरा!

निर्मल इक संसार, इस, बादल के उस पार,
बहती है, शीतल सी, एक पवन,
शक के बादल, उड़ जाने दे,
मन, जुड़ जाने दे,
टूट न जाए शीशा, विश्वास भरा!

बेशक दुश्मन बड़ा, मन इक शक भरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)