यूं ढ़ले दिन, ज्यूं उभर आए,
रात के साए....
चुप से रहने लगे, गुनगुनाते से वे पल,
खुद में खोए, इठलाते से वो पल,
बड़े बेरंग से, लगने लगे,
रंगी ये साए....
और अब मिलते नहीं, कहीं सांझ के साए..
ढूंढ़ता हूं कहीं, दरकता सा वो लम्हा,
जाने है कहां, पिघलता वो शमां,
कहीं, नज़रों से ओझल,
वक्त के साए....
और अब मिलते नहीं, कहीं सांझ के साए..
यूं, कल्पनाओं में, उभर आते हैं वही,
रंग वे सारे, बिखर जाते हैं कहीं,
जाग उठते, हैं वे पहर,
और वे साए....
और अब मिलते नहीं, कहीं सांझ के साए,
यूं ढ़ले दिन, ज्यूं उभर आए,
रात के साए....