तैरती नींद में, धुंधली सी, लकीरें,
फिर उभर आई, वही भूली सी तस्वीरें!
अधर उनके, फिर, छंद कई लिखती गई,
यूं कहीं, अधख़िली सी, चंद कली खिलती गई,
सिमट आए, ख्वाब सारे, बंद पलकों तले,
उभरती रहीं, नींद में, तैरती लकीरें!
शक्ल वो ही पहचानी, लेती रही आकार,
यूं, बंद पलकों तले, धुंधले से, स्वप्न थे साकार,
फिर, धागे वो ही, मोह के स्वतः बंध चले,
ले चली किधर, उभरती वो तस्वीरें!
घिरा अंकपाश में, न कोई आस-पास में,
जड़वत देखता रहा, मैं उनको ही अंकपाश में,
गुजारी पल में सदियां, उस छांव के तले,
बहला गई, नींद में, उभरती लकीरें!
टूटा वो दिवास्वप्न, टूटे सब वो झूठे भ्रम,
ढ़ाए थे नींद ने, दिल पे, बरबस, सैकड़ों सितम,
ख्वाब सारे, बिखर गए, इन पलकों तले,
उभर कर, बिखर गई, तैरती लकीरें!
शुक्रिया करम, नींद के ओ मीठे से भ्रम,
वहम ही सही, पल भर, जीवन्त कर गए तुम,
ग़म से कोसों दूर, हम कहीं, संग थे चले,
छल गई भले, धुंधली सी वो लकीरें!
खुली आंख, बहती स्वप्न की नदी कहां!
ग़म से बोझिल पल बिना, बीतती सदी कहां!
पड़ जाती यहां, दिन में, छाले पावों तले,
गर्म सी रेत पर, बनती कहां लकीरें!
तैरती नींद में, धुंधली सी, लकीरें,
उभर आई फिर, वही भूली सी तस्वीरें!

आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द सोमवार 08 दिसंबर , 2025 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!
ReplyDeleteसुंदर
ReplyDeleteअतिसुंदर
ReplyDeleteबेहतरीन रचना
ReplyDeleteसुंदर
ReplyDeletebahut sunadr rachna hai sach me dil ko chu liya
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