Friday, 29 January 2016

नेह निमंत्रण

हे प्रिय, तुम मेरे हृदय का नेह निमंत्रण ले लो!

मेरा हृदय ले लो तुम प्रीत मुझे दे दो,
स्वप्नमय नैनों में मुग्ध छवि सी बसो,
स्मृति पलकों के चिर सुख तुम बनो।

हे प्रिय, तुम मेरा प्रीत निवेदन सुन लो!

मैं पाँवो की तेरे लय गति बन जाऊँ,
प्राणों मे तुझको भर गीत बन गाऊँ
तेरी चंचल नैनों का नींद बन जाऊँ।

हे प्रिय, तुम नैन किरण आमंत्रण सुन लो!

तूम जीवन की नित उषा सम उतरो,
मेरी परछाई बन रजनी सम निखरो,
चिर जागृति की तू स्वप्न सम सँवरो।

हे प्रिय, तुम अधरों का गीत तो सुन लो!

मैं सृष्टि प्रलय तलक तेरा संग निभाऊँ,
तेरी अधरों का अमृत पीकर इठलाऊँ,
तुझ संग सृष्टि वीणा का राग दुहराऊँ।

हे प्रिय, मेरे भावुक हृदय का नेह निमंत्रण स्वीकारो!

ईश्वर विनती

हे ईश्वर, मेरी इतनी अभिलाषा पूरित कर!
हे ईश्वर, बस विनती तू मेरी सुन ले!

स्वर्गिक स्पर्शो का मै अनुरागी,
हर्ष विमर्शों का मैं प्रेमी,
मधुर स्मृतियों की क्षण का मैं याचक।

हे ईश्वर, बस इतनी चाह मेरी पूरी कर!

उज्जवल क्षण का अभिलाषी,
निश्चल अंतर्हृदय का वासी,
महत् कर्म मधुरगंध का मैं याचक।

हे ईश्वर, बस मेरी वीणा को तू स्वर दे!

चमकीले आडंबर का बैरागी,
नैसर्गिक धन का मैं प्रेमी,
अंतर के स्वर वीणा का मैं वादक।

हे ईश्वर, बस विनती तू मेरी सुन ले!
हे ईश्वर, बस मेरी इतनी अभिलाषा पूरित कर!

मधुर स्मृति स्पर्श अनुराग

मधुर स्मृति स्पर्श अनुराग छू जाते अंतर के स्वर!

मैं प्रेमी जीवन के स्वर्गिक स्पर्शो का, 
मै अनुरागी जीवन के हर्ष विमर्शों का,
मैं प्रेमी विद्युत सम मधुर स्मृतियों का।

शीतल उज्जवल अनुराग छू जाते अंतर के स्वर!

उज्जवलता दूँ मैं जीवन भर जलकर,
निश्चल बस जाऊँ हृदय संग चलकर,
अंबर की धारा से उतर आऊँ भू पर।

महत् कर्म मधुरगंध छू जाते अंतर के स्वर!

उच्च उड़ान भर लूँ मैं महत् कर्म कर,
त्याग दूँ जीवन के चमकीले आडंबर,
पी जाऊँ मधुरगंध साँसों में घोल कर।

मधुर स्मृति स्पर्श अनुराग छू जाते अंतर के स्वर!

निःस्वार्थ

चिलचिलाती सी धूप में,
निहारता किसी छाँव की ओर,
देख विशाल एक वटवृक्ष,
बढ पड़े कदम उस ओर।

विश्राम कुछ क्षण का मिला,
मिली चैन की छाँव भी,
कुछ वाट वटोही मिले,
हुई कुछ मन की बात भी।

मंद हवा के चंद झौंके मिले,
कांत हृदयस्थल हुआ,
कुछ अनोखे भाव जगे,
प्रश्न अनेंकाें फिर मन में उठे।

विशाल वटवृक्ष महान कितना,
ताप धूप की खुद सहकर,
निःस्वार्थ छाँव पथिक को दे गया,
शीतल तन को कर मन हर ले गया।

पटकथा

किसने लिखी है पटकथा जिन्दगानी की,
ये कैसी है कथा अन्त जिसका पता नहीं,
दौड़ते हैं सब यहाँ मंजिलों के निशाँ नहीं,
पलकें हैं खुली हुई पर दृष्टि का पता नहीं।

एक दूसरे के ही हम दुश्मन सभी बने हुए,
लड़ रहे खुद से ही निज स्वार्थ में घिरे हुए,
कथा है ये कौन सी हम अंजान इससे हुए,
जिसने रची पटकथा, अन्तर्धान स्वयं हुए।

Thursday, 28 January 2016

पुरुष हूँ रखता हूँ पुरुषार्थ

पुरुष हूँ रखता हूँ पुरुषार्थ,
पुरुषोत्तम हूँ निभाता हूँ अपना धर्म,
भरम वादा का मैं तोड़ सकता नही,
ढूँढ लेना मुझे जीवन के उस मोड़ पर कहीं।

पुरुष हूँ, पुरुषोत्तम हूँ निभाऊंगा अपना धर्म सभी।

मिलना तुम उस मोड़ पे जीवन के वहाँ,
राहें उम्मीदों के सारे छूट जाते हैं जहाँ,
सूझता नही जब कुछ हाथों को,
आँखें की पुतलियाँ भी थक जाती हैं जहाँ।

पुरुष हूँ, पुरुषोत्तम हूँ निभाऊंगा अपना धर्म वहाँ।

इन्तजार करता मिलूँगा तुमको वहीं,
राहे तमाम गुजरती हो चाहे कही,
शिथिल पड़ जाएं चाहें सारी नसें मेरी,
दामन छूटे सासों का या लहु प्रवाह थक जाए मेरी।

पुरुष हूँ, पुरुषोत्तम हूँ निभाता हूँ अपना धर्म सभी।

पुकारता क्षितिज

खुलता हुआ वो क्षितिज,
मन के सन्निकट ही कहीं,
पुकारता है तुझको बाहें पसारे।

तिमिर सा गहराता क्षितिज,
हँसता हैं उन तारों के समीप कहीं,
पुकारता अपने चंचल अधरों से ।

मधुर हुए क्षितिज के स्वर,
मध टपकाते उसके दोनो अधर,
हास-विलास करते काले बालों से।

आ मिल जा क्षितिज पर,
कर ले तू भी अपने स्वर प्रखर,
तम क्लेश मिट जाए सब जीवन के।

मान लो मेरा कहा

तुम मान लो आज मेरा कहा!

गीत कोई प्रीत का,
गुनगनाऊँ तेरे संग आज चल,
तार तेरे हृदय का,
छेड़ जाऊँ आज तू साथ चल।

आ चलें उन मंजिलों पर,
गम के बादल न पहुँचते हों जहाँ,
संग दूर तक चलते रहें,
अन्त रास्तों के न मिलते हों जहाँ।

मान लो तुम मेरा कहा,
संगीत की धुन तू इक नई बना,
लय, सुर, ताल कुछ मैं भरूँ,
नया तराना रोज तू मुझको सुना।

अब मान लो तुम मेरा कहा!

खुशियों के क्षण

छंद बिखरे क्षणों के अब बन गए है गीत मेरे!

बिखर गई हैं आज हर तरफ खुशियाँ यहाँ,
सिमट गए हैं दामन में आज ये दोनो जहाँ,
खोल दिए बंद कलियों ने आज घूँघट यहाँ,
खिल गए हैं अब मस्त फूलों के चेहरे यहाँ।

गुजरकर फासलों से अब मिल गई मंजिल मेरी।

शूल यादों के सभी फूल बनकर खिल गए,
सज गई महफिलें हम और तुम मिल गए,
थाम लो मुझको यारों आज वश में मै नही,
मस्त आँखों से सर्द जाम पी है मैनें अभी।

लम्हों के इन कारवाँ में गुजरेगी अब जिन्दगी मेरी।

भटकता मन

निज मन तू क्युँ रत बहलावे में नित दिन!

मन तू सच क्युँ न बोलता?
जीवन का दर्पण दिखा मुँह क्युँ फेरता?
तू ही तो मेरा इक निज है,
दर्पण तू ही दिखलाता जीवन को,
फिर तू क्युँ छलता रहता है मुझको?

निज मन तू क्युँ भटकता रहता नित दिन!

चंचल सा चितवन तेरा,
एकाग्रचित्त तू कभी रह नही सकता,
समझेगा तू मेरी दुविधा कैसे?
तू मेरा अपना पर तू मुझको ही छलता,
मन तू इतना क्युँ बोलता?

निज मन तू किस भुलावे में रहता नित दिन?