Friday, 12 February 2016

अमरत्व गरल अश्रुधार!

तुम अविरल अश्रुधार पोछ नही पाओगी!

एक अश्रु-धार नभ से होकर आती,
रुकती कहाँ सुनती कहाँ ये मन की,
निर्झर सी बस आँखों से बह जाती।

तुम अश्रुओं की भाषा पढ़ नही पाओगी!

अश्रु-धार बन कहती प्रेम की भाषा,
वेदना हृदय के आँखों से कह जाती,
थम जाती नैनों में ओस की बुंदों सी।

तुम कोलाहल अश्रुधार की सुन नही पाओगी!

सजते नैन सजल अश्रुधार अविरल,
सागर मंथन से ज्यों निकलता गरल,
हलाहल मन में क्यूँ जब नैन सजल?

तुम मंथन गरल नैनों की पी नही पाओगी!

नैन गरल पीकर अमरत्व पा जाऊँ,
सजल नैन नित्य अश्रुधार ले आऊँ,
निर्झर नैनों में प्रीत सदा भर जाऊँ।

तुम अमरत्व नैन गरल की पा नही पाओगी!

नभ की सुन लो, नभ संग तुम भींग लो!

तुम नभ की सुन लो, जरा सा नभ संग तुम भींग लो!

उमड़-घुमड़ नभ आते तुझसे मिलने,
लटें घुँघराली पुकारती हैं आकाश से,
नभ मंडल गूंजित करती आवाज से,

नभ की गर्जना सुन लो, नभ संग तुम भी भींग लो!

मंद मंद फाहा सी गिर रही बूंदे नभ से,
कण कण धरा की भीग रहे हैं बूंदों से,
तुम भी पीड़ हृदय के बूंदों संग धो लो,

नभ की साधना सुन लो, नभ संग तुम भी भींग लो!

है वो कौन सी पीड़ जो है नभ से भारी,
नभ नीर से सागर की प्यास बुझ जाती,
विचर रही नभ यहाँ भिगोने तुमको ही,

नभ की वेदना सुन लो, नभ संग तुम भी भींग लो!

उधर लताओं संग भीग रहे हैं पत्ते पत्ते,
फूल भीगी संग सारे कलियाँ भी भींगे,
नभवृष्टि प्रेम में हृदय के तार तार भींगे,

नभ की प्रेमलीला सुन लो, नभ संग तुम भी भींग लो!

अवसाद में जन्मदिन

क्षण क्षण उम्र बढ़ रही है अवसान को,
 यह जन्मदिन जन्म दे रही अवसाद को।

अब तो प्रहर सांझ की ढलने को आई,
 मुझसे मीलों पीछे छूटी है मेरी तरुणाई।

मनाऊँ कैसे जन्मदिन इस उम्र में अब,
तार वीणा के सुर में बजते नही है अब।

मृदंग के स्वर कानों में गूंजते नहीं अब,
तानपूरे की उम्र ही ढल गई मानो अब।

केक मिठाई तो बन चुके है मेरे दुश्मन,
जन्मदिन मनाने का अब रहा नहीं मन।

Thursday, 11 February 2016

मेरी साधना

गीत मैं वो गा न सका, क्या कभी गा पाऊंगा?

सदियों साधना की उस संगीत की,
अभिमान था मुझको मेरे दृढ़ विश्वास पर,
पर साथ दे न सका मुझको मेरा अटल विश्वास,
असफल रही कठिन साधना मेरी।

गीत मैं वो गा न सका, गीत मैं वो दोहरा न सका।

सुर ही कठिन है इस जीवन संगीत का,
या साधना के योग्य नही बन पाया मै ही शायद,
साधक हूँ मैं पर! निरंतर रत रहूंगा साधना मे,
है मुझको विश्वास लगन पर मेरी।

गीत मैं जो गा न सका, गीत मैं वो फिर दोहराऊंगा!

मैं प्रीत का गीत

प्रिय, मैं प्रीत का गीत बन तुम पर अर्पित हो जाऊँ।

मंदिर इक बनी है कल्पनाओं में मेरी,
सपन सलोनी मूरत रखी है वहाँ तेरी,
अर्पित करता प्रीत नित पूजा में तेरी।

प्रिय, चाहत मेरी पलकों में तेरी सपने मैं सजाऊँ।

सपनों के भँवर जाल मे उलझा तेरी,
मोहक वो स्वप्न जिसमें है सूरत तेरी,
सपनों सम रंगीन दुनिया तुझमें मेरी।

प्रिय, तेरे शब्दों से मन के मर्म की कहानी लिख जाऊँ। 

विवश मर्म मन के मुखरित हो कैसे,
अधरों के शब्द निःशब्द पड़े हों जैसे,
चाह अधरों को तेरी शब्दों की जैसे।

प्रिय, सुरमई संगीत बन तेरे अधरों पर रंजित हो जाऊँ।

Wednesday, 10 February 2016

बचपन की जिद

बचपन की जिद और तकरार आती है याद बारबार!

सोचता हूँ बचपन का नन्हा सा बालक हूँ आज मैं,
जिद करता हूँ अनथक छोटी छोटी बातों को ले मैं,
चाह मेरी छोटी छोटी सी, पर है कितनी जटिल ये,
मम्मी पापा दोनों से बार-बार करता कितना रार मैं,
नन्हा सा हूँ पर मम्मी पापा से करता अपने प्यार मैं।

बचपन की जिद और तकरार आती है याद बारबार!

यूँ तो पूरी हो जाती हैं सारी दिली फरमाइशें मेरी,
पर मेरे मन की ना हो तो फिर जिद तुम देखो मेरी,
चाकलेट की रंग हो या फिर आइसक्रीम की बारी,
चलती है बस मेरी ही, नही चाहिए किसी की यारी,
नन्हा सा हूँ तो क्या हुआ पसंद होगी तो बस मेरी।

बचपन की जिद और तकरार आती है याद बारबार!

रातों को सोता हूँ तो बस अपनी मम्मी पापा के बीच,
खबरदार जो कोई और भी आया हम लोगों के बीच,
दस बीस कहानी जब तक न सुन लू सोता ही मैं नहीं,
मम्मी की लोरी तो मुझको सुननी है बस अभी यहीं,
सोता हूँ फिर चाकलेट खाके पापा मम्मी के बीच ही। 

बचपन की जिद और तकरार आती है याद बारबार!

उठता हूँ बस चार पाँच बार रातों में माँ-माँ कहता,
पानी लूंगा, बाथरूम जाऊंगा मांग यही बस करता,
स्वप्न कभी आए तो  परियों की जिद भी करता हूँ,
खेल खिलौने मिलने तक मैं खुश कम ही होता हूँ,
मांगे मेरी पूरी ना हो तो घर को सर पर ले लेता हूँ।

बचपन की जिद और तकरार आती है याद बारबार!

कपड़े की डिजाइन तो होगी, बस पसंद की मेरी ही,
पापा चाहे कुछ भी बोलें, कपड़े लूंगा तो मैं बस वही,
हुड डिजाइन वाले कपड़े, तो बस तीन-चार लूंगा ही,
पापा मम्मी के कपड़े भी, पसंद करूंगा तो बस मैं ही,
कोल्ड ड्रिंक, समोसे, पिज्जा, चिकन तो मैं लूंगा ही।

बचपन की जिद और तकरार आती याद बारबार!

(मेरी बेटी की फरमाईश पे लिखी गई कविता)

हृदय में पलने दो बस इतना सा स्वप्न

हृदय में पलने दो बस इतना सा स्वप्न तुम,

मैं रहता हूँ हृदय में तेरे मांग तेरी सजाता हूँ,
तुम देखती हो सपने, सिर्फ मेरे ही सपने,
जुल्फों की बिखरी लटें तेरी मैं ही सहलाता हूँ,
रोज ही गूंधता हूँ एक फूल लटों में तेरे ।

हृदय में पलने दो बस इतना सा स्वप्न तुम,

तुम्हारी आँखों में सजाता हूँ जीवन की तस्वीरें,
गगन की छाँव से काजल ले आता हूँ,
इन्तजार में देहरी पर बैठी हो तुम मेरे ही,
तेरी आँखों में बस एक मैं ही रहता हूँ।

हृदय में पलने दो बस इतना सा स्वप्न तुम,

देखता हूँ बीतती उमर अपनी सामने तेरे,
तुम साधना में बैठी हो संग मेरे ही,
उदय होते है दिन मेरे नयनों के निलय में तेरे,
मुग्ध होता हूँ झुर्रियाँ देख चेहरे पे तेरे।

हृदय में पलने दो बस इतना सा स्वप्न तुम।

विदाई के क्षण

छलकती हैं आँखों की देहरी पर नीर,
क्षण विदाई की घड़ियाँ के देती मन को चीर,
झरते हैं नैंनों से आँसू निर्झर सी रह रह,
नभ से झरते ओस की बूंदो की तरह।

क्षण अति कारुणामय होता है वह,
बिछड़ते मात, पिता, भाई बहन, बन्धु जब,
फफक फफक रो पड़ता हृदय तब,
देहरी बदल जाती जीवन की इस तरह।

विदाई नही सिर्फ एक जन की यह,
छूट जाते हैं रिश्ते, नाते, पड़ेसी, कुटुम्ब सब,
टीस दिलों की और बढ़ जाती तब,
नैन नीर अधीर हो बहती निर्झर की तरह।

रुके हुए शब्द

छलकते नैनों से बह गए हैं नीर निर्झर,
थरथराते लबों के शब्द गए हैं  निःशब्द,
ओस की बूंदों सी छलकी हैं नीर नीरव,
कहानी कोई अनकही रह गई है शायद।

झर झर निर्झर सी बह रही है अब आँखें,
खामोशियाँ की जुबाँ कह गई है सब बातें,
छलकते नीर शब्द बन गईं हैं अब लबों पे,
आह, दारुणिक कथा कितनी इन नैनों के।

रोक लेता कोई नीर, नैन छलकने से पहले,
निःशब्द को जुबाँ देता कोई कहने से पहले,
काँपते अधरों को शब्द दे जाता कोई पहले,
व्यथा कोई सुन लेता नैन छलकने से पहले।

छलकते प्याले

छलकते प्यालों की उम्र लेकर,
समय की कालचक्र में घूमता जीवन,
प्यालों की विसात क्या, किस पल छूटे हाथों से,
छलकती जाती जीवन इन प्यालों से।

कब टूटेगी हाथों से गिरकर,
साँसें कब छलकेगी प्यालों में मचलकर,
परिधि जीवन के प्याले की, पुकारती रह रहकर,
गति कालचक्र की चंचल तेज प्रखर।

प्याले ही तो है हम जीवन के,
भरकर जाम हममें पी रहा वो मतवाला,
शोक मनाता तू फिर क्यों, टूटी जो जीवन प्याला,
रचयिता भर लाएगा, फिर नई इक हाला।

टूटते हैं प्याले तो टूटने दे,
हाला प्याले की कालचक्र के हाथों में दे,
काल परिधि में रम, घूँट हाला की तू भी पी ले,
प्याला तो प्याला है, छलकने इनको दे।