Tuesday, 19 April 2016

मानव बन सकें हम

अवधारणा ही रही यह मेरी कि मानव हैं हम,
विमुख भावनाओं से सर्वदा, क्या सच में मानव हैं हम?

कहीं तोड़ देते ये हृदय किसी का,
जाति-धर्म की संवेदनहीन सियासत में,
घृणा द्वेष दे जाते ये यहाँ  विरासत में,
स्व से उपर कहाँ उठ सके हम,
भावनाओं से परे लगे हैं, निज की स्वागत में।

विडम्बना जीवन की, कि कहलाते मानव हैं हम!
खून पी जाते हैं नरभक्षी बन, क्या सच में मानव हैं हम?

सद्भाव की सारी बातें लगती हैं तृष्णा सी,
जहर घुल चुके दिलों में सुखचैन हुए मृगतृष्णा सी,
काँटे बोए है खुद ही, काट रहे फसल घृणा की,
निज स्वार्थ से ऊपर कहाँ उठे हम,
बातें करते हैं हम विश्व और जगत कल्याण की।

प्रार्थना है मेरी ईश्वर से कि मानव तो बन सकें हम!
बीज भावना के बोएँ, जीवन के सम्मुख हो सकें हम!

अधूरे सपने

अधूरे सपने ! ये संग-संग ही चलते है जीवन के!

अधूरे ही रह जाते कुछ सपने आँखों में,
कब नींद खुली कब सपने टूटे इस जीवन में,
कब आँख लगी फिर जागे सपने नैनों में।

अधूरे सपने ! सोते जगते साथ साथ ही जीवन में!

सपनों की सीमा कहीं उस दूर क्षितिज में,
पंख लगा उड़ जाता वो कहीं उस दूर गगण में,
कब डोर सपनों की आ पाई है हाथों में।

अधूरे सपने ! पतंगों से उड़ते जीवन के नील गगन में!

पलकों के नीचे मेरी सपनों का रैन बसेरा,
बंद होती जब ये पलकें सपनों का हो नया सवेरा,
अधूरे उन सपनो संग खुश रहता है मन मेरा।

अधूरे सपने ! ये प्यार बन के पलते हैं मेरे हृदय में।

कहाँ मेरी हाला

मेरी हाला है किस मदिरालय में? ढू़ंढ़ता ये मतवाला!

मादक मद का लबालब प्याला,
ढू़ंढ़ता है नित ये मतवाला,
मदिरा पीने को रोज ही,
जाता हूँ मैं मधुशाला,
मदिरा की प्यालों में लेकिन,
मिलती कहाँ मन की हाला।

मेरी हाला है किस मदिरालय में? ढू़ंढ़ता ये मतवाला!

मदिरालय की हर प्याले को,
इन होठों से मैं छू लेता हूँ,
भर-भरकर उन प्यालों को,
घूँट-घूँट मै पी लेता हूँ,
कंठ सूखते ही रहते फिर भी,
प्यासा ही रह जाता ये पीनेवाला।

मेरी हाला है किस मदिरालय में? ढू़ंढ़ता ये मतवाला!

कितने हीे सुंदर प्याले मदिरालय में,
सबसे सुंदर है मेरी प्याला,
उस प्याले मैं तैरता है जीवन,
जी उठता है ये मतवाला,
रख छोरा है मैने किस मधुशाला में,
मैने वो सुन्दर जीवन की प्याला।

मेरी हाला है किस मदिरालय में? ढू़ंढ़ता ये मतवाला!

Monday, 18 April 2016

अब कोई इन्तजार नहीं

अब कोई इन्तजार नहीं करता वहाँ उस ओर......

बँधी थी उम्मीद की हल्की सी इक डोर,
कुछ छाँव सी महसूस होती थी गहराती धूप में भी,
मंद-मंद बयार चल जाती थी यादों की हर पल,
कानों मे अब गुंजता है सन्नाटा चीरता इक शोर....,

अब कोई इन्तजार नहीं करता वहाँ उस ओर......

हजार सपनों संग बंधी थी जीवन की डोर,
तन्हाई मादक सी लगती थी उन यादों की महफिल में,
धड़क जाता था दिल इक हल्की सी आहट में,
जेहन में अब घूमता है विराना सा अंतहीन छोर.....

अब कोई इन्तजार नहीं करता वहाँ उस ओर......

सँवरता था कभी वक्त, मदभरी बातों के संग,
सिलसिले थे शामों के तब, उन खिलखिलाहटों के संग,
मिश्री सी तरंग तैरती थी गुमशुदा हवाओं में तब,
कहीं गुमशुम वो आवाज, क्युँ है अब खामोश दौर....

अब कोई इन्तजार नहीं करता वहाँ उस ओर......

लगन

आच्छादित तुम हृदय पर होते, गर लगन तुझ में भी होती !

मन की इस मंदिर में मूरत उनकी ही,
आराधना के उस प्रथम पल से,
मूरत मेरी ही उनके मन में भी होती,
तो पूजा पूर्ण हो जाती मेरी।
स्थापित तुम ही मंदिर में होते, गर लगन तुझ में भी होती !

नाम लबों पर एक बस उनका ही,
समर्पण के उस प्रथम पल से,
लबों पर उनके भी नाम मेरा ही होता,
तो पूजा पूर्ण हो जाती मेरी।
प्लावित तुम ही लब पर होते, गर लगन तुझ में भी होती !

हृदय के धड़कन समर्पित उनको ही,
चाहत के उस प्रथम पल से,
समर्पित उनका हृदय भी पूरा हो जाता,
तो पूजा पूर्ण हो जाती मेरी।
उन्मादित धड़कन ये तुम करते, गर लगन तुझ में भी होती !

आराधना के फूल अर्पित उनको ही,
पूजन के उस प्रथम पल से,
अर्पित कुछ फूल मुझको भी कर देते,
तो पूजा पूर्ण हो जाती मेरी।
आह्लादित जीवन के पल होते, गर लगन तुझ में भी होती !

Sunday, 17 April 2016

मेरे जज्बात

मैं बार-बार सोचता हूँ! मैं क्युँ न बन पाया उस हृदय और मन सा?

विश्वास की डोर हो या अधिकार या कहें कुछ और,
साथ समय के बदल जाते है यहाँ सब कुछ,
रिश्ते भावनाओं के हों, या हो बेनाम, या कुछ और!

एहसास बदल जाते है, कभी अन्जाने से रिश्तों में,
कभी रिश्ते बदल लेते हैं, जज्बातों के एहसास,
हृदय नही वो पत्थर हैं, बदल लेते है जो जज्बात!

कई बार मन सोचता है! एक ईन्सान के हैं कितने रूप ?

कभी भ्रम पैदा करता वो गहरे एहसासों का,
अपनेपन की बदलते मुखौटों में कभी वो मुस्काता,
जज्बातों को सहलाता अपनी मीठी बोली में तोलकर।

रिश्तों को परिभाषित करता अपनी जरूरतों में हर पल,
जज्बातों की गहराई से खेलता सँवारता अपना आनेवाला कल,
बदलते रिश्तों की इस दुनियाँ में, विश्वास ढ़ूढ़ता अपना ठौर।

वो हृदय! स्वरूप कैसा होगा उस हृदय की कोटरी का?
विश्वास की अधूरी धुन पर जो जानता है बखूबी धड़कना,
उसका मन? कैसा स्वरूप होगा उस इन्सान के मन का?

मैं बार-बार सोचता हूँ! मैं क्युँ न बन पाया उस हृदय और मन सा?

मिथ्या अहंकार

बिखरे पड़े हैं कण शिलाओं के उधर एकान्त में,
कभी रहते थे शीष पर जो इन शिलाओं के
वक्त की छेनी चली कुछ ऐसी उन पर,
टूट टूटकर बिखरे हैं ये, एकान्त में अब भूमि पर ।

टूट जाती हैं ये कठोर शिलाएँ भी घिस-घिसकर,
हवाओं के मंद झौकों में पिस-पिसकर,
पिघल जाती हैं ये चट्टान भी रच-रचकर,
बहती पानी के संग, नर्म आगोश मे रिस-रिसकर।

शिलाओं के ये कण, इनकी अहंकार के हैं टुकड़े,
वक्त की कदमों में अब आकर ये हैं बिखरे,
वक्त सदा ही किसी का, एक सा कब तक रहता,
सहृदय विनम्र भाव ने ही, दिल वक्त का भी है जीता।

ये अहम भाव तो, मिथ्या भ्रम होते हैं मन के,
टूट जातेे हैं अहंकार यहाँ हम इन्सानों के,
मृदुलता मन की, सर्वदा ही भारी अहम पर,
कोमलता हृदय की, राज करती सर्वदा इस जग पर।

Saturday, 16 April 2016

ख्वाब की बातें

वो ख्वाब, अाधा अधूरा, न जाने कहाँ इन पलकों में?

कुछ सुनहरे ख्वाब, रख छोड़े थे मैनें सहेज कर,
पलकों के पीछे लिपटे गीले कोरों में रख कर,
सो जाती थी वो, जागी पलकों में रो-रोकर,
फिर कभी जग जाती वो, बंद पलकों में हँस कर।

ख्वाब वो वर्षों से चुप, पलकों के गीले छावन में,
सूख रही हो, टूटी सी टहनी जैसे आँगन में,
जा बैठी हो कोई तितली, एक कटीली झाड़ी में,
अधूूरा ख्वाब वो, तिलमिला सा उठता आँखों में।

सोचता हूँ अब, काँच से ख्वाब पाले थे क्युँ मैंने,
ओस की बूँदें, क्या ठहरी है कभी बादल में?
संगीत अधूरा सा, क्या झंकृत हो पाया है जीवन में?
बरस परती हैं ये आँखें, टूटे ख्वाबो के संसर्ग में।

वो सुनहरा ख्वाब, अब अधूरा, न जाने कहाँ पलकों में?

बोझिल पलकें

धूल मैं उन राहों की, जिन राहों पे है मेरा प्रीतम वो।

नयन अभिराम निहारती हैं, बस अब राह वो,
जिस दुरूह पथ पर, चल पड़ा था मेरा अंजान वो,
छूटे थे दामन जहाँ, छूटा जहाँ था हाथ वो,
निष्पलक नैन निहारते, राह भूली अब दिन रात वो।

अविरल भीगीं से नैन, बोझिल सी पलकें हैं वो,
बस यादों में अंजान की, अनवरत खोई सी है वो,
लग रहा अंजान अब, शक्ल पहचानी सी वो,
दिल मे बसते थे कभी, बेगाने से अब लगते हैं वो।

चुभ रहे कील से अब, याद बनकर दिल में वो,
हसरत फूलों की थी, उजड़ा है अब गुलशन ही वो,
यादों में मूरत है उसकी, अब सपनों मे बस वो,
धूल मैं उन राहों की, जिन राहों पे है मेरा प्रीतम वो।

अंजाना

कुछ अंजान से शक्ल जो, यादों मे ही बस हैं आते!

साँसों में इक आहट सी भरकर,
कहीं खो गया वो, अंजान राहों मे टूटकर,
अब समय ठहरा हुअा है शिला-सा,
निष्पलक लोचन निहारती, साँसों की वो ही डगर।

चल रही उच्छवास, आँधियों की वेग से,
कहीं खोया है अंजान वो, धड़कनों की परिवेश से,
वो क्षण कहाँ रुक सका है, समय की आगोश से,
हृदय अचल थम रहा है, उस अंजान की आहटों से।

शक्ल अंजान एेसे क्युँ हृदय में समाते?
समय हर पल गुजरता, क्षण कहाँ उसमें समाते,
निष्पलक नैन वो जहाँ अब, सपने कभी आते न जाते,
अब अंजान सा शक्ल वो, यादों मे ही सिर्फ आते।