Monday, 25 July 2016

नेह चाहता स्नेह

नेह पल रहा मन में तुम स्नेह का इक स्पर्श दे दो.....

स्नेह अंकुरते हैं तेरी ही कोख में,
धानी चुनर सी रंगीली ओट में,
कजरारे नैनों संग मुस्काते होठ में....,

तड़पता है प्यासा नेह तुम स्नेह की बरसात दे दो....

नित रैन बसेरा तुम संग स्नेह का ,
आँगन तेरा ही है घर स्नेह का,
तेरी ही बोली तो बस भाषा स्नेह का....,

मूक बिलखता है नेह तुम स्नेह का मधु-स्वर दे दो.....

स्नेह उपजता है तेरे हाथों की स्पर्श से,
स्नेह छलकता तेरे नैनों की कोने से,
जा छुपता है स्नेह तेरी आँचल के नीचे.....,

बिन आँचल है मेरा नेह तुम स्नेह का आँचल दे दो.....

तेरे हृदय खिलती है स्नेह की फुलवारी,
मैने तो बस माँगा थोड़ा सा स्नेह,
नेह भरा ये मन चाहो तो बदले में ले लो....,

कुम्हलाया है मेरा नेह तुम स्नेह की ये बगिया दे दो....

कोरे जज्बात

माने ना ये मेरी बात, ये कैसे हैं......कोरे जज्बात?

कोरा.....ये मेरा मन....., पर ये जज्बात हैं कैसे,
अनछुए..... से मेरे धड़कन..,,, पर ये एहसास हैं कैसे,
अनजाना.... सा यौवन...., पर ये तिलिस्मात हैं कैसे,
मन खींचता जाता किस ओर, ये अंजान है कैसे?

यौवन की.....,, इस अंजानी दहलीज पर,
उठते है जज्बातों के.........ये ज्वार.... किधर से,
कौन जगाता है .....एहसासों को चुपके से,
बेवश कर जाता मन को कौन, ये अंजान है कैसे?

खुली आँख... सपनों की ...होती है फिर बातें,
बंद आँखों में ....न जाने उभरती वो तस्वीर कहाँ से,
लबों पर इक प्यास सी...जगती है फिर धीरे से,
गहराती फिर मन में वो प्यास, मन अंजान हो कैसे?

फिर उस अंजानी बुत.....की ही होती बस बातें,
कहीं तारों के उपर...बस जाती मन की छोटी दुनियाँ,
साँसों में घुलती....खुश्बू फिर इक अंजानी सी,
गा उठते हैं जज्बात नए तराने, गीत अंजान ये कैसे?

संभाले ...अब कौन इसे, रोके ...कौन इसे कैसे,
बहके से हैं....ये जज्बात, एहसासों...की है ये बारात,
कोरा सा ये मन...रिमझिम सी उसपर ये बरसात,
सुलगी है आग मचले हैं ये जज्बात, माने ये फिर कैसे?

माने ना ये मेरी बात, ये कैसे हैं.......कोरे जज्बात?

Monday, 18 July 2016

ओ मेरे साजन

फुहारें रिमझिम की लेकर आई फिर साजन की यादें..........

घटाओं ने आँचल को बिखेरे हैं यूँ झूम-झूमकर,
बिखरी हैं बूंदें सावन की तन पर टूट-टूटकर,
वो कहते हैं इसको, है यह सावन की पहली फुहार,
मन कहता है, साजन ने फिर आज बरसाया हैं मुझ पर प्यार।

साजन मेरा साँवला सा, है सावन का वो संगी,
साथ-साथ रहते हैं दोनो, उन घटाओं के उपर ही,
वो कहते है, बावला है प्रियतम तेरा बरसाता है फुहार,
मन कहता है, दीवाना है साजन मेरा करता वो मुझसे गुहार।

ओ काले बादल जाकर मेरे साजन से तुम ये कहना,
छुप-छुपकर बूँदों से मेरे तन को ना सहलाए,
कोरा आँचल भींगा-भीगा सा पहना है मैंने भी तन पर,
लहरा दे इनको भी प्यार से, छलका दे ऱिमझिम सी फुहार।

ओ मेरे नटखट साँवले से मधुप्रिय साजन,
तुम झिटको फिर से घटाओं का ये भींगा सा आँचल,
पड़ने तो फुहार ऱिमझिम की तन पर टूट-टूटकर,
भीगे ये काया, भीगे ये मन, भीग जाए मेरे आँगन की बहार।

Saturday, 16 July 2016

फलक पे टंगी खुशियाँ

देखने को तो फलक पे ही टंगी है अाज भी खुशियाँ........

फलक पे ही टंगी थी सारी खुशियाँ,
पल रहा अरमान दामन में टांक लेता मैं भी इनको,
पर दूर हाधों की छुअन से वो कितनी,
लग रही मुझको बस हसरतों की है ये दुनियाँ।

झांकता हूँ मैं अब खुद के ही अंदर,
ढूंढने को अपने अनथक अरमानों की दुनियाँ,
ढूंढ़़ पाता नहीं हूँ पर अपने आप को मैं,
दिखती है बस हसरतों की इक लम्बी सी कारवाँ।

गांठ सी बनने लगी है अरमानों की अब,
कहीं दूर हो चला हूँ रूठे-रूठे अरमानों से अब मैं,
झूठी दिलासा कब तलक दूँ मैं उनको,
बेगानों की बस्ती में अब समझते वो मुझको पराया।

क्या अब भी मुझमें कुछ बचा हूँ शेष मैं,
उस फलक के कनारों से ही अब जान पाऊँगा ये मैं,
कुछ चीज एक मन सी रहती थी अन्दर,
न जाने क्युँ आजकल वो भी हुआ मुझसे बेगाना।

देखने को तो फलक पे ही टंगी है अब भी खुशियाँ........

Thursday, 14 July 2016

वेदना

क्युँ झंकृत है फिर आज तन्हाई का ये पल,
कौन पुकारता है फिर मुझको विरह के द्वार,

वो है कौन जिसके हृदय मची है हलचल,
है किस हृदय की यह करुणा भरी पुकार,

फव्वारे छूटे हैं आँसूओं के नैनों से पलपल,
है किस वृजवाला की असुँवन की यह धार,

फूट रहा है वेदना का ज्वार विरह में हरपल,
है किस विरहन की वेदना का यह चित्कार,

टूटी है माला श्रद्धा की मन हो रहा विकल,
है किस सुरबाला की टूटी फूलों का यह हार,

पसीजा है पत्थर का हृदय भी इस तपिश में,
जागा है शिला भी सुनकर वो करूण पुकार।

Tuesday, 5 July 2016

कुछ बोल दे बादल

ओ चिर काल से नभ पर विचरते बादल,
इस वसुधा की कण-कण को भिगोते बादल,
बोल दे, तू भी कुछ तो दे बोल बादल!

क्षार सा खारा जल तू पीता,
जिह्वा से तेरी बहता बस मीठा सा जल,
बूंदों में तेरी रचती गंगा-जमुना जल,
तू कितना प्यारा कितना अनमोल बादल,
बोल दे, तू भी कुछ तो दे बोल बादल!

गम की बोझ से है भरा पड़ा तू,
तम की घोर कालिमा मे ही लिपटा तू,
हर पल टूटा, हर पल बिखरा है तू,
तेरी धीरज से ना कोई अंजान बादल,
बोल दे, तू भी कुछ तो दे बोल बादल!

तम रचता मानव तन के अन्दर भी,
गम के काटें चुभते इस मानव तन को भी,
तेरा मीठा जल पीता क्षुधा मिटाने को भी,
मुख से लेकिन छूटते कड़वे ही बोल,
बोल दे, तू भी कुछ तो दे बोल बादल!

ओ राग अनुराग में लिप्त घुमरते बादल,
ओ मेरे हृदयाकाश पर उड़ते उन्मुक्त बादल,
बोल दे, तू भी कुछ तो दे बोल बादल!

व्यर्थ के आँसू

शायद जीवन इस जग में मुझ जैसा ही सबका!

सभी काटते जीवन में तन्हा ही,
अपनी विरह-भरी विभावरी,
व्यर्थ लुटाते गम में चिर सुख की निधि,
न बट सकी, न घट सकी,
अपने-अपने हिस्से की विरह-घिरी विभावरी।

घटते ना जीवन के कुछ गम,
दुख में करते रोदन-गायन,
व्यर्थ ही जाते ये मोतियों से छलकते आँसू,
न बट सकी, ना ही घटी,
अपने-अपने हिस्से की तम भरी विभावरी।

शायद जीवन इस जग में मुझ जैसा ही सबका!

Monday, 4 July 2016

तुम्हारी बातें-प्यार से तकरार तक

तुम्हारी बातें,
तुम्हारी प्यारी-प्यारी सी बातें,
साँसों में संग घुली हुई वो मुलाकातें,
साथ नहीं छोड़ेंगी मेरा अंत तक,
बना लूँ मैं इन्हें सारथी अपने जीवन पथ का,
तुम बोलो क्या करूँ मैं इनका?

तुम्हारी बातें,
तुम्हारी बहकी-बहकी सी बातें,
अन्तस्थ दिलों में समाती वो इठलाती बातें,
साथ नहीं छोड़ेंगी मेरा अंत तक,
बना लूँ मै इनको बस बहाना अपने जीने का,
तुम बोलो क्या करूँ मैं इनका?

तुम्हारी बातें,
तुम्हारी भोली-भाली सी बातें,
तन्हाईयों में मुझको छेड़ती वो एहसासें,
साथ नहीं छोड़ेंगी मेरा अंत तक,
बना लूँ मैं उन पलों को अफसाना सपनों का,
तुम बोलो क्या करूँ मैं इनका?

तुम्हारी बातें,
तुम्हारी झूठी-मूठी वो बातें,
इस दिल को कचोटती वो कोरी बातें,
साथ नहीं छोड़ेंगी मेरा अंत तक,
कह दो अब कैसे जिक्र तक न करूँ मैं इनका?
तुम बोलो क्या करूँ मैं इनका?

तुम्हारी बातें,
तुम्हारी व्यर्थ-निरर्थक बातें,
व्यंग्य वाण के बंधन में कसी वो बातें,
रोष की आँच में तली हुईं वो बातें,
विष की फुहार सी वो जहरीली बातें,
मान लूँ मैं कैसे इन्हे घास का इक तिनका?
तुम बोलो क्या करूँ मैं इनका?

तुम्हारी बातें,
यही तो है पूंजी अपने जीवन का,
यही तो है फल अपनी जीवन साधना का,
साथ भला कब छोड़ेगी ये अंत तक,
कह दो कैसे बनने दूँ इन्हें साधन अपनी घुटन का?
तुम बोलो क्या करूँ मैं इनका?

Wednesday, 29 June 2016

ख्याल

तुम ख्वाबों से निकलकर ख्यालों में गुजरती हो कहीं!

तब रूह को छू जाती हैं बरबस यादें तेरी,
जल उठते है माहताब दिल के अंधियारे में कहीं,
महक उठती है ख्यालों से सूनी सी ये तन्हाई,
मद्धम सुरों में उभरता आलाप एक सुरमई।

तुम ख्वाबों से निकलकर ख्यालों में गुजरती हो कहीं!

मन पूछने लगता है पता खुद से खुद का ही,
भूल सा जाता है ये मन के तुम कहीं हो ही नहीं,
बस इक परछाईं सी हो तुम कोई अक्स नहीं,
गुमसुम सा विकल ये मन मानता ही नहीं।

तुम ख्वाबों से निकलकर ख्यालों में गुजरती हो कहीं!

राख बन कर ही सही उर रहीं हैं यादें तेरी,
गहरा धुआँ सा छा रहा हैं मन के गगन पर मेरी,
क्या मिलोगे मुझे उस क्षितिज के किनारे कहीं,
इस रूह की गहराईयों में तुम छुपे हो कहीं।

तुम ख्वाबों से निकलकर ख्यालों में गुजरती हो कहीं!

Sunday, 26 June 2016

प्यासी छाया

छाया क्षणिक सी,
वो क्या दे पाएगी गहरी छाँव?

कोरा भ्रम मन का,
कि पा जाऊँ क्षण भर,
उस अल्प छाया में विश्राम,
भ्रमित मन भँवरा सा,
आ पहुँचा है किस गाँव?

छाया खुद तपती सी,
वो क्या दे पाएगी गहरी छाँव?

छाया वो प्यासी सी,
तप्त किरणों में कुचली सी,
झमाझम बूंदों की उसको चाह,
बरसूँ मैं भींगा बादल सा,
ले आऊँ संग उसे अपने गाँव!

छाया लहराई सी,
अब हसती बनकर गहरी छाँव?