Thursday, 10 November 2016

एक और इंतजार

रहा इस जनम भी, एक और अंतहीन इंतजार....!
बस इंतजार, इंतजार और सदियों का अनथक इंतजार!

इंतजार करते ही रहे हम सदियों तुम्हारा,
कब जाने धमनियों के रक्त सूख गए,
पलकें जो खुली थी अंतिम साँसों तक मेरी,
जाने कब अधखुले ही मूँद गए,
इंतहा इंतजार की है ये अब,
तुमसे मिलने को पाया हमने ये जन्म दोबारा...

रहा इस जनम भी लेकिन एक और अंतहीन इंतजार...!

गिन न सके अनंत इंतजार की घड़ियों को हम,
चुन न सके वो चंद खुशियाँ उन राहों से हम,
दामन में आई मेरी बस इक तन्हाई,
और मिला मुझको मरुभूमि सा अंतहीन इंतजार,
और कुछ युगों का बेजार सा प्यार,
हां, बस ..  कुछ युगों का एक और इंतजार.....।

किया इस जनम भी हमनें एक और अंतहीन इंतजार..!

ये युग तो ऐसे ही बस पल में बीत जाएंगे,
तेरी यादों में हम युगों तक ऐसे ही रीत जाएंगे,
भूला न सकोगे जन्मों तुम मुझको भी,
इंतजार तुझको भी बस मेरी ही,
मिटा सकोगे ना तुम भी ये रेखाएँ हाथों की
मृत्यु जब होगी सामने आएंगे याद तुम्हें बस हम ही......

इस जनम तुमको भी है एक और अंतहीन इंतजार....!

शायद तब होगी अंत मेरी ये इंतजार,
जब होगी अपनी इक अंतहीन सी मुलाकात,
व्योम मे उन बादलों के ही पीछे कहीं,
तब साधना होगी मेरी सार्थक,
पूजा होगी मेरी तब सफल,
युगों युगों के इंतजार का जब मिल जाएगा प्रतिफल.....

पर, रहा इस जनम भी, एक और अंतहीन इंतजार....!
बस इंतजार, इंतजार और सदियों का अनथक इंतजार!

Monday, 7 November 2016

अतिरंजित पल

हैं कितने सम्मोहक ये, उनींदे से अतिरंजित पल......

कतारें दीप की जल रही हर राह हर पथ पर,
जन-सैलाब उमर आया है हर नदी हर घाट पर,
हो रहा आलोकित, अंधियारे मन का प्रस्तर।

हैं कितने मनभावन ये, उनींदे से अतिरंजित पल......

मंद-मंद पुरवैयों संग घुमर रहा नभ पर बादल,
बिखेरती किरणें सिंदूरी वो सूरज अब रहा निकल,
हो रहा सुशोभित, लाल-पीत वर्णों से मुखमंडल।

हैं कितने आकर्षक ये, उनींदे से अतिरंजित पल......

प्रकाशित है नभमंडल, प्राणमयी हुए हैं मुखरे,
कली-कली मुस्काई है, रंग फूलों के भी हैं निखरे,
हो रहा आह्लादित, विहँस रहे हैं हर चेहरे।

हैं कितने मनमोहक ये, उनींदे से अतिरंजित पल......

Friday, 4 November 2016

चाहो तो

चाहो तो पढ़ लेना तुम वो पाती,
हवाओं के कागज पर लिखकर हमनें जो भेजी,
ना कोई अक्षर इनमें, ना हैं स्याही के रंग,
बस है इक यादों की खुश्बू चंचल पुरवाई के संग।

चाहो तो रख लेना तुम वो यादें,
घटाओं की चुनरी में कलियों संग हमने जो बाँधे,
ना कोई पहरे इन पे, ना शिकवे ना रंज,
बस है इक ठंढी सी छाँव बादल की परछाई के संग।

चाहो तो सुन लेना तुम वो गीत,
सागर की लहरों ने जो छेड़ी है सरगम की रीत,
ना हैं वीणा के सुर, ना पायल की रुनझुन,
बस है इक अधूरा सा संगीत सागर की तन्हाई के संग।

चाहो तो पढ़ लेना तुम वो संदेशे,
किरणों संग नभ पर लिखकर हैं हमने जो भेजे,
ना है शब्द कोई, ना कोई भी पूर्णविराम,
बस है इक रंग गुलनारी सी थोड़ी श्यामल रंगों के संग।

Thursday, 3 November 2016

उनकी आहट

भरम सा हो रहा है मन को, या ये आहट है उनकी.....?

फैली है पहचानी सी खुश्बू फिजाओं में पल पल,
गूंज रही इक आवाज दिशाओं में हर पल,
तोड़ रही ये खामोशी, विरान दिल के प्रतिपल,
रह रहकर इन हवाओं में,ये कैसी है हलचल.......!

भरम सा हो रहा है मन को, या ये आहट है उनकी.....?

क्यूँ आँखों से अदृश्य अब तक है वो प्रतिकृति,
क्या आहट है यह किसी मूक आकृति की,
गुंजित हैं फिर मेरा मन धुन पर किस सरगम की,
मन से निकल रही है क्यूँ इक आह सी....!

भरम सा हो रहा है मन को, या ये आहट है उनकी.....?

झूमती इन पत्तियों में ये सरसराहट है फिर कैसी,
छुअन सी इक सिहरन बदन में है ये कैसी,
जेहन में हर पल गूंजती फिर ये आवाज है कैसी,
एहसास नई सी जागी दिल मे आज है कैसी.......!

भरम सा हो रहा है मन को, या ये आहट है उनकी.....?

Wednesday, 2 November 2016

कभी तुम लौट आओ

तुम लौट आओ.....तुम लौट आओ.....कभी तुम..

कभी लगता है मुझको,
जैसे हर चेहरे में छुपा है तेरा अक्श,
क्यूँ  तेरी चाहत में मुझको,
प्यारा सा लगता है हर वो इक शक्श,
ले चला है भरभ किस ओर मुझको,
राहत मिलता नही कहीं दिल को....

तुम लौट आओ....तुम लौट आओ.....कभी तुम..

कभी देखता हूँ मैं फिर,
आँखों मे मंडराता इक धुंधला सा साया,
क्यूँ लगने लगता है फिर,
स्मृतिपटल पर छाई है तिलिस्म सी माया,
लहरों सी वो फिर उफनाती,
उद्वेलित इस स्थिर मन को कर जाती....

तुम लौट आओ....तुम लौट आओ.....कभी तुम..

तभी सोचता हूँ फिर मैं,
वो अक्श तो मिल चुकी वक्त की खाई में,
क्यूँ फिर भरम में हूँ मैं,
किस साए से मिलता हूँ रोज तन्हाई में,
किसी कोहरे में उलझा हूँ शायद मैं,
बिखरा है ये मन भरम के किस बादल में ......

तुम लौट आओ....तुम लौट आओ.....कभी तुम..

कभी लगता है तब,
यादों के ये उद्वेग होते है बड़े प्रबल,
क्यूँ याद करता है इन्हे मन जब,
असह्य पीड़ा देते है ये जीने के संबल,
पर यादों पर है किसके पहरे,
चल पड़ता हूँ उस ओर जिधर ये यादें चले,

तुम लौट आओ....तुम लौट आओ.....कभी तुम..

कभी पूछता हूँ मैं फिर,
झकझोरा है मेरे स्मृतिपटल को किसने,
क्यूँ अंगारों को सुलगाया है फिर,
तन्हा लम्हों को फिर उकसाया है किसने,
पानी में पतवार चली है फिर क्यूँ,
यादों की ये तलवार खुली है फिर क्यूँ,

तुम लौट आओ....तुम लौट आओ.....कभी तुम..

Tuesday, 1 November 2016

प्रेम कल्पना

इक दिवा स्वप्न में ढ़लकर, संग मेरे तुम चल रहे ....
कल्पना की चादर मे सिमटी, तुम जीवन में ढ़ल रहे ....

अब गीत विरह के गाने को,
कोई पल ना आयेगा,
मन के मधुबन में ओ मीते,
प्रेम प्रबल हो गायेगा..............

सुरमई गीतों में रचकर, सरगम मे तुम ढल रहे ....
कल्पना की चादर मे सिमटी, तुम जीवन में ढ़ल रहे ....

अब एकाकी ही रह जाने को,
कोई मन ना तड़पेगा,
मन के आंगन में ओ मेरे मीते,
तन्हाई गीतों संग गूंजेगा............

संध्या प्रहर ये सुनहरी, भावों में तुम पल रहे ....
कल्पना की चादर मे सिमटी, तुम जीवन में ढ़ल रहे ....

अब मोहनी सी मूरत देखने को,
कोई पल न रिझाएगा,
सांझ प्रहर क्षितिज नित ओ मीते ,
सूरत तेरी  ही दिखलाएगा..........

गूढ़ शब्द बन तुम मिले, अर्थ में तुम ढ़ल रहे.....
कल्पना की चादर मे सिमटी, तुम जीवन में ढ़ल रहे ....

अब भाव हृदय के पढ़ पाने को,
कोई मन ना तरसेगा,
गूढ़ रहस्य उन शब्दों के ओ मीते,
नैन तेरे मुझसे कह जाएगा..........

इक दिवा स्वप्न की भांति, संग मेरे तुम चल रहे ....
कल्पना की चादर मे सिमटी, तुम जीवन में ढ़ल रहे ....

ख्वाहिशें

सर्द खामोश सी ख्वाहिशें,सुलग उठी है फिर हलके से.....

कुछ ऐसा कह डाला है तुमने धीरे से,
नैया जीवन की फिर चल पड़ी है लहरों पे,
अंगड़ाईयाँ लेती ख्वाहिशें हजार जाग उठी है चुपके से।

बुनने लगा हूँ मैं सपने उन ख्वाहिशों के,
आशा के पतवार लिए खे रहा नाव लहरों पे,
सपनों का झिलमिल संसार अब दूर कहाँ मेरी नजरों से।

ख्वाहिश तुझ संग सावन की झूलों के,
मांग सजी हों तेरी कुमकुम और सितारों से,
बिखरे होली के सत रंगी बहार तेरे आँचल के लहरों से।

हँस पड़ते हों मौसम तेरी मुस्कानों से,
बरसते हों रिमझिम सावन तेरे आ जाने से,
बसंती मौसम हों गुलजार आहट पे तेरे इन कदमों के।

तेरी बाहों के झूले में मेले हों जीवन के,
बाँट लेता तुझ संग मैं पल वो एकाकीपन के,
तुम जिक्र करती बारबार आँखों में फिर उन सपनों के।

पिरो लेता तेरे ही सपने अपनी नींदों में,
खोलता मैं आँखें, सामने तुम होती आँखों के,
जुल्फें लहराती हरबार तुम आ जाती सामने नजरों के।

लग जाते मेले फिर ख्वाहिशों के,
खिल आते बाग में दो फूल तेरे मेरे बचपन के,
कटते जीवन के दिन चार, रंग भरते तेरी ख्वाहिशों के।

सर्द खामोश सी ख्वाहिशें,सुलग उठी है फिर हलके से.....

Friday, 28 October 2016

काश

काश! यादों के उस तट से गुजरे न होते हम....

रंग घोलती उन फिजाओं में,
शिकवे हजार लिए अपनी अदाओं में,
हाँ, पहली बार यूँ मिले थे तुम.....

कशिश बला की उन बातों में,
भरी थी शरारत उन शरमाई सी आँखों में,
हाँ, वादे हजार कर गए थे तुम.....

नदी का वो सूना सा किनारा,
वो राह जिनपर हम संग फिरे थे आवारा,
हाँ, उन्हें तन्हा यूँ कर गए थे तुम.....

ढली सुरमई सांझ कभी रंगों में,
कभी रातें शबनमीं तुझको पुकारती रहीं,
हाँ, मुद्दतों अनसुनी कर गए थे तुम....

बातें वो अब बन चुकी हैं यादें,
रह रह पुकारती है मुझको, तेरी वो बातें,
हाँ, लहरों सी यादें देकर गए थे तुम......

काश! यादों के उस तट से गुजरे न होते हम....

Thursday, 27 October 2016

संग बैठ मेरे

संग बैठ मेरे, आ पल दो पल को पास तू!
आ इस क्षण मैं, तुझको अपनी इन बाहों का पाश दूँ.....

क्षण तेरा तुझसे है नाराज क्यूँ?
मन हो रहा यूँ निराश क्यूँ?
सब कुछ तो है रखा है इस क्षण में,
आ अपने सपनों में झांक तू,
संग बैठ मेरे, आ पल दो पल को पास तू!

सुंदर ये क्षण है, इस क्षण ही जीवन है,
कल-कल बहता ये क्षण है,
तेरी दामन में चुपके रहता ये क्षण है,
आ इस क्षण अपनों के पास तू,
संग बैठ मेरे, आ पल दो पल को पास तू!

फिर क्यूँ इस क्षण है उदास तू?
सांसें कुछ अटकी तेरी प्राणों में है,
कुछ बिंब अधूरी सी तेरी आँखों में है,
आ हाथों से प्रतिबिम्ब निखार तू,
संग बैठ मेरे, आ पल दो पल को पास तू!

स्वर आशा के इस क्षण हैं,
तेरी सांसों में भी सुर के कंपन हैं,
मन वीणा है मन सितार है,
आ आशाओं  के भर आलाप तू,
संग बैठ मेरे, आ पल दो पल को पास तू!

आ इस क्षण मैं, तुझको अपनी इन बाहों का पाश दूँ.....

Tuesday, 25 October 2016

संवेदनाएँ

पल-पल प्रबल आघात करती ये निरीह संवेदनाएँ ...

करवट ली है संवेदनाओं ने आज फिर से,
झकझोर दिया हो दरिया को मछवारे ने जैसे,
आँधियों में झूलती हों पत्तियाँ डाल पर जैसे,
मन की शांत झील, झंकृत है लहराकर ऐसे.....

संवेदनाएँ! निरीह, लाचार खुद अन्दर से,
पतली सी काँच कहीं चकनाचूर रखी हों जैसे,
कनारों के धार नासूर सी डस रही हों जैसे,
अंतःकरण हृदय के, लहुलुहान कर गई ये ऐसे....

वश में कहाँ, किसी मानव की ये संवेदनाएँ,
बाँध तोड़ कर बह जाती हो, धार नदी की जैसे,
मगरूर शिलाएँ प्लावित होती हैं इनमें जैसे,
विवश कर गई ये, अंतःमानस के कण-कण ऐसे...

सुख में कभी सम्मोहित करती संवेदनाएँ,
छलक पड़ती हैं फिर आँखों में बूंद-बूंद बनके,
छिरकते हैं मनोभाव कभी तेज कदमों से,
क्या रह पाऊँगा पृथक? मैं इन संवेदनाओं से....?