Saturday, 5 January 2019

जब तुम गए

यद्यपि अलग थे तुम, पर सत्य न था ये...

निरंतर मुझसे परे,
दूर जाते,
तुम्हारे कदम,
विपरीत दिशा में,
चलते-चलते,
यद्यपि,
तुम्हें दूर-देश,
लेकर गए थे कहीं,
सर्वथा,
नजरों से ओझल,
हुए थे तुम,
पर ये,
बिल्कुल ही,
असत्य था कि,
तनिक भी,
दूर थे तुम मुझसे...

यद्यपि जुदा थे तुम, पर सत्य न था ये...

उत्तरोत्तर मेरे करीब,
आती रही,
तुम्हारी सदाएं,
इठलाती सी बातें,
मर्म यादें,
मखमली सा स्पर्श,
तुम्हारा अक्श,
बोलती सी आँखें,
दिल की आहें,
मन के कराह,
पुकार तुम्हारी ही,
गूंजती रही,
आसपास मेरे,
दूर जाती,
राहों के प्रवाह,
हर कदम,
करीब आते रहे मेरे...

यद्यपि विलग थे तुम, पर सत्य न था ये...

परस्पर विरोधाभास,
एक आभास,
जैसे,
हो तुम,
बिल्कुल ही पास,
छाया सी,
तुम्हारी,
हो दूर खड़ी,
सूनी राहें, सूनी बाहें,
निरर्थक,
सी ये बातें,
जबकि तुम हो यहीं,
चादरों,
की सिलवटों से,
तुम ही,
हो झांकते,
प्रतिध्वनि तेरी,
गूंजती है मन में मेरे....

यद्यपि दूर थे तुम, पर सत्य न था ये...

Thursday, 3 January 2019

पाथेय

स्मरण हूँ, पाथेय बन, पथ में चलूंगा...

सौरभ हूँ, समीर संग, साँसों में बहूंगा,
अनुभूति हूँ, जंजीर संग, मन बांध लूंगा,
रक्त हूँ, रुधिर संग, शिराओं में बहूंगा,
वक्त हूँ, संग-संग कहीं, बीतता मिलूंगा,
याद हूँ, एकांत में, अधीर हो उठुंगा!

स्मरण हूँ, पाथेय बन, पथ में चलूंगा...

शीतल समीर, जब छू जाएगी बदन,
कानों में, कुछ बात कह जाएगी पवन,
सुरीला गीत , गुन-गुनाएगी चमन,
होगा अधीर, मन का हिरण,
कोई आलाप बन, होंठों पे सजूंगा!

स्मरण हूँ, पाथेय बन, पथ में चलूंगा...

उम्र की प्रवाह में, सूनी सी राह में,
ढ़लती सी हर सांझ में, ढूंढ लेना मुझे
एकाकीपन के, विपिन प्रांतर में,
अकेली राह में, संग चलता रहूूंगा,
फूल हूँ, रंग सा, खिलता मिलूंगा!

स्मरण हूँ, पाथेय बन, पथ में चलूंगा...

Monday, 24 December 2018

क्षण बह चला

क्षण!
क्षणिक था!
कण था,
इस दरिया संग,
बह चला!

मलय,
समीरन,
इक
झौंका था!
कब आया?
जाने कब गया?
हरियल,
नादान था,
चंचल पंछी था,
जमीं पर
कब उतरा!
ठहरा,
कुछ पल,
रुका!
कब, उड़ चला!

क्षण!
क्षणिक था!
कण था,
इस दरिया संग,
बह चला!

तरसते,
सूखे से पत्ते,
सूखी,
डाली सी काया,
फिर
शिशिर आया,
रस लाया,
लाया, क्या लाया?
प्रतीक्षा के क्षण,
रहे विफल,
प्राण
गँवाया
जीवन से त्राण
कहाँ पाया,
मंद
समीर संग,
बस, उड़ चला!

क्षण!
क्षणिक था!
कण था,
इस दरिया संग,
बह चला!

वो आए,
मन को भरमाए,
चले गये!
मन के रिश्ते,
नाते,
सब तोड़ गये,
अबाध,
अनकट सूनापन,
सूना क्षण,
इक आह विरल,
छोड़ गये,
इस रिक्तता के,
प्रवाह संग,
साँसों में,
उनके ही,
अनुराग संग,
निष्ठुर सा,
समय,
बस, बह चला!

क्षण!
क्षणिक था!
कण था,
इस दरिया संग,
बह चला!

Friday, 21 December 2018

दृष्टि-पथ

इस दृष्टि-पथ से, तुम हुए थे जब ओझल...

धूमिल सी हो चली थी संध्या,
थम गई थी, पागल झंझा,
शिथिल हो, झरने लगे थे रज कण,
शांत हो चले थे चंचल बादल....

इस दृष्टि-पथ से, तुम हुए थे जब ओझल...

सिमट चुकी थी रश्मि किरणें,
हत प्रभ थे, चुप थे विहग,
दिशाएं, हठात कर उठी थी किलोल,
दुष्कर प्रहर, थी बड़ी बोझिल....

इस दृष्टि-पथ से, तुम हुए थे जब ओझल...

खामोश हुई थी रजनीगन्धा,
चुप-चुप रही रातरानी,
खुशबु चुप थी, पुष्प थे गंध-विहीन,
करते गुहार, फैलाए आँचल....

इस दृष्टि-पथ से, तुम हुए थे जब ओझल...

बना रहा, इक मैं आशावान,
क्षणिक था वो प्रयाण,
किंचित फिर विहान, होना था कल,
यूँ ही तुम, लौट आओगे चल...

इस दृष्टि-पथ से, तुम हुए थे जब ओझल...

Thursday, 20 December 2018

ढूंढ लें खुद को

कब तलक, बिसार दें खुद को!
चल कहीं, अमराइयों में ढूंढ लें खुद को....

मैं! न जाने मुझमें हूँ कहाँ?
इस भीड़ में, अस्तित्व मेरा है कहाँ?
तड़प है, घुटन है हर तरफ यहाँ,
इशारे, कर रही है रानाईयाँ,
चल कहीं, रानाईयों में ढूंढ लें खुद को....

कलियाँ, चटकती है जहाँ!
खुश्बू, हवाओं में बिखरती है जहाँ!
प्रशस्त साँसें, खुलती हैं जहाँ!
फैलाती हों दामन वादियां,
चल कहीं, वादियों में ढूंढ लें खुद को....

छू लेगी तन, जब मीठी पवन,
गुद-गुदाएगी तन, हलकी सी छुअन,
मिल लूंगा तब, मैैं खुद से वहाँ,
बातें चंद कर लेंगी तन्हाईयाँ,
चल कहीं, तन्हाईयों में ढूंढ लें खुद को....

मैं कहूँ! खुद की सुन सकूँ!
मन की अपने, कही कुछ पढ़ सकूँ,
लिख सकूँ, कर सकूँ कुछ बयाँ,
मैं भी खिला लूँ अमराइयाँ,
चल कहीं, अमराइयों में ढूंढ लें खुद को....

झूठ ही, कब तलक बिसार दें खुद को....

Tuesday, 18 December 2018

अभिलाषा

अलसाई सी पलकों में, उम्मीदें कई लिए,
यूँ देखता है रोज, आईना मुझे....

अभिलाषा की, इक नई सूची लिए,
रोज ही जगती है सुबह,
आशाएँ, चल पड़ती हैं इक उम्मीद लिए...

अभिलाषाओं की, इस बिसात पर,
चाल चलती है जिन्दगी,
उम्मीदें, भटकाती हैं अजनबी राहों पर....

निकल पड़ते हैं, घौसलों से विहग,
धुंधलाए से आकाश में,
समयबद्ध, प्रवाह में डोलते हुए डगमग....

थक हार, फिर लौट आती है सांझ,
गिनता है रातों के तारे,
बांझ होती हुई, उम्मीदों की टोकरी लिए...

छद्म आत्म-विभोर कराते आकाश,
सीमाविहीन सी शून्यता,
गहराती सी, रिक्तता का देती है आभास....

यथार्थ के इस अन्तिम से छोर पर,
आईने व चेहरों के बीच,
अभिलाषाएँ, हावी हैं फिर से उम्मीद पर...

खामोश चेहरा लिए, बोलता हैं आईना,
यूँ टोकता है रोज, आईना मुझे.....

Friday, 14 December 2018

खामोश तेरी बातें

खामोश तेरी बातें,
हैं हर जड़ संवाद से परे ...

संख्यातीत,
इन क्षणों में मेरे,
सुवासित है,
उन्मादित साँसों के घेरे,
ये खामोश लब,
बरबस कुछ कह जाते,
नवीन बातें,
हर जड़ विषाद से परे!

खामोश तेरी बातें,
हैं हर जड़ संवाद से परे ...

उल्लासित,
इन दो नैनों में मेरे,
अहसास तेरा,
है तेरे अस्तित्व से परे,
ये बहती हवाएं,
संवाद तेरे ही ले आए,
ये आमंत्रण,
हर जड़ अवसाद से परे!

खामोश तेरी बातें,,
हैं हर जड़ संवाद से परे ...

अंत-विहीन,
ऊँचे दरख्तों से परे,
तेरे ही साए,
गीत निमंत्रण के सुनाए,
अंतहीन व्योम,
तैरते श्वेत-श्याम बादल,
उनमुक्त ये संवाद,
हर जड़ उन्माद से परे !!

खामोश तेरी बातें,
हैं हर जड़ संवाद से परे ...

Sunday, 9 December 2018

मोहक दर्पण

छवि अपनी, मैं तकता हूँ जिसमें हरदम,
मोहक है मुझको, वो ही दर्पण....

प्रतिकृति दिखलाता है वो मेरी,
बेशक कुछ कमियाँ गिनवाता है वो मेरी,
दिखलाता है, वो व्यक्तित्व मेरा,
बतलाता है, ये दामन दागी है या कोरा,
मोह लिया है, यूँ जिसने मन मेरा,
मोहक है वो ही दर्पण.....

छवि अपनी, मैं तकता हूँ जिसमें हरदम...

पुण्य-पाप के, हम सब हैं वाहक,
निष्पापी होने का भ्रम, पालते हैं नाहक,
मन के ये भ्रम, तोड़ता है बिंब,
नजरें फेर जब, बोलता है प्रतिबिम्ब,
दिखलाता है, इक नया रूप मेेेेरा,
मोहक है वो ही दर्पण.....

छवि अपनी, मैं तकता हूँ जिसमें हरदम...

अपना अक्श, ढूंढने को अक्सर,
अपना परिचय खुद से, पाने को अक्सर,
जाता हूँ मैं, सम्मुख दर्पण के,
उभर आता है, समक्ष मेरे मेरा ही सच,
दिखलाता है, कैसा है मन मेरा,
मोहक है वो ही दर्पण.....

छवि अपनी, मैं तकता हूँ जिसमें हरदम,
मोहक है मुझको, वो ही दर्पण....

Saturday, 8 December 2018

परिहास

माना भारी है परिवर्तन का यह क्षण,
सुर विहीन अभी है जीवन,
ये सम पर फिर से आएंगी, तुम विश्वास करो,
ना इन पर, तुम परिहास करो.....

मेरे सपनों में, तुम भी अपना विश्वास भरो,
ना मुझ पर, तुम परिहास करो.....

नई कोपलें फिर आएंगी,
ये ठूंठ वृक्ष,
नग्न डालियाँ,
पीले से बिखरे पत्ते सारे,
सब हैं...
उस पतझड़ के मारे,
ना इन पर उपहास करो....
तुम विश्वास भरो...

ना इन पर, तुम परिहास करो.....

संसृति मृत होती नहीं,
ना ही घन,
ना ये नदियाँ,
ना ही मिटते नभ के तारे,
सब हैं...
इस मौसम के मारे,
ना इन पर उपहास करो
तुम विश्वास भरो...

जारी है ऋतुओं का क्रमिक अनुवर्तन,
रंग विहीन अभी है जीवन,
ये फिर रंगों में रंग जाएगी, तुम विश्वास करो,
ना इन पर, तुम परिहास करो.....

मेरे सपनों में, तुम भी अपना विश्वास भरो,
ना मुझ पर, तुम परिहास करो.....

Tuesday, 4 December 2018

यात्रा (JOURNEY) 2015 - 2018

मेरे मन की उद्घोषित शब्दों की अंकित या टंकित रूप है मेरी कविता "जीवन कलश"। मन भीगता है और टपकती है कुछ बूँदें इस पटल पर तो कविताएं स्वरूप ले लेती हैं । जिसे अबतक अपनो पाठकों की प्रशंसाएं व अपार प्यार मिलता रहा है।

दिसम्बर 2015 से जारी इस सफर का हर पड़ाव मुझे रोमांचित करता रहा है। अबतक 950 से अधिक रचनाएँ लिख चुका हूँ जिसे लगभग 1 लाख 19 हजार से अधिक बार दर्शकों / पाठकों द्वारा विभिन्न देशों में  पढ़़ा जा चुका है।

कई नए मित्र इस राह में मिलते गए । नए उदीयमान लेखकों से प्रेरणा भी मिलती रही।

इसी मध्य मेरी पहली कविता संग्रह की पुस्तक "अकेले प्रेम की कोशिश" (Akele Prem Ki Koshish) का प्रकाशन भी संभव हुआ जो मेरी 172 कविताओं का संकलन है। इसे आमेजन के वेबसाईट (www.amazon.com) पर आॅनलाईन भी खरीदा जा सकता है।

हमारे 10 अन्य कवियों के प्रयास से एक और साझा पुस्तक परियोजना भी प्रगति पर है, जल्द ही यह पुस्तक भी बाजार में उपलब्ध होगी।

कहें कि, एक पहचान सी मिली है मुझे,...ब्लाग के माध्यम से। सादर आभार पाठकवृन्द।