Saturday, 9 February 2019

एकाकी

रहने दो एकाकी तुम, मुझको रहने दो तन्हा!

कचोटते हैं गम, ग़ैरों के भी मुझको,
मायूस हो उठता हूँ, उस पल मैं,
टपकते हैं जब, गैरों की आँखों से आँसू,
व्यथित होता हूँ, सुन-कर व्यथा!

रहने दो एकाकी तुम, मुझको रहने दो तन्हा!

किसी की, नीरवता से घबराता हूँ,
पलायन, बरबस कर जाता हूँ,
सहभागी उस पल, मैं ना बन पाता हूँ,
ना सुन पाता हूँ, थोड़ी भी व्यथा!

रहने दो एकाकी तुम, मुझको रहने दो तन्हा!

क्यूँ बांध रहे, मुझसे मन के ये बंधन,
गम ही देते जाएंगे, ये हर क्षण,
गम इक और, न ले पाऊँगा अपने सर,
ना सह पाऊँगा, ये गम सर्वथा !

रहने दो एकाकी तुम, मुझको रहने दो तन्हा!

एकाकी खुश हूँ मैं, एकाकी ही भला,
जीवन पथ पर, एकाकी मैं चला,
दुःख के प्रहार से, एकाकी ही संभला,
बांधो ना मुझको, खुद से यहाँ!

रहने दो एकाकी तुम, मुझको रहने दो तन्हा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Tuesday, 5 February 2019

वक्त से रंजिशें

वक्त की है साजिशें, या है बेवजह की ये रंजिशें!

था बेहद ही अजीज वो,
था दिल के बेहद ही करीब वो,
चुपके से, दुनियाँ से छुपके,
पुकारा था उसे मैनें,
डग भरता वक्त,
बेखौफ आया मेरे करीब,
बनकर मेरा अजीज,
तोड़ कर ऐतबार, छोड़ शरम,
मुझसे ही, करता रहा साजिश!

वक्त की है साजिशें, या है बेवजह की ये रंजिशें!

पनाहों में अपने लेकर,
आगोश में, हौले से भर कर,
सहलाता है हँसकर,
फेरकर रुख, करवटें बदल,
रचता है साजिश,
ये रंग, ये रंगत, ये कशिश,
मेरी उम्र पुरकशिश,
पल-पल, मेरे इक-इक क्षण,
मुझसे छीन, ले जाता है संग!

वक्त की है साजिशें, या है बेवजह की ये रंजिशें!

खफा हूँ मैं वक्त से,
रास कहाँ आया है वो मुझे,
टूटा है मेरा भरम,
उसे न आया मुझपे रहम,
रहा मेरा वहम,
कि वक्त का है करम!
जुदा हुआ मुझसे,
व्यर्थ गई है सारी कोशिशें,
अब भी है, वक्त से मेरी रंजिशें!

वक्त की है साजिशें, या है बेवजह की ये रंजिशें!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday, 3 February 2019

चलते रहो

चलते रहो, तुम चलो अनन्त काल तक,
बस हाथों में, इक प्रखर मशाल हो।

अवसान हो, सांध्य काल हो,
नव-विहान हो, क्षितिज लाल हो,
धूल-धूल, गोधुलि काल हो,
रात्रि प्रहर, क्रुर काल हो,
चलते चलो, कोई ॠतुकाल हो!

चलते रहो, तुम चलो अनन्त काल तक,
बस हाथों में, इक प्रखर मशाल हो।

वियावान हो, या सघन जाल हों,
सामने तेरे खड़ा, कोई महाकाल हो,
राहों में कहीं, पर्वत विशाल हो,
भुज मे तेरे, ना कोई ढाल हो,
चलते चलो, कि लक्ष्य निढ़ाल हो!

चलते रहो, तुम चलो अनन्त काल तक,
बस हाथों में, इक प्रखर मशाल हो।

अवरोध हो, बाधा विकराल हो,
अन्तर्मन कहीं, कोई भी मलाल हो,
पथ पर, बहेलियों के जाल हो,
कठिन कितने ही, सवाल हो,
चलते चलो, पस्त तेरे न हाल हो!

चलते रहो, तुम चलो अनन्त काल तक,
बस हाथों में, इक प्रखर मशाल हो।

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

अनुबंध

अनुबंधों से परे, मन का है ये अनुबंध!

तसव्वुर में, उन्ही की यादों में मन,
होठों पे तवस्सुम, आँखों मे शबनम,
छलकते पैमाने, सूना सा आंगन,
थिरकता इक धुन, चुप-चुप सरगम,
शर्त-रहित, कोरा सा ये अनुबंध!

अनुबंधों से परे, मन का है ये अनुबंध!

तसव्वुर में, इठलाते मंडराते घन,
मुस्काते कण-कण, कंपित धड़कन,
बरसते वो घन, भीगा सा सावन,
रिश्तों की नई परिभाषा, रचता मन,
शर्त-रहित, कोरा सा ये अनुबंध!

अनुबंधों से परे, मन का है ये अनुबंध!

अंजाने शब्द, अंजानी ये भाषा,
हकीकत है, या कल्पना कोरा सा,
मन की दीवारों पर, जरा सा,
है लिखा कहीं, या है अधलिखा सा,
शर्त-रहित, कोरा सा ये अनुबंध!

अनुबंधों से परे, मन का है ये अनुबंध!

चैन जरा सा, बेचैनी सी हर पल,
अनुबंधों से परे, मन कहता यूँ चल,
बंध रहित  अनुबंधों से विकल,
ऐ दिल चल, बह कहीं और निकल,
शर्त-रहित, कोरा सा ये अनुबंध!

अनुबंधों से परे, मन का है ये अनुबंध!

Wednesday, 30 January 2019

सौगातें

ले आती है वो, कितनी ही सौगातें!
सुप्रिय रूप, कर्ण-प्रिय वाणी, मधु-प्रिय बातें!

हो उठता हैं, परिभाषित हर क्षण,
अभिलाषित, हो उठता है मेरा आलिंगन,
कंपित, हो उठते हैं कण-कण,
उस ओर ही, मुखरित रहता है ये मन!

लेकर आती है वो, कितनी ही सौगातें.......

रंग चटक, उनसे लेती हैं कलियाँ,
फिर मटक-मटक, खिलती हैं पंखुड़ियां,
और लटक झूलती ये टहनियाँ,
उस ओर ही, भटक जाती है दुनियाँ!

लेकर आती है वो, कितनी ही सौगातें.......

स्वर्णिम सा, हो उठता है क्षितिज,
सरोवर में, मुखरित हो उठते हैं वारिज,
खुश्बूओं में, वो ही हैं काबिज,
हर शै, होता उनसे ही परिभाषित!

लेकर आती है वो, कितनी ही सौगातें.......

उनकी बातें, उनकी ही धड़कन,
उनकी होठों का, कर्ण-प्रिय सा कंपन,
मधु-प्रिय, चूड़ी की खन-खन,
हर क्षण सरगम, लगता है आंगन!

ले आती है वो, कितनी ही सौगातें!
सुप्रिय रूप, कर्ण-प्रिय वाणी, मधु-प्रिय बातें!

Sunday, 27 January 2019

अवधारणा

पुनर्सृजित होते हो, कल्पनाओं में तुम ही...

मूर्त रूप हो कोई, या हो महज कल्पना,
या हो तुम, मेरी ही कोई, सुसुप्त सी चेतना,
हर घड़ी, हर शब्द, तेरी ही विवेचना!

पुनर्सृजित हो जाते हो, रचनाओं में तुम ही...

यथार्थ संवेदना हो, या सिर्फ संकल्पना,
अनुभूति हो कोई, या हो महज अवधारणा,
सदियों जिसकी, की है मैंने विवेचना!

पुनर्सृजित होते हो, संवेदनाओं में तुम ही...

अमूर्त विचार, जो झकझोरती है चेतना,
कोई अन्तर्वेदना, जो तलाशती हैं संभावना,
रूप-सौन्दर्य, ना हो जिसकी विवेचना!

पुनर्सृजित होते हो, विवेचनाओं में तुम ही...
-----------------------------------------------------------
अवधारणा: चेतना का वो मूल तत्व, जो, वस्तु को उसके अर्थ तथा अर्थ को वस्तु के बिम्ब के साथ जोड़ती है और चेतना को, संवेदनात्मक बिम्बों से अलग, इक स्वतंत्र रूप से पहचानने की संभावना पैदा करती है।

Saturday, 26 January 2019

आश्वस्ति

कुछ आश्वस्त हुए, भुक-भुक जले वे दीपक....

निष्ठुर हवा के मंद झौंके,
झिंगुर के स्वर,
दूर तक, वियावान निरन्तर,
मूकद्रष्टा पहर, कौन जो तम को रोके!

भुक-भुक, वे जलते दीये,
रहे बेचैन से,
जब तक वो जिये,
संग-संग चले, निष्ठुर हवा के साये तले!

वो थी कुछ बूँद पर निर्भर,
था कहाँ निर्झर,
जलकर हुए वो जर्जर,
निर्झरिणी, सिसकती रही थी रात-भर!

जैसे थम सी गई थी रात,
जमीं थी रात,
शाश्वत तम का पहरा,
आश्वस्ति कहाँ, बुझा-बुझा था प्रभात!

दीप के हृदय में सुलगती,
कुछ तप्त बूँदें,
दे रही थी आश्वस्ति,
तम ढ़ले, रोक कर न जाने को कहती!

कुछ आश्वस्त हुए, भुक-भुक जले वे दीपक....

Monday, 21 January 2019

अभागिन

कदाचित्, न कहना खुद को तुम अभागिन!

स्नेह वंचित, एक बस तू ही नहीं,
नीर सिंचित, नैन बस इक तेरे ही नहीं,
कंपित हृदय, सिर्फ तेरा ही नहीं,
किंचित्, भरम ये रखना नहीं,
नैन कितनों के जगे, तारे गिन-गिन!

कदाचित्, न कहना खुद को तुम अभागिन!

भाग्य, लिखता कोई खुद से नहीं,
मनचाहा, मिलता हमेशा सबको नहीं,
हासिल है जो, वो कम तो नहीं!
पाकर उसे, बस खोना नहीं,
सहेज लेना, हिस्से के वो पलक्षिण!

कदाचित्, न कहना खुद को तुम अभागिन!

पिपासा है ये, जो मिटती नहीं,
अभिलाषा अनन्त, कभी घटती नहीं,
तृष्णा है ये, कभी मरती नहीं,
खुशियाँ कहीं, बिकती नहीं,
पलटते नहीं, बीत जाते हैं जो दिन!

कदाचित्, न कहना खुद को तुम अभागिन!

विधि का विधान, जाने विधाता,
न जाने भाग्य में, किसके लिखा क्या,
पर, हर रात की होती है सुबह,
सदा ही, अंधेरा रहता नहीं,
हो न हो, बुझ रहा हो रात पलक्षिण।

कदाचित्, न कहना खुद को तुम अभागिन!

सम्भल ऐ गमे-दिल

सम्भल ऐ गमे-दिल, न हो जिन्दगी से खफा!

चल कहीं निकल, न संताप में तू जल,
बन जा विहग, आकाश पे मचल,
छोड़ दे ये दायरे, उन सितारों के पास चल,
खुद को न यूँ, तू दिवानगी में जला!

सम्भल ऐ गमे-दिल, न हो जिन्दगी से खफा!

रात का प्रहर, चाँद विंहस रहा मचल,
हँस रही ये रात भी, गा रही गजल,
तू न मौन रह, गुनगुना ले संग तू भी चल,
घुट-कर न यूँ, जीवन के क्षण बिता!

सम्भल ऐ गमे-दिल, न हो जिन्दगी से खफा!

कम न होता यहाँ, जिन्दगी का आँचल,
छँट ही जाते हैं, गम के ये बादल,
बरस गए जरा, ये पल में हो जाएंगे विरल,
शुन्य में कहीं, यूँ खुद को ना भुला!

सम्भल ऐ गमे-दिल, न हो जिन्दगी से खफा!

Friday, 18 January 2019

शिशिर

शिशिरे स्वदंते वहितायः पवने प्रवाति!
(अर्थात् , शिशिर में ठंढी हवा बहती है, तो आग तापना मीठा लगता है)

धवल हुई दिशा-दिशा,
उज्जवल वसुंधरा,
अंबर एकाकार हुए,
कण-कण ओस भरा,
पात-पात हुए प्रौढ़,
टूट-टूट चहुँओर गिरा,
पतझड़ का इक बयार, शिशिर ले आया!

जीर्ण-शीर्ण सा काया,
फिर से है इठलाया,
पूर्णता, सरसता, रोचकता,
यौवन रस भर लाया,
रसयुक्त हुए पोर पोर,
खिली डार-डार कलियाँ,
नव-श्रृजन का श्रृंगार , शिशिर ले आया !

शीतल विसर्गकाल,
ठंढ कड़ाके की लाया,
घनेरा सा कोहरा,
संसृति को ढ़कने आया,
प्रस्फुटित हुई कली,
नव-सृजन करने चली,
नव-जीवन का विहान, शिशिर ले लाया!

कण-कण में स्पंदन,
फूलों पर भौरों का गुंजन,
कलियों में कंपन,
झूम रही वो बन-ठन,
ठंढी-ठंढ़ी छुअन,
चहुँ दिश छाया सम्मोहन,
मन-भावन ये निमंत्रण, शिशिर ले आया!