तुम्हारी वो ही बातें, फिर सताने लगी है कल से..
हर बंधनों से, मुक्त था मैं कल तक,
यादें वही, ले आई है तुझ तक,
दूर जाऊँ मैं कैसे, मन को समझाऊँ मैं कैसे,
मुक्त, जाल से हो पाऊँ मैं कैसे,
मन पे घिरने लगे हैं, फिर वही जाल कल से..
तुम्हारी वो ही बातें, फिर सताने लगी है कल से..
वो अंतहीन सी, तुम्हारे प्रश्नों की लड़ी,
वो हँसी की, गूंजती फुलझड़ी,
प्रश्न के उस जाल में, बस मेरा उलझ जाना,
अनुत्तरित प्रश्नों का, वो जमाना,
मन को जलाने लगे, फिर वही प्रश्न कल से...
तुम्हारी वो ही बातें, फिर सताने लगी है कल से..
कभी चुपके, तुम्हारा दबे पाँव आना,
फेरकर नजरें, वहीं बैठ जाना,
मिन्नतों का फिर, अनथक सा वो सिलसिला,
हर बात पर, कोई शिकवा गिला,
तड़पाने लगे हैं मन, फिर वही बात कल से...
तुम्हारी वो ही बातें, फिर सताने लगी है कल से..
किसी झील सा, यूँ गुम-सुम सा था मैं,
ठहरा वहीं, चुप-चुप सा था मैं,
वही आहट सी आई, कोई हलचल सी लाई,
यादें तेरी, फिर कहीं झिलमिलाई,
मन को रुलाने लगे, फिर वही याद कल से..
तुम्हारी वो ही बातें, फिर सताने लगी है कल से..
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
हर बंधनों से, मुक्त था मैं कल तक,
यादें वही, ले आई है तुझ तक,
दूर जाऊँ मैं कैसे, मन को समझाऊँ मैं कैसे,
मुक्त, जाल से हो पाऊँ मैं कैसे,
मन पे घिरने लगे हैं, फिर वही जाल कल से..
तुम्हारी वो ही बातें, फिर सताने लगी है कल से..
वो अंतहीन सी, तुम्हारे प्रश्नों की लड़ी,
वो हँसी की, गूंजती फुलझड़ी,
प्रश्न के उस जाल में, बस मेरा उलझ जाना,
अनुत्तरित प्रश्नों का, वो जमाना,
मन को जलाने लगे, फिर वही प्रश्न कल से...
तुम्हारी वो ही बातें, फिर सताने लगी है कल से..
कभी चुपके, तुम्हारा दबे पाँव आना,
फेरकर नजरें, वहीं बैठ जाना,
मिन्नतों का फिर, अनथक सा वो सिलसिला,
हर बात पर, कोई शिकवा गिला,
तड़पाने लगे हैं मन, फिर वही बात कल से...
तुम्हारी वो ही बातें, फिर सताने लगी है कल से..
किसी झील सा, यूँ गुम-सुम सा था मैं,
ठहरा वहीं, चुप-चुप सा था मैं,
वही आहट सी आई, कोई हलचल सी लाई,
यादें तेरी, फिर कहीं झिलमिलाई,
मन को रुलाने लगे, फिर वही याद कल से..
तुम्हारी वो ही बातें, फिर सताने लगी है कल से..
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा