Wednesday, 6 May 2020

प्याले

कल तलक, छलक ही जाते थे ये प्याले,
होठों तलक, यूँ आते-आते!
कोलाहल, वो कल के,
खन-खन वो, हल्के-हल्के से,
ठहाकों के गूंज, थे जो दो पल के,
विस्मित से, कर गए वो पल,
विस्तृत हुए ये अस्ताचल,
सिमटने लगे फलक!

चुप भी करो, बस यूँ ही, तसल्ली न दो,
हो चले हैं, खाली ये प्याले,
छलकेंगे, अब ये कैसे,
छू लूँ, तो खनक ही जाएंगे!
हैं गम से ये भरे, टूट ही जाएंगे,
थम जाने दो, ये कोलाहल,
पी चुके, हम, हलाहल,
सर्द आहें न भरो!

गर हो संभव, अतीत, वो ही लौटा दो,
मिटा दो, व्यतीत पलों को,
मोड़ दो, वक्त के रुख,
ये टुकड़े, हृदय के, जोड़ दो,
फिर से छलकाओ, वो ही प्याले,
ठहर जाएं, बहते ये पल,
आए ना, अस्ताचल,
गर हो ये संभव!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 2 May 2020

लाॅकडाउन

उलझे ये दिन है, कितने सवालों में!
घिर कर, अपने ही उजालों में, 
जीवन के जालों में!

बीता हूँ कितना, कितना मैं बचा हूँ?
कितना, मैं जीवन को जँचा हूँ,
हूँ शेष, या अवशेष हूँ,
भस्म हूँ या भग्नावशेष हूँ,
या हवन की रिचाओं में रचा हूँ!

उलझाते रहे, बीतते लम्हों के हिस्से,
छीनते रहे, मुझको ही मुझसे,
मेरे, जीवन के किस्से,
कैद हो चले, मेरे वो कल,
बचे हैं शेष, आखिरी ये हिस्से!

कतई ऐसा न था, जैसा मैं आज हूँ,
जैसे पहेली, या मैं इक राज हूँ,
बिल्कुल, अलग सा,
तन्हा, सर्वथा लाॅकडाउन हूँ,
बुत इक अलग , मैं बन गया हूँ !

सम्भाल लूँ अब, जो थोड़ा बचा हूँ!
जो उनकी, किस्सों में रचा हूँ,
बीत जाना, भी क्या?
तनिक शेष, रह जाऊँ यहाँ,
यूँ ही व्यतीत हो जाना भी क्या?

उलझे ये दिन है, कितने सवालों में!
घिर कर, अपने ही उजालों में, 
जीवन के जालों में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 27 April 2020

हर बार - (1200वाँ पोस्ट)

बाकी, रह जाती हैं, कितनी ही वजहें,
कितने ही सफहे,
कुछ, लिखने को हर बार!

कभी, चुन कर, मन के भावों को,
कभी, सह कर, दर्द से टीसते घावों को,
कभी, गिन कर, पाँवों के छालों को,
या पोंछ कर, रिश्तों के जालों को,
या सुन कर, अनुभव, खट्ठे-मीठे, 
कुछ, लिखता हूँ हर बार!

फिर, सोचता हूँ, हर बार,
शायद, फिर से ना दोहराए जाएंगे, 
वो दर्द भरे अफसाने,
शायद, अब हट जाएंगे, 
रिश्तों से वो जाले,
फिर न आएंगे, पाँवों में वो छाले,
उभरेगी, इक सोंच नई,
लेकिन! हर बार,
फिर से, उग आते हैं,
वो ही काँटें,
वो ही, कटैले वन,
मन के चुभन,
वो ही, नागफनी, हर बार!
अधूरी, रह जाती हैं,
लिखने को,
कितनी ही बातें, हर बार!

फिर, चुन कर, राहों के काँटों को,
फिर, पोंछ कर, पाँवों से रिसते घावों को,
फिर, बुन कर, सपनों के जालों को,
देख कर, रातों के, उजालों को,
या, तोड़ कर, सारे ही मिथक,
कुछ, लिखता हूँ हर बार!

फिर भी, रह जाती हैं कितनी वजहें,
कितने ही सफहे,
कुछ, लिखने को हर बार!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 26 April 2020

200000 पेज व्यू : शुक्रिया पाठकगण

माननीय पाठकगण,

अब तक 200000 (दो लाख) से अधिक PAGEVIEW हेतु कविता "जीवन कलश" के समस्त पाठकगणों का शुक्रिया व अभिवादन।
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आभार - REFERRING SITES
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कोटिशः धन्यवाद, नमन व आभार।

                - पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday, 25 April 2020

कलयुग का काँटा

इस अरण्य में, बरगद ना बन पाया,
काँटा ही कहलाया,
कुछ तुझको ना दे पाया,
सूनी सी, राहों में,
रहा खड़ा मैं!

इक पीपल सा, छाया ना बन पाया,
बन भी क्या पाता?
इस कलयुग का, काँटा!
रोड़ों सा राहों में, 
रहा पड़ा मैं!

सत्य की खातिर, सत्य पर अड़ा मैं,
वो अपने ही थे,
जिनके विरुद्ध लड़ा मैं,
अर्जुन की भांति,
सदा खड़ा मैं!

धृतराष्ट्र नहीं, जो बन जाता स्वार्थी,
उठाए अपनी अर्थी,
करता कोई, छल-प्रपंच,
सत्य की पथ पर,
सदा रहा मैं!

संघर्ष सदा, जीवन से करता आया,
लड़ता ही मैं आया,
असत्य, जहाँ भी पाया,
पर्वत की भांति,
रहा अड़ा मैं!

गर, कर्म-विमुख, पथ पर हो जाता,
रोता, मैं पछताता,
ईश्वर से, आँख चुराता,
मन पे इक बोझ,
लिए खड़ा मैं!

इस अरण्य में, बरगद ना बन पाया,
बन भी क्या पाता?
इस कलयुग का, काँटा!
कंकड़ सा राहों में, 
रहा पड़ा मैं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 24 April 2020

भ्रम

यूँ, तट से, ना बह दूर कहीं!

बहते कहाँ, बहावों संग, तीर कहीं,
रह जाती सह-सह, पीर वहीं,
ऐ अधीर मन, तू रख धीर वही,
यूँ, तट से, ना बह दूर कहीं!

तूफाँ हैं दो पल के, खुद बह जाएंगे,
बहती सी है ये धारा, कब तक रुक पाएंगे,
परछाईं हैं ये, हाथों में कब आएंगे,
ये आते-जाते से, साए हैं घन के,
छाया, कब तक ये दे पाएंगे?
इक भ्रम है, मिथ्या है, रह इनसे, दूर कहीं,
यूँ, तट से, ना बह दूर कहीं!

गर चाहोगे, तो प्यास जगेगी मन में,
गर देखोगे, परछाईं ही उभरेगी दर्पण में,
बुन जाएंगे जाले, ये भ्रम जीवन में,
उलझाएंगे ही, ये धागे मिथ्या में,
सुख, कब तक ये दे पाएंगे?
इक छल है, तृष्णा है, रह इनसे, दूर कहीं,
यूँ, तट से, ना बह दूर कहीं!

पिघले-पिघले हो, मन में नीर सही,
अनवरत उठते हों, पीर कहीं,
भींगे-भींगे हों, मन के तीर सही,
यूँ, तट से, ना बह दूर कहीं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 18 April 2020

वे लिख गए क्या

क्या लिख गए वो, मुझको सुना?
ऐ हवा, जरा तू गुनगुना!

कोई तो बात है, जो महकी सी ये रात है!
या कहीं, खिल रहा परिजात है!
नींद, नैनों से, हो गए गुम,
कुछ तो बता, लिख रही क्या रात है!

मुस्कुराए ये फूल क्यूँ, डोलते क्यूँ पात है?
शायद, कोई, दे गया सौगात है!
चैन, अब तो, हो गए गुम,
कुछ तो बता, कह रही क्या पात हैं!

क्यूँ बह रही पवन, कैसी ये, झंझावात है?
किसी से, कर रही क्या बात है?
हो रही, कैसी ये विचलन?
बता दे, क्यूँ झूमती ये झंझावात है?

कुछ है अधूरा, अधलिखा सा जज्बात हैं!
उलझाए मुझे, ये कैसी बात है!
झकझोर जाती है ये बातें,
तु मुझको बता, ये कैसे जज्बात हैं?

क्या लिख गए वो, मुझको सुना?
ऐ हवा, जरा तू गुनगुना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 16 April 2020

बिछड़न

दो साँसों की, बहती दोराहों में,
बिछड़े बहुतेरे...
बिखरे पत्तों पर, रोया कब तरुवर, 
टूटे पत्थर पर, रोया कब गिरिवर,
ये, जीवन के फेरे!

लय अपनी ही, फिर भी, चलती है साँसें,
बस, दो पल आह, हृदय भर लेता है,
फिर, राह पकड़, चल पड़ता है,
बहते नैनों मे, फिर भर जाते हैं सपने,
फिर, गैर कई, बन जाते हैं अपने!
देकर सपन सुनहरे!

दो साँसों की, बहती दोराहों में,
बिछड़े बहुतेरे...

कब टूटे तारों पर, शोक मनाता है अंबर,
बस, दो पल, ठिठक, जरा जाता है,
फिर, चंदा संग, वो इठलाता है,
फिर, लगते हैं घुलने, दो भाव परस्पर,
सँवर उठता है, संग तारों के अंबर!
कट जाते हैं अंधेरे!

दो साँसों की, बहती दोराहों में,
बिछड़े बहुतेरे...

शायद, जीवन का, आशय है, बिछड़न,
आँसू संग, हृदय जरा धुल जाता है,
पल विरह का, यूँ टल जाता है,
फिर, बनती है, जीवन की, इक धुन,
छनक उठती है, पायल रुन-झुन!
सूने हृदय बहुतेरे!

सूनी राहों पर, चल पड़ता है सहचर,
कोई राही, बन जाता है रहबर,
ये, जीवन के घेरे!
दो साँसों की, बहती दोराहों में,
बिछड़े बहुतेरे...

-पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 14 April 2020

एक टुकड़ा

हजारों, गुजरते हुए पलों से,
एक टुकड़ा पल,
चाहा था,
मैंने,
आसमां नहीं,
एक टुकड़ा बादल!

अनभिज्ञ, था मैं कितना,
कब, ठहरा है बादल! कब, ठहरा है पल!
दरिया है, बहता है, कल-कल,
निर्बाध! निरंतर...
होता, आँखों से ओझल!

बस, ठहरा था, इक मैं ही,
और सामने, खुला नीलाभ सा, आसमां,
वियावान सा, इक नीला जंगल,
अगाध! अनंतर...
गहराता, शून्य सा आँचल!

निरंकुश, था वो कितना,
दे गईं, स्मृतियाँ! कर गईं, कुछ बोझिल!
हिस्से के, मेरे ही, वो कुछ पल,
संबाध! निरंतर...
बिखरे-बिखरे, वो बादल!

हजारों, गुजरते हुए पलों से,
एक टुकड़ा पल,
चाहा था,
मैंने,
आसमां नहीं,
एक टुकड़ा बादल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 12 April 2020

प्यासा

इतना, छलका-छलका सा!
हैरान हूँ मैं, ये सागर भी है प्यासा!
यूँ ही, भटका-भटका सा!
इन हवाओं को भी,
इक मंद समीर, की है आशा!

ऐ सागर, ऐ समीर!
तू खुद है पूर्ण,
फिर तू, इतना क्यूँ है अधीर?

अथाह हो तुम, लेकिन तुझमें है चंचलता,
अस्थिर, कितना मन तेरा!
कितना चाहे, मन, तेरा क्यूँ इतना चाहे?
अपरिमित सी, तेरी इक्षाएँ,
दूर वही भटकाए!

लालशा ये तेरी, लेकर आई है अपूर्णता,
अतृप्त, कितना मन तेरा!
कैसी चाहत? क्यूँ तुझको, नहीं राहत?
पल-पल, तेरी ये लिप्शाएं,
तुझको छल जाए!

ऐ सागर, ऐ समीर!
ना हो अधीर!

तुझ तक, चल कर,
खुद आई, कितनी ही नदियाँ, 
खुद आए, पवन झकोरे,
थे, ये सारे,
इक्षाओं, लिप्साओं से परे,
तुझमें ही खोए!

इतना, हलका-हलका सा,
जीवन हूँ मैं, ले जा जीने की आशा!
क्यूँ है, प्यासा-प्यासा सा?
है, इस जीवन को भी,
इक मंद सलील, की ही आशा!

-पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)