Wednesday, 16 December 2020

आसां नहीँ

आसां नही, किसी के किस्सों में समा जाना,
रहूँ मैं जैसा! हूँ मगर आज का हिस्सा,
कल के किस्सों में, शायद रह जाऊँ बेगाना!
आसां नहीं, किसी और का हो जाना!

जीवंत, एक जीवन, सुसुप्त करोड़ों भावना,
कितना ही नितांत, उनका जाग जाना!
कितने थे विकल्प, पर न थी एक संभावना,
आसां नहीं, किसी और का हो जाना!

मन की किताबों पर, कोई लिख जाए कैसे!
मौन किस्सों का हिस्सा, बन जाए कैसे!
कपोल-कल्पित, सारगर्भित सा मेरा तराना,
आसां नहीं, किसी और का हो जाना!

ये हैं चह-चहाहटें, है ये ही कल की आहटें,
जीवंत संवेदनाओं की, मूक लिखावटें!
सुने ही कौन, ये अनगढ़ा, मूक सा फ़साना,
आसां नहीं, किसी और का हो जाना!

क्यूँ कोई बनाए, किसी को याद का हिस्सा,
क्यूँ कोई पढ़े, कोई अनगढ़ा सा किस्सा,
क्यूँ कोई संभाले, किसी और की संवेदना,
आसां नहीं, किसी और का हो जाना!

पहर दोपहर, बढ़ा, असंवेदनाओं का शहर,
मान कर अमृत, पान कर लेना ये जहर,
रख संभालना, जीवंत भावना व संवेदना,
आसां नहीं, किसी और का हो जाना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 15 December 2020

आ भी जाओ

आ भी जाओ कि अबकी बहार आए!

कोई खेल कैसे, अकेले ही खेले!
कोई बात कैसे, खुद से कर ले अकेले!
तेरे बिन ये मेले, मुझको न भाए!

आ भी जाओ कि अबकी बहार आए!

फागुन भी हारे, खो गए रंग सारे,
नैन, तुझको ना बिसारे, उधर ही निहारे,
तुम बिन ये रंग, मुझको न भाए!

आ भी जाओ कि अबकी बहार आए!

बेरंग से ये फूल, तकती हैं राहें,
चुप-चुप सी कली, तुझको ही पुकारे,
रंग ये उदास, मुझको न भाए!

आ भी जाओ कि अबकी बहार आए!

सूनी सी पड़ी, कब से ये गलियाँ,
गई जो बहारें, फिर न लौट आई यहाँ,
विरान गलियाँ, मुझको न भाए!

आ भी जाओ कि अबकी बहार आए!

वो, कल के तराने, न होंगे पुराने,
ले आ वही गीत, वो ही गुजरे जमाने,
ये नए से तराने, मुझको न भाए!

आ भी जाओ कि अबकी बहार आए!

जा कह दे, उन बहारों से जाकर,
वो ही तन्हाई में, गुम न जाए आकर,
ये लम्हात तन्हा, मुझको न भाए!

आ भी जाओ कि अबकी बहार आए!

भूले कोई कैसे वो सावन के झूले,
कोई दूर कैसे, खुद से, रह ले अकेले!
बूंदें! ये तुम बिन, मुझको न भाए!

आ भी जाओ कि अबकी बहार आए!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 13 December 2020

देश को न बाँटिए

अधिकार-पूर्वक, मांगिए,
मतलब साधिए,
भले ही,
पर, देश को न बाँटिए!

जयचंद न बनिए,
राह, जिन्ना की न चलिए,
देखे हैं हमनें, पराधीनता की पराकाष्ठा,
फिर, डिग न जाए, ये आस्था,
देश ये, बँट न जाए,
अपने हाथों, हाथ अपना, 
कट न जाए,
एक जिन्ना, राष्ट्र को ही, बाँट बैठा,
हाथ, खुद ही अपना, काट बैठा,
बचे हैं, कुछ रक्तबीज,
रोज ही, बोते हैं जो,
विभाजन के, रक्तिम विषैले-बीज!
पर, अब न होने देंगे, हम,
और विभाजन!
आप, सियासतें कीजिए,
रियायतें लीजिए,
भले ही,
पर, देश को न बाँटिए!

स्वार्थ-वश, होकर विवश,
कुछ भी बांचिए,
भले ही,
पर, देश को न बाँटिए!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

निराधार आकाश

निराधार तो नहीं, कहीं ये आकाश मेरा!
डिग रहा क्यूँ, विश्वास मेरा!

देशहित से परे, न आंदोलन कोई,
देशहित से बड़ा, होता नहीं निर्णय कोई,
देशहित से परे, कहाँ संसार मेरा,
देशहित ही रहा संस्कार मेरा,
पर, डिग रहा क्यूँ, विश्वास मेरा!

निराधार तो नहीं, कहीं ये आकाश मेरा!

प्रतिनिधि चुना, खुद मैंने हाथों से,
प्रभावित कितना था मैं, उनकी बातों से!
इक दीप सा था, वो प्रकाश मेरा,
खड़ा सामने था, इक सवेरा,
पर, डिग रहा अब, विश्वास मेरा!

निराधार तो नहीं, कहीं ये आकाश मेरा!

अंधेरों में, रुक चुका है ये कारवाँ,
भरोसे के काबिल, शायद, न कोई यहाँ!
रिक्तियों से भरा, अंकपाश मेरा,
निःपुष्प सा, ये पलाश मेरा,
डिगने लगा है, अब विश्वास मेरा!

निराधार तो नहीं, कहीं ये आकाश मेरा!

चालें, अपनी ही, नित चलता रहा,
वो फरेबी, इक चक्रव्यूह ही रचता रहा,
कल तक, वो था संगतराश मेरा,
ले न आए वही, विनाश मेरा!
ऐसा डिग रहा अब, विश्वास मेरा!

निराधार तो नहीं, कहीं ये आकाश मेरा!

सर्वोपरि हो, देश हित, फिर हैं हम,
पर उसी नें इस देश में, फैलाया है भ्रम,
इक अंधकार में है, आकाश मेरा,
निराधार ही था, विश्वास मेरा!
ऐसा डिग चला अब, विश्वास मेरा!

निराधार तो नहीं, कहीं ये आकाश मेरा!
डिग रहा क्यूँ, विश्वास मेरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 12 December 2020

पलों के यूकेलिप्टस

नहीं, कुछ भी नहीं!
तुम, न हो तो, कहीं कुछ भी नहीं!

हाँ, बीत जाते हैं जो, साथ होते नहीं,
पर वो पल, बीत पाते हैं कहाँ!
सजर ही आते हैं, कहीं, मन की धरा पर,
पलों के, विशाल यूकेलिप्टस!
लपेटे, सूखे से छाले,
फटे पुराने!

नया, कुछ भी नहीं....

बीत जाते हैं युग, वक्त बीतता नहीं,
कुछ, वक्त के परे, रीतता नहीं!
अकेले ही भीगता, पलों का यूकेलिप्टस,
कहीं शून्य में, सर को उठाए!
लपेटे, भीगे से छाले,
फटे पुराने!

नया, कुछ भी नहीं....

हाँ, पुराने वो पल, पुरानी सी बातें,
गुजरे से कल, रुहानी वो रातें!
उभर ही आते हैं, कहीं, मन की धरा पर,
लह-लहाते, वो यूकेलिप्टस!
लपेटे, रूखे से छाले,
फटे पुराने!

और, कुछ भी नहीं!
तुम, न हो तो, कहीं कुछ भी नहीं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 11 December 2020

और कितना

और कितने, राज गहरे खोलोगे तुम!
और कितना, बोलोगे तुम!

सदियों तलक, चुप रहे कल तक,
ज्यूँ, बेजुबां हो कोई,
इक ठहरी नदी, कहीं हो, खोई-खोई,
पर, हो चले आज कितने,
चंचल से तुम!

और कितने, राज गहरे खोलोगे तुम!
और कितना, बोलोगे तुम!

रहा मैं, किनारों पे खड़ा, चुपचाप,
बह चली थी वो धारा,
बेखबर, जाने किसका था, वो ईशारा,
बस बह चले थे, प्रवाह में,
निर्झर से तुम!

और कितने, राज गहरे खोलोगे तुम!
और कितना, बोलोगे तुम!

बज उठा, कंदराओं में संगीत सा,
गा उठी, सूनी घाटियाँ,
चह-चहा उठी, लचक कर, डालियाँ,
छेड़ डाले, अबकी तार सारे,
सितार के तुम!

और कितने, राज गहरे खोलोगे तुम!
और कितना, बोलोगे तुम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

सूना गगन

झाँक लेना, सूना सा, गगन भी यदा-कदा!
इक छवि, तेरी ही दिखलाएगा सदा!

देखती हैं, तुझको ही ये चारो दिशाएँ,
झुक-झुक कर, क्षितिज पर, तुझको बुलाएं,
तारे हैं कई, पर विरान है गगन, 
तुम बिन सर्वदा!

झाँक लेना, सूना सा, गगन भी यदा-कदा!
इक छवि, तेरी ही दिखलाएगा सदा!

कौन जाने, किस घड़ी, छा जाए घटा,
चमके बिजलियाँ, हो न, सुबह सी ये छटा,
घिर न जाए, तूफानों में, गगन,
तुम बिन सर्वदा!

झाँक लेना, सूना सा, गगन भी यदा-कदा!
इक छवि, तेरी ही दिखलाएगा सदा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 9 December 2020

शिकवा

शिकवा ही सही, कुछ तो कह जाते!
तुम जो गए, बिन कुछ कहे,
खल गई, बात कुछ!

करते गर, तुम शिकायत,
निकाल लेते, मन की भड़ास सारी!
जान पाता, मैं वजह,
पर, बेवजह, 
इक धुँध में खो गए, बिन कुछ कहे,
खल गई, बात कुछ!

डिग चला, विश्वास थोड़ा,
अपनाया जिसे, क्यूँ, उसी ने छोड़ा!
उजाड़ कर, इक बसेरा,
ढूंढ़ते, सवेरा,
इक राह में खो गए, बिन कुछ कहे,
खल गई, बात कुछ!

बेहतर था, मिटा लेते शिकायतें सारी,
सुनी तुमने नहीं, मिन्नतें मेरी,
खल गई, बात कुछ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
    (सर्वाधिकार सुरक्षित)

उम्मीद की किरण

नन्हीं सी इक लौ, बुझ न पाई रात भर,
वो ले आई, धूप सुबह की!

उम्मीद थी वो, भुक-भुक रही जलती,
गहन रात की आगोश में,
अपनी ही जोश में,
पलती रही!
वो पहली किरण थी, धूप की!

उजाले ही उजाले, बिखरे  गगन पर,
इक दिवस की आगोश में,
नए इक जोश में,
हँसती रही,
वो उजली किरण सी, धूप की!

ये दीप, आस का, जला उम्मीद संग,
तप्त अगन की आगोश में,
तनिक ही होश में,
खिलती रही,
वो धुंधली किरण सी, धूप की!

नन्हीं सी इक लौ, बुझ न पाई रात भर,
वो ले आई, धूप सुबह की!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 6 December 2020

जीवट

यह मानव, जीवट बड़ा!
गिरता, हर-बार होता, उठ खड़ा,
जख्म, कितना भी हो हरा!
विघ्न, बाधाओं से, वो ना डरा,
समय से लड़ा, मानव,
जीवट बड़ा!

या विरुद्ध, बहे ये धारा!
हो, पवन विरुद्ध, दूर हो किनारा,
ना अनुकूल, कोई ईशारा!
प्रतिकूल, तूफानों से, वो लड़ा,
डरा कभी ना, मानव,
जीवट बड़ा!

आईं-गईं, प्रलय कितनी!
घिस-घिस, पाषाण, हुई चिकनी,
इक संकल्प, हुई दृढ़ उतनी,
कई युग देखे, बनकर युगद्रष्टा,
श्रृष्टि से लड़ा, मानव,
जीवट बड़ा!

युगों-युगों से, रहा खड़ा!
वो पीर, पर्वत सा, बन कर अड़ा,
चीर कर, धरती का सीना,
सीखा है उसने, जीवन जीना,
हारा है कब, मानव,
जीवट बड़ा!

जंग अभी, है यह जारी!
विपदाओं पर, है यह मानव भारी,
इक नए कूच की, है तैयारी,
अब, ब्रम्हांड विजय की है बारी,
ठहरा है कब, मानव,
जीवट बड़ा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)