यूँ हुआ, जैसे इस होली, रंगों नें छू लिया!
भारी थी इक-इक साँसें, मुस्काते वो कैसे,
मुरझाए चेहरों को, भा जाते वो कैसे,
पर, फिर जीवन की, इक उम्मीद जगी थी,
आशाओं की, इक डोर बंधी थी,
फाल्गुनी, एहसासों नें ही कुछ किया...
यूँ हुआ, जैसे इस होली, रंगों नें छू लिया!
फीके से पल सारे, गहरे रंगों में डूब चले,
मन को, पुरवैय्यों के झौंके, लूट चले,
ये चैती बयार, मुस्काती, कुछ यूँ आई थी,
आशाओं के, कुछ पल ले आई थी,
जिन्दा, एहसासों को उसने ही किया...
यूँ हुआ, जैसे इस होली, रंगों नें छू लिया!
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