Friday, 23 February 2024

कहां ये मन

कहीं हूं मैं, और, कहीं ये मन...
उड़ चला कहीं,
न जाने, क्यूं गया कहीं?
बिन कहे,
कहीं, भटका ये मन!

वश में, यूं भी तो, कब ये मन!
करे अपनी ही,
कहे, बहकी बातें कई,
न समझे,
रिवाजों को, ये मन!

उलझाए, भीगे से जज्बातों में!
रुलाए, रातों में,
पहेली अनसुलझी सी,
कह जाए,
इन कानों में ये मन!

जाने, अब, ठौर कहां मन का!
जैसे, हो दरिया,
या, चंचल इक खुश्बू,
बह जाए,
बहा ले जाए, ये मन!

कहीं हूं मैं, और, कहीं ये मन...
जाने, ढूंढ़े क्या!
यूं लगता, कोई ठौर नया!
या वो ढूंढ़े,
संगी दूजा ही ये मन!

Monday, 12 February 2024

दास्तां

ना थी खबर, ये दो किनारे हैं अलग,
सर्वथा, समानांतर और पृथक,
पाट पाएं, कब इन्हें,
गुजरती सदी और उम्र की नदी,
अब जो है ये इल्जाम....

न ये था पता, पल में बनती है दास्तां,
गुजरती हैं, पलकों में सदियां,
भरता, ये ज़ख्म कहां!
बदलती हैं कहां, पल के दास्तां,
और, किस्से वो तमाम.... 

अब ये दास्तां, यही राह और रास्ता,
उन्हीं सदियों से, इक वास्ता,
कैसे हों भला, पृथक,
सदी और गुजरती उम्र की नदी,
पिघलता सा हर शाम....

Saturday, 10 February 2024

सरसों

सुस्मित सरसों, मधुमित-मुखरित सरसों!

मोहक लागे, मोहे वो बंधन, वो धागे,
पीत, आंचल संग,
बांध गई, बरसों पहले, 
जो सरसों!

सुस्मित सरसों, मधुमित-मुखरित सरसों!

धुंधलाती कोहरों में, कभी छुप जाए,
शर्माए, दुल्हन सी,
अनुरक्ति और बढ़ाए,
ये, सरसों!

सुस्मित सरसों, मधुमित-मुखरित सरसों!

यूं भटकाए राह, यूं पथिक उलझाए,
खैंच लाए, बर्बस,
हिय, हर्षित कर जाए,
वो सरसों!

सुस्मित सरसों, मधुमित-मुखरित सरसों!

हर्षाए धरा, झूम हरितिमा इठलाए,
झूमे, बिखरी घटा,
बिखेरे, स्वर्णिम छटा,
यूं, सरसों!

सुस्मित सरसों, मधुमित-मुखरित सरसों!

अरसों, दामन फैलाए देती निमंत्रण,
सिक्त, आंचल संग,
भीगो गई, बरसों पहले, 
वो सरसों!

सुस्मित सरसों, मधुमित-मुखरित सरसों!

Wednesday, 7 February 2024

और आज

और आज, फिर, नीरवता है फैली!

भुलाए न भूले, वे छलावे, वे झूले,
झूठे, बुलावे, वो कल के,
सांझ का आंगना,
हँसते, तारों की टोली!

और आज, फिर, नीरवता है फैली!

रंगीन वो क्षितिज, कैसी गई छली!
उसी दिन की तरह, फिर,
फैले हैं रंग सारे,
पर, फीकी सी है होली!

और आज, फिर, नीरवता है फैली!

सोए वे ही लम्हे, फिर उठे हैं जाग,
फिर, लौटा वो ही मौसम,
जागे वे शबनम,
बरसी बूंदें फिर नसीली!

और आज, फिर, नीरवता है फैली!

फिर आज, भीग जाएंगी, वो राहें,
खुल ही जाएंगी, दो बाहें,
सजाएंगी सपने,
वे दो पलकें अधखुली!

और आज, फिर, नीरवता है फैली!

Sunday, 4 February 2024

उस रोज

नीरव से, बहते उस पल में,
ठहरे से, जल में,
हलचल कितने थे, उस रोज!

उस रोज!
ठहरा था, सागर पल भर को,
विवश, कुछ कहने को,
उस, बादल से,
लहराते, उस आंचल से!

उस रोज!
किधर से, बह आई इक घटा!
बदली थी, कैसी छटा!
छलकी थी बूंदे,
सागर के, प्यासे तट पे!

उस रोज,
चीर गया था, कोई सन्नाटों को,
छेड़ गया, नीरवता को,
अवाक था, मैं, 
प्रश्न कई थे, उस पल में!

उस रोज,
किससे कहता मैं, सुनता कौन!
खड़ा यूं ही, रहा मौन,
यूं गिनता कौन!
वलय कई थे धड़कन में!

नीरव से, बहते उस पल में,
ठहरे से, जल में,
हलचल कितने थे, उस रोज!

Saturday, 3 February 2024

ढ़लती सांझ

ढ़लनी है, ढ़ल तो जाएगी ये सांझ,
रुकेंगी, वो कब तलक,
ठहरेंगी, वो कैसे!
प्रबल होती निशा, सिमटती दिशा,
बंदिशें, वक्त के हैं बहुत!

ढ़लनी है, ढ़ल तो जाएगी ये सांझ,
लघुतर, जीवन के क्षण,
विरह का, आंगन,
वृहदतर, तप्त उच्छवासों के क्षण,
इन्हें कौन करे पराजित!

ढ़लनी है, ढ़ल तो जाएगी ये सांझ,
पर बिखेर कर, किरणें,
उकेर कर, सपने, 
क्षितिज पर, उतार कर सारे गहने,
कर जाएगी, अभिभूत!

ढ़लनी है, ढ़ल तो जाएगी ये सांझ,
कर, नैनों को विस्मित,
हर जाएगी, मन,
खोलकर, बंद कितने ही चिलमन,
कर जाएगी, आत्मभूत!

ढ़लनी है, ढ़ल तो जाएगी ये सांझ..

Monday, 29 January 2024

मृत्यु या मोक्ष

कसता ही जाए, इक आगोश,
मृत्यु या मोक्ष!

कुछ आशा,
कुछ निराशा के, ये कैसे पल!
बस होनी है, इक,
या आवागमन, या कोई घटना,
कुछ घटित, कुछ अघटित,
हो जाए समक्ष,
या परोक्ष!

कसता ही जाए, इक आगोश,
मृत्यु या मोक्ष!

टलता कब,
सहारे उस रब के, रहता सब,
ये उम्र, ढ़ले कब,
घेरे सांसों के, जाने टूटे कब!
और मोह रुलाए पग-पग,
परे, जीवन के,
दूजा पक्ष!

कसता ही जाए, इक आगोश,
मृत्यु या मोक्ष!

सजग निशा,
सुलग-सुलग, बुझ जाती उषा,
यूं चलता ही जाए,
निरंतर काल-चक्र का पहिया,
उस ओर, जहां है क्षितिज,
या, अंतिम इक,
काल-कक्ष!

कसता ही जाए, इक आगोश,
मृत्यु या मोक्ष!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 25 January 2024

ऋतुओं के पहरे

लम्हों पर, ऋतुओं के पहरे,
वो, कब ठहरे!
रख छोड़े हमने, कुछ ख्वाब अधूरे...

इक आए, इक जाए,
देखे ऋतुओं के, नित रूप नए,
अब कौन, उन्हें समझाए,
सरमाए, ख्वाबों के,
हों, कब पूरे!

रख छोड़े हमने, कुछ ख्वाब अधूरे...

संशय में, पल सारे!
बदलते से, ऋतुओं संग गुजारे,
चलन रहा, यही सदियों,
ख्वाबों के, वो तारे,
रहे, बे-सहारे!

रख छोड़े हमने, कुछ ख्वाब अधूरे...

है इक, दग्ध हृदय,
संदिग्ध सा, उधर, इक वलय,
रोके, वो कब रुक पाए,
धार सा, बहा जाए,
वो, लम्हे सारे!

लम्हों पर, ऋतुओं के पहरे,
वो, कब ठहरे!
रख छोड़े हमने, कुछ ख्वाब अधूरे..

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 19 January 2024

अलिखित हस्तलिपि

अपितु, कठिन जरा!
पढ़ पाना,
जज्बातों की, अलिखित हस्तलिपि....

पीड़ बन, छलक पड़े जब संवेदना,
अश्रू, सिमटे ना,
कहती जाए, व्यथा की कथा,
सारे दर्द, सिलसिलेवार!

जटिल जरा,
मूक हृदय के, संघातो की ये संतति....

कोरों से छलके, जाए क्या कहके!
बतलाऊं कैसे?
कब इन्हें, शब्दों की दरकार?
वर्ण, लगे, बिन आकार!

है मूक बड़ा,
अनकहे जज्बातों की, ये प्रतिलिपि....

बूझे ही कब, जज्बातों की भाषा!
पाषाण हृदय,
जाने ही कब, मूक अभिलाषा,
अन्तः, पीड़ करे बेजार!

अपितु, कठिन जरा!
पढ़ पाना,
जज्बातों की, अलिखित हस्तलिपि....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 14 January 2024

कुहासे

थम जरा, ऐ तप्त सांसें,
सर्द हुई हवा,
हर ओर, जम रही ये दिशा,
चल रही, सर्द लहर,
जर्द ये कुहासे!

सफर, अब राहतों का,
तू थम जरा,
पल भर को, तू जम जरा,
ले आया, नव-विहान,
जर्द ये कुहासे!

जम चुका, ये आंगना,
ज्यूं भर रहा,
नव-संकल्प, नव-कल्पना,
रुख ही, वे बदल गईं,
जर्द से कुहासे!

लक्ष्य है, जरा धूमिल,
धूंध है भरा,
बस खुद पर, रख यकीन,
कुछ असर दिखाएगी,
जर्द ये कुहासे!

थम जरा, ऐ तप्त सांसें,
सर्द अब हवा,
सर्द हो चली, गर्म वो दिशा,
नव प्रवाह, भर गई, 
जर्द ये कुहासे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)