Monday 30 May 2016

ऐ अधीर मन

ऐ अधीर मन, तू धीरज रख, तू व्यग्र कभी न होना!

आकाक्षाओं की सीमा का कहीं अन्त नहीं,
अभिलाषाओं के पंछी पर कहीं तेरा वश नहीं,
तेरी उत्कंठाएँ तुझको खींचती है कहीं और,
देख तू संयम रख, दिगभ्रमित पल भर को न हो जाना,

ऐ अधीर मन, तू धीरज रख, तू व्यग्र कभी न होना!

वर्जनाओं के बंधन पाश यहाँ तुझको हैं घेरे,
जटिलताएँ इस जीवन की तेरी राहों के हैं रोड़े,
मोह के ये बंधन तुझको खीचते है कहीं और,
देख तू जरा संभल, अनियंत्रित इक पल को न हो जाना,

ऐ अधीर मन, तू धीरज रख, तू व्यग्र कभी न होना!

आश-निराश के पल जीवन में आएँगे जाएँगे,
विफलताओं के असह्य नीरव पल तुझको डराएंगे,
व्यथा के धागे तुझको ले जाएंगे कहीं और,
देख तू विश्वास रख, व्यथित इक पल को न हो जाना

ऐ अधीर मन, तू धीरज रख, तू व्यग्र कभी न होना!

Sunday 29 May 2016

मधुमय मुक्ताकाश

जीवन को मधुमय मधुमास बन जाने दो....

करुणा के भावमय मुक्ताकाश पर,
स्नेह का असीम विस्तार हो जाने दो,
जहाँ मुक्त हो हृदय के कंपन,
करुण प्रेम का प्रगाढ़ आभाष हो जाने दो,

जीवन को मधुमय मधुमास बन जाने दो....

कल्पना के विचरते मुक्ताकाश पर,
मानस पटल के विहग को उड़ जाने दो,
जहाँ विचरती हों कल्पनाशीलता,
मन की आशाओं को पंख लग जाने दो,

जीवन को मधुमय मधुमास बन जाने दो....

अभिलाषा के अनंत मुक्ताकाश पर,
विपुल आकांक्षाओं को प्रबल हो जाने दो,
जहाँ आसक्ति अनुराग हो मन में,
अंतःकरण के प्रसून प्रष्फुटित हो जाने दो,

जीवन को मधुमय मधुमास बन जाने दो....

Saturday 28 May 2016

लम्हों के विस्तार

निश्छल लम्हा, निष्ठुर लम्हा, यौवन लम्हों के साथ में...

हर लम्हा बीत रहा, इक लम्हे के इंतजार में,
हर लम्हा डूब रहा, उन लम्हों के ही विस्तार में,
आता लम्हा, जाता लम्हा, हर लम्हे के साथ में।

साँसे लेती ये लम्हा, बीते लम्हों की फरियाद में,
आह निकलती हर लम्हे से, उन लम्हों की याद में,
बीता लम्हा, खोया लम्हा, उन लम्हों के साथ में।

जीवन है हर लम्हा, बीता है जीवन इन लम्हों में,
हर पल बीतता लम्हा, खोया अपनों को इन लम्हों में,
रिश्ता लम्हा, नाता लम्हा, गुजरे लम्हों के साथ में।

हाथों से छूटा है लम्हा, लम्हे यादों सी सौगात में,
खुश्बू बन बिखरता लम्हा, हर लम्हा जीवन के साथ में,
हँसता लम्हा, हँसाता लम्हा, गम की लम्हों के बाद में।

वो पुकारता है लम्हा, लम्हा कहता है कानों में,
गुजरुँगा मैं तुझ संग ही, निर्झर सा तेरे संग विरानों में,
निश्छल लम्हा, निष्ठुर लम्हा, यौवन लम्हों के साथ में।

Friday 27 May 2016

वो चाय जो आदत बन गई

वो लजीज एक प्याली चाय जो अब आदत बन गई.....

सुबह की मंद बयार तन को सहलती जब,
अलसाई नींद संग बदन हाथ पाँव फैलाते तब,
अधखुले पलकों में उभरती तभी एक छवि,
चाय की प्याली हाथों में ले जैसे सामने कोई परी,
स्नेहमई मूरत चाय संग प्यार छलकाती रही,

वो लजीज एक प्याली चाय जो अब आदत बन गई.....

चाय की वो चंद बूँदें लगते अमृत की धार से,
एहसास दिलाते जैसे छलके हो मदिरा उन आँखों से,
सिंदुरी मांग सी प्यारी रंग दमकती उन प्यालों में,
चूड़ियों की खनखन के संग चाय लिए उन हाथों में,
अलबेली मूरत वो मन को सदा लुभाती रही,

वो लजीज एक प्याली चाय जो अब आदत बन गई.....

सांझ ढ़ले फिर कह उठते वो चाय के प्याले,
कुछ फुर्सत के मदहोश क्षण संग मेरे तू और बीता ले,
जहाँ बस मैं हुँ, तुम हो और हो नैन वही दो मतवाले,
तेरी व्यथा कब समझेंगे हृदयविहीन ये जग वाले,
मनमोहिनी सूरत वो चाय संग तुझे पुकारती,

वो लजीज एक प्याली चाय जो अब आदत बन गई.....

Thursday 26 May 2016

खुशफहमी

इन वादियों में इस शाम को फिर आज सुरमई कर लूँ.....

गुनगुनाती हुई इन फिजाओं में,
फिर भूला सा कोई गजल मैं भी कह लूँ,
कचनार कहीं फिर घुली हवाओं में,
अपनी गजलों में कुछ ताजगी मैं भर लूँ,
नकाब रुखसार से हटे जब आपकी,
उन लरजते होठों पे शबनमी गीत कोई मैं लिख दूँ।

ये वादियाँ हैं खुशफहमी की,
फिर भरम कोई प्रीत का मन में रख लूँ,
गजलों में ढ़लती उन फिजाँओं संग,
उनकी वजूद का कुछ वहम मैं संग कर लूँ,
वो चंपई रुखसार दिखे जब आपकी,
ढ़लती हुई इस शाम को गीतों से मैं सुरमई कर दूँ।

सज गई हैं अब कतारें फूलों की,
रंग कोई प्यार का फूलों से मैं भी माँग लूँ,
ऐ मन, गीत नया फिर कोई तू सुना,
उन गीतों में साज दिलों के मैं भी छेड़ लूँ,
गिर के पलकें फिर उठे जब आपकी,
फूलों के वो रंग उन पलकों में प्यार से मैं भर दूँ।

ढ़लती हुई इस शाम को फिर आज सुरमई कर लूँ.....

Wednesday 25 May 2016

साहिलों पे कहीं

लिखते रहे जिन्दगी की किताब सूखी साहिलों पे कहीं...

डोलती सी इक पतवार की तरह,
दूर खोए कहीं अपनी साहिल से वो थे,
उनकी फितरत तो थी टूटते एतवार की तरह,
वो साहिल के कभी तलबगार ही न थे।

मैं किताबों में बंद कहानी सा खोया साहिलों पे कहीं...

वो भँवर में रहे डूबते मौजों की तरह,
कहीं बेखबर जिन्दगी की कहानी से वो थे,
उनकी चाहत तो रही डूबते इन्तजार की तरह,
वो साहिलों के कहीं मुकाबिल ही न थे।

बिखरा है ये जीवन इन्तजार में उसी साहिलों पे कहीं...

जलती हुई चिंगारियाँ

मिट चुका है शायद, जल के वो आँशियाँ,
दिखते नहीं है अब वहाँ, जलते अनल के धुआँ,
उठ रहे है राख से अब, जलती हुई चिंगारियाँ,
जाने किस आग में, जला है वो आँशियाँ।

दो घड़ी सासों को वो, देता था जो शुकून,
वो शुकून अब नहीं, दो पल के वो आराम कहाँ,
मरीचिका सी लग रही, अब साँसों का ये सफर,
साँसों की आँधियों में, बिखरा है वो आँशियाँ ।

जल रहा ये शहर, क्या बचेगा वो आशियाँ,
आग खुद ही लगाई, अब बुझाए इसे कौन यहाँ,
अपने ही हाथों से हमने, उजाड़ा अपना ये चमन,
राख के ढ़ेर को ही अब, कह रहे हम आशियाँ।

Monday 23 May 2016

एक आलाप जीवन का

तुम तो आलाप भर उभरती हो मेरे गीतों में ढ़लकर।

हकीकत हो तुम मेरे अर्धजीवन की,
अर्धांगिनी हो तुम ही मेरी अधूरे सपन जीवन की,
संगिनी तुम ही अनचाहे इन दूरियों की,
सपनों में तुम बिखरते हो ख्यालों से निकलकर।

क्षण-क्षण छू जाते हो तुम हर रोज मुझे,
एक नया अधूरा मनचाहा ख्वाब सा बनकर...
अर्धजीवन की राहों पर देखता हूँ मैं तुमको छूकर,
हकीकत बन जब उभरते हो ख्वाबों से चलकर।

तुम अधूरी सी गीत कल्पना की चादरो में लिपटी,
कुछ शब्द अधूरे है मेरे दामन मे भी लिपटे,
अधूरे ख्वाबों के पल मे वो गीत पूरे से बनने लगते,
ये दुनिया यूँ ही कहती है कि तुम मेरे करीब नहीं........

तुम तो आलाप भर उभरती हो मेरे गीतों में ढ़लकर।

Sunday 22 May 2016

तृष्णा और आकांक्षा

जाने कब जगी पहली बार इक आकांक्षा मन में,

क्या तब? सृष्टि की रचना जब की रचयिता नें,
या फिर दे दी प्रबुद्धता भरकर जब उसने उस मन में,
या शायद भर दी होगी तृष्णा उसने ही जीवन में।

प्रबुद्ध तो हुए हम फिर है ये आकांक्षाएँ कैसी,
क्या विवेक के अन्दर ही अन्दर इ्च्छाएँ जन्म हैं लेती,
शायद इ्च्छाओं से ही विवश यहाँ है हर आदमी।

अनन्त इन इच्छाओं को पाने की होड़ है लगी,
आकांक्षाओं के अंदर ही अब प्रबुद्धता लुप्त हो रही,
रचयिता खुद अचम्भित गुण आध्यात्म कहाँ गई।

बदली सी फिजाँ

बदली सी है फिजाँ, अब इस शहर की मेरी,
हर शख्स ढूँढ़ता है यहाँ, इक आशियाँ अलग सी,
इक नाम मेरा है खुदा, चप्पे-चप्पे पे इस शहर की,
आशियाँ तो है मेरा, जर्रा जर्रा इस शहर की।

बदले हैं बस लोग, बदली कहाँ ये गलियाँ,
चैनो-ओ-शुकुन बदले हैं, गम ही गम है अब यहाँ,
चेहरों पे चेहरे हैं लगे, जुदा मुझसे मेरा साया यहाँ, 
दिल के करीब थे जो, गुमसुदा वो मुझसे यहाँ।

बदलते मौसमों से, बदले हैं अब रिश्ते यहाँ,
मुरझा चुके है फूल सब, रिश्तों के धागे लहुलुहाँ,
हर धड़कते दिलों के अन्दर, दर्द के सैकड़ों निशाँ,
लब्जों में छुपे हैं खंजर, मन से उठता है धुआँ।

सोचता हूँ आज मैं, कब लोग समझेंगे यहाँ,
रिश्तों की भीनी खुश्बुओं में, हम साँस लेते हैं यहाँ,
अंश नई कोपलों से कोमल, लहलहाते हैं अपने यहाँ,
हम धूल हैं इस शहर की, ये शहर है आशियाँ मेरा।