Tuesday 13 June 2017

ख्वाब जरा सा

तब!..........ख्वाब जरा सा मैं भी बुन लूंगा!

कभी चुपके से बिन बोले तुम आना,
इक मूक कहानी सहज डगों से तुम लिख जाना,
वो राह जो आती है मेरे घर तक,
उन राहों पर तुम छाप पगों की नित छोड़ जाना,
उस पथ के रज कण, मैं आँखों से चुन लूंगा,
तेरी पग से की होंगी जों उसने बातें,
उनकी जज्बातों को मैं चुपके से सुन लूंगा,
तब ख्वाब जरा सा मैं भी बुन लूंगा!

मृदुल बसन्त सी चुपके से तुम आना,
किल्लोलों पर गूँजती रागिणी सी कोई गीत गाना,
वो गगन जो सूना-सूना है अब तक,
उस गगन पर शीतल चाँदनी बन तुम छा जाना,
साँझ से शरम, प्रभात से प्रभा मैं ले आऊँगा,
तुमसे जो ली होंगी फूलों ने सुगंध,
वो सुगंधित वात मैं इन सासों में भर लूँगा,
तब ख्वाब जरा सा मैं भी बुन लूंगा!

Sunday 11 June 2017

अतृप्ति

अतृप्त से हैं कुछ,
व्याकुल पल, और है अतृप्त सा स्वप्न!
अतृप्त है अमिट यादों सी वो इक झलक,
समय के ढ़ेर पर......
सजीव से हो उठे अतृप्त ठहरे वो क्षण,
अतृप्त सी इक जिजीविषा, विघटित सा होता ये मन!

अनगिनत मथु के प्याले,
पी पीकर तृप्त हुआ था ये मन,
शायद कहीं शेष रह गई थी कोई तृष्णा!
या है जन्मी फिर.......
इक नई सी मृगतृष्णा इस अन्तःमन!
क्युँ इन इच्छाओं के हाथों विवश होता फिर ये मन?

अगाध प्रेम पाकर भी,
इतना अतृप्त क्युँ है यह जीवन?
जग पड़ती है बार-बार फिर क्युँ ये तृष्णा?
क्युँ जग पड़ते है.....
प्रतिक्षण इच्छाओं के ये फन?
विष पीने को क्युँ विचलित हो उठता है फिर ये मन?

हलचल व सम्मान

http://halchalwith5links.blogspot.in/2017/06/695.html?m=1&_utm_source=1-2-2

*पाँच लिंकों का आनन्द*

दिन भर ब्लॉगों पर लिखी पढ़ी जा रही 5 श्रेष्ठ रचनाओं का संगम[5 लिंकों का आनंद] ब्लॉग पर आप का ह्रदयतल से स्वागत एवं अभिनन्दन...

*रविवार, 11 जून 2017*

*695....पाठकों की पसंद.... आज के पाठक हैं श्री पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा*

सादर अभिवादन

आज इस श्रृंखला में प्रस्तुत है

*श्री पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा की पसंद की रचनाएँ...*
पढ़िए और पढ़ाइए....

*नदी का छोर...ओम निश्छल*
यह खुलापन
यह हँसी का छोर
मन को बाँधता है
सामने फैला नदी का छोर
मन को बाँधता है

*भ्रमण पथ.. कल्पना रामानी*
भ्रमण-पथ लंबा अकेला
लिपटकर कदमों से बोला
तेज़ कर लो चाल अपनी
प्राणवायु का है रेला
हर दिशा संगीतमय है
मूक सृष्टि
के इशारे

*'वो' गीत.......शिवनाथ कुमार*
पीर की गहराई में
दिल की तन्हाई में
ढूँढते खुद को
खुद की परछाई में
'वो' कुछ बोल पड़ा है
हाँ, 'वो' जो सोया पड़ा था

*गोधूलि होने को हुई है...आनन्द कुमार द्विवेदी*
हृदय तड़पा
वेदना के वेग से
ये हृदय तड़पा
अश्रु टपका
रेत में
फिर अश्रु टपका

*कुछ पल तुम्हारे साथ.....श्वेता सिन्हा*
मीलों तक फैले निर्जन वन में
पलाश के गंधहीन फूल
मन के आँगन में सजाये,
भरती आँचल में हरसिंगार,
अपने साँसों की बातें सुनती


*घोर आश्चर्य...*
श्री सिन्हा जी की पसंद बहुत ही निराली है पर...
उनके अपने ब्लॉग की कोई रचना नहीं..

हमें आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि भविष्य में भी

इनकी पसंदीदा रचनाएं पढ़ने को मिलेगी

*दिग्विजय*

*:: पाठक परिचय ::*

मेरा परिचय अति साधारण है।

12 अगस्त 1968 को माता श्रीमति ऊषा सिन्हा एवं पिता स्व.रत्नेश्वर प्रसाद के आंगन मेरा जन्म हुआ तथा बचपन से ही अपनी बड़ी माँ श्रीमति सुलोचना वर्मा,  जो स्वयं हिन्दी की कुशल शिक्षिका एवं सक्षम कवयित्री है, के सानिध्य में पलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ फलतः हिन्दी लेखन का शौक एक आकार लेता गया। 1987-1990 में कृषि स्नातक तथा 1992 से इलाहाबाद बैंक में अधिकारी के रूप में कार्य करते हुए, वर्तमान में मुख्य प्रबंधक,  व्यस्तता के कारण लेखनी को आगे नहीं ले जा पाया। अभी कोशिश जारी है। अब तक लगभग अपनी 700 रचनाओं के साथ आपके समक्ष प्रस्तुत हूँ तथा जल्द ही अपनी कविताओं की श्रृंखला प्रकाशित कराने की योजना है।

सादर।।।।

*पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा*

*Digvijay Agrawal पांच लिंकों का आनंद पर... 4:00 am*

Thursday 8 June 2017

कुछ और दूरियाँ

अंततः चले जाना है हमें, इस जहाँ से कहीं दूर,
शाश्वत सत्य व नि:शब्द चिरशांति के पार,
उजालों से परिपूर्ण होगी वो अन्जानी सी जगह,
चाह की चादर लपेटे धूलनिर्मित इस देह को बस,
चलते हुए कुछ और दूरियाँ करनी है तय।

अंततः लिपट जाना है हमें, धू-धू जलती आग में,
धुआँ बन उड़ जाना है नील गगन के पार,
छोड़ कर तन, कर भाग्य मोह पाश को खंडित,
मन गगन को इस अग्निपथ पर साथ लेकर बस,
चलते हुए कुछ और दूरियाँ करनी है तय।

अंततः मिल जाना है हमें, अग्निरंजित मृत जरा में,
सारगर्भित बसुंधरा के कण-कण के पार,
सज सँवर काल के गतिमान रथ पर हो आरूढ,
उस लोक तक की दूरियाँ, मैं तय करूँगा बस,
चलते हुए कुछ और दूरियाँ करनी है तय।

अंततः बिखर जाना है हमें, परमेश्वरीय आलोक में,
होकर अकिंचन, चाह, ऐश्वर्य, वैभव के पार,
न रहेगा भाग्य संचित, न ही होगी कोई चाह किंचित,
न दुख होगा, न तो सुख, न ही कोई आह, बस,
चलते हुए कुछ और दूरियाँ करनी है तय।

अंततः टूट छोटे से कणों में, लाल लपटों से धुएँ में,
नैनों के नीर रंजित से अरु अश्रुओं के पार,
भावनाओं के सब बांध तोड़ ओस बन कर गिरूंगा,
फिर बिखर कर यहीं चहुंओर मैं महकूँगा, बस,
चलते हुए कुछ और दूरियाँ करनी है तय।

Sunday 28 May 2017

प्रेम के कल्पवृक्ष

ऐ नैसर्गिक प्रेम के मृदुल एहसास,
फैल जाओ तुम फिर इन धमनियों में रक्त की तरह,
फिर लेकर आओ वही मधुमास,
के देखूँ जिधर भी मैं दिशाओं में मुड़कर,
वात्सल्य हो, सहिष्णुता हो, हर आँखों मे हो विश्वास,
लोभ, द्वेश, क्लेश, वासना, तृष्णा का मन जले,
कण-कण में हो सिर्फ प्रेम का वास.....

प्रेम ...!
न जाने कितनी ही बार,दुहराया गया है यह शब्द,
कितनी बार रची गई है कविता,
कितनी बार लिखा गया है इतिहास ढाई आखर का
जिसमें सिमट गई है....
पूरी दुनिया, पूरा ब्रह्माँड, पूरा देवत्व,
रचयिता तब ही रच पाया होगा इक कल्पित स्वर्ग...

अब ...! प्रेम वात्सल्य यहीं कहीं गुम-सुम पड़ा है,
पाषाण से हो चुके दिलों में,
संकुचित से हो चुके गुजरते पलों में,
इन आपा-धापी भरे निरंकुश से चंगुलों में,
ध्वस्त कर रचयिता की कल्पना, रचा है हमने नर्क...

सुनो..! चाहता हूँ मैं फिर लगाऊँ वात्सल्य के कल्पवृक्ष,
ठीक वैसे ही जैसे....
समुद्र के बीच से जगती है ढेह सी लहरें
बादलों की छाती से फूट पड़ते है असंख्य बौछारें
शाम की धुली अलसाई हवा कर जाती है रूमानी बातें,
अचानक सूखते सोते भर जाते हैं लबालब....

क्युँ न ..!
एक बार फिर से रक्त की तरह हमारे धमनियों में,
दौड़ जाए प्रेम की नदी !
और खिल जाएँ प्रेम के कल्पवृक्ष.....

Saturday 27 May 2017

कोरी सी कल्पना

शायद महज कोरी सी कल्पना या है ये इक दिवास्वप्न!

कविताओं में मैने उसको हरपल विस्तार दिया,
मन की भावों से इक रूप साकार किया,
हृदय की तारों से मैने उसको स्वीकार किया,
अभिलाषा इक अपूर्ण सा मैने अंगीकार किया...

शायद महज कोरी सी कल्पना या है ये इक दिवास्वप्न!

कभी यूँ ही मुलुर मुलुर तकते मुझको वो दो नैन,
वो प्रखर से शब्द मुझको करते हैं बेचैन,
फिर मूक वधिर बन कभी लूटते मन का चैन,
व्यथा में बीतते ये पल, न कटते ये दिन न ये रैन.....

शायद महज कोरी सी कल्पना या है ये इक दिवास्वप्न!

कभी निर्झरणी सी बह गई वो नैनों से अश्रुधार बन,
स्तब्ध मौन रही कभी नील गगन बन,
या रिमझिम बारिश सी भिगो गई तन्हा ये मन,
खलिश है ये कोई, या है ये कई जन्मों का बंधन.....

शायद महज कोरी सी कल्पना या है ये इक दिवास्वप्न!

Friday 26 May 2017

मदान्ध

होकर मदान्ध सौंदर्य में, तू क्यों इतना इतराए रे....

ऐ पुष्प तू है कोमल, तू है इतनी स्निग्ध,
गिरी टूटकर जो शाखाओ से, है तेरा बचना संदिग्ध,
हो विकसित नव प्रभात में, संध्या तू कुम्हलाए रे,
चटकीली रंगों पर फिर क्युँ इतना इठलाए रे।

होकर मदान्ध सौंदर्य में, तू क्यों इतना इतराए रे....

वो देखो पंखुड़ियों के, बिखरे है अवशेष,
तल्लीन होकर जरा तू पढ़ ले, है इनमें कुछ सन्देश,
शालीन प्रारम्भ के अंतस्थ ही तो अंत समाया रे,
क्षणभंगुर उपलब्धि पर क्युँ इतना इठलाए रे।

होकर मदान्ध सौंदर्य में तू क्यों इतना इतराए रे....

अस्त होते ही दिनकर,जीवन होगा व्यतीत,
किन्तु कहना इस अंतराल में तुम्हे कैसा हुआ प्रतीत,
अलिदल का गूंज बृथा था, जिसने गंध चुराया रे,
सप्तदल इक मृषा था फिर तू क्यूँ इठलाए रे।

होकर मदान्ध सौंदर्य में तू क्यों इतना इतराए रे....