Thursday 31 August 2017

स्वमुल्यांकण


सब कुछ तो है यहाँ, मेरा नहीं कुछ भी मगर!

ऊँगलियों को भींचकर आए थे हम जमीं पर,
बंद थी हथेलियों में कई चाहतें मगर!
घुटन भरे इस माहौल में ऊँगलियां खुलती गईं,
मरती गईं चाहतें, कुंठाएं जन्म लेती रहीं!

यहाँ पलते रहे हम इक बिखरते समाज में?
कुलीन संस्कारों के घोर अभाव में,
मद, लोभ, काम, द्वेष, तृष्णा के फैलाव में,
मुल्य खोते रहे हम, स्वमुल्यांकण के अभाव में!

जाना है वापस हमें ऊँगलियों को खोलकर,
संस्कारों की बस इक छाप छोड़कर,
ये हथेलियाँ मेरी बस यूँ खुली रह जाएंगी,
कहता हूँ मैं मेरा जिसे, वो भी न साथ जाएगी!

Monday 28 August 2017

मैं और मेरे दरमियाँ

ऐ जिन्दगी, इक तू ही तो है बस, मैं और मेरे दरमियाँ!

खो सा गया हूँ मुझसे मैं, न जाने कहां!
ढूंढता हूँ खुद को मैं, इस भीड़ में न जाने कहां?
इक तू ही है बस और कुछ नहीं मेरा यहाँ!
अब तू ही है बस मैं और मेरे दरमियाँ!

ये रात है और कुछ कह रही खामोशियाँ!
बदले से ये हालात हैं, कुछ बिखर रही तन्हाईयाँ!
संग तेरे ख्यालों के, खोया हुआ हूँ मैं यहाँ!
अब तू ही है बस मैं और मेरे दरमियाँ!

सिमटते हुए ये दायरे, शाम का ये धुआँ!
कह रही ये जिन्दगी, तू ले चल मुझको भी वहाँ!
मुझसे मुझको छीनकर तुम चल दिए कहां!
अब तू ही है बस मैं और मेरे दरमियाँ!

रंगों से है भर चुकी फूलों भरी ये वादियाँ!
कोई गीत गुनगुना रही है पर्वतों की ये घाटियां!
खो सा गया हूँ मुझसे मैं यहीं न जाने कहाँ!
अब तू ही है बस मैं और मेरे दरमियाँ!

ऐ मेरी जिन्दगी, मुझको भी तू ले चल वहाँ!
जी लूँ बस घड़ी दो घड़ी, मैं भी सुकून के जहाँ!
पल दो पल मिल सकूँ मै भी मुझसे जहाँ!
ऐ जिन्दगी, इक तू ही तो है बस, मैं और मेरे दरमियाँ!

Sunday 27 August 2017

भ्रम के शहर

हो न हो! भ्रम के इस शहर में कोई भ्रम मुझे भी हो?

भ्रमित कर रही हो जब हवाएँ शहर की!
दिग्गभ्रमित कर गई हों जब हवाएँ वहम की!
निस्तेज हो चुकी जब ईश्वरीय आभाएँ!
निश्छल सा ये मन फिर कैसे न भरमाए?

हो न हो! भ्रम के इस शहर में कोई भ्रम मुझे भी हो?

प्रहर प्रशस्त हो रही हो जब निस्तेज की!
कुंठित हुई हो जब किरण आभा के सेज की!
भ्रमित हो जब विश्वास की हर दिशाएँ!
सुकोमल सा ये मन फिर कैसे न भरमाए?

हो न हो! भ्रम के इस शहर में कोई भ्रम मुझे भी हो?

अभिमान हो जब ईश्वरीय सीमा लांघने की!
समक्ष ईश के अधिष्ठाता लोक के बन जाने की!
स्वयं को ही कोई ईश्वर का बिंब बताए!
विश्वास करके ये मन फिर कैसे न भरमाए?

हो न हो! भ्रम के इस शहर में कोई भ्रम मुझे भी हो?

Saturday 26 August 2017

आभार

" कविता जीवन कलश"
https://purushottamjeevankalash.blogspot.com
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Thanks to My Worldwide Readers......

Friday 25 August 2017

जेहन में कहीं

ले रही है साँसें, मेरी यादें किसी के जेहन में कहीं....

सहेजे रक्खा है किसी ने यादों में मुझे,
सजदों में किसी ने फिर से पुकारा है मुझे,
हम ही हम है उनकी राहों में कहीं,
शायद उन आँखों मे है सिर्फ मेरी ही नमी....

ले रही है साँसें, मेरी यादें किसी के जेहन में कहीं....

महक उठा है खुश्बुओं से मेरा गुलशन,
फिर से तन में उठी है अंजानी कोई सिहरन,
इक छुअन सी फिर मुझको है हुई,
शायद इन एहसासों में कहीं वो ही तो नहीं....

ले रही है साँसें, मेरी यादें किसी के जेहन में कहीं....

जलाए है उसने मेरी ही यादों के दिए,
लग रहा छँटने लगे अंधेरो के ये घुप साए,
सजने लगी विरान सी राहें ये मेरी,
शायद इन्तजार किए राहों में वो भी तो नही.....

ले रही है साँसें, मेरी यादें किसी के जेहन में कहीं....

Thursday 24 August 2017

भादो की उमस

दुरूह सा क्युँ हुआ है ये मौसम की कसक?

सिर्फ नेह ही तो .....
बरसाए थे उमरते गगन ने!
स्नेह के....
अनुकूल थे कितने ही ये मौसम!
क्युँ तंज कसने लगी है अब ये उमस?
दुरूह सा क्युँ हुआ....
ये बदली का असह्य मौसम?
प्रतिकूल क्युँ है...
ये भादो की चिलमिलाती सी कसक?

कहीं तंज कस रहे...
ये प्रतिकूल से होते ये मौसम!
कही बाढ की भीषण विभीषिका!
कई चीखें ....
कही हो चली है इनमें दफन!
क्युँ भर चली है....
इस मौसम में ये अगन सी तमस?
क्युँ व्यंग भर रहे...
ये भादो की चिपचिपाती सी उमस?

कई साँसें लील गई...
आपदा प्रकृति की कुछ ऐसे बढी?
मुरझा गई बेलें कई....
खिलकर मुस्कुरा भी न ये सकी!
ये कैसी है घुटन...
क्युँ है ये मौसम की तपन?
क्युँ बिताए न बिते...
ये भादो की तिलमिलाती सी उमस!

दुरूह सा क्युँ हुआ है ये मौसम की कसक?

Wednesday 23 August 2017

कलपता सागर

हैं सब, बस उफनती सी उन लहरों के दीवाने,
पर, कलपते सागर के हृदय की व्यथा शायद कोई ना जाने!

पल-पल विलखती है वो ...
सर पटक-पटक कर तट पर,
शायद कहती है वो....
अपने मन की पीड़ा बार-बार रो रो कर,
लहर नहीं है ये....
है ये अनवरत बहते आँसू के सैलाब,
विवश सा है ये है फिर किन अनुबंधों में बंधकर....

कोई पीड़ दबी है शायद इसकी मन के अन्दर,
शांत गंभीर सा ये दिखता है फिर क्युँ, मन उसका ही जाने?

बोझ हो चुके संबंधों के अनुबंध है ये शायद!
धोए कितने ही कलेश इसने,
सारा का सारा.......
खुद को कर चुका ये खारा,
लेकिन, मानव के कलुषित मन...
धो-धो कर ये हारा!
हैं कण विषाद के, अब भी मानव मन के अन्दर,
रो रो कर यही, बार-बार कहती है शायद ये लहर.....

ठेस इसे हमने भी पहुँचाया है जाने अनजाने!
कंपित सागर के कलपते हृदय की व्यथा शायद कोई ना जाने!

Friday 18 August 2017

अधर

सुंदर हैं वो अधर, मेरे शब्दों में जो भरते हैं स्वर...

ओ संगनिष्ठा, मेरे कोरे स्वर तू होठों पे बिठा,
जब ये तेरे रंगरंजित अधरों का आलिंगन ले पाएंगे,
अंबर के अतिरंजित रंग इन शब्दों मे भर जाएँगे!

शब्दों के मेरे रंगरंजित स्वर, रंग देंगे ये तेरे अधर...

ओ बासंती, कोकिल कंठ तू शब्दों को दे जा,
प्रखर से ये तेरे स्वर लेकर ही, ये मुखरित हो पाएंगे,
सुर के ये सप्तम स्वर मेरे शब्दों में भर जाएँगै।

अधरों की सुरीली चहचहाहट में डूबे हैं मेरे स्वर....

ओ अधरश्रेष्ठा, कंपन होठों की इनको दे जा,
चंचल से दो अधरों के कंपन की जब उष्मा ये पाएंगे,
अर्थ मेरे इन शब्दों के कहीं व्यर्थ नहीं जाएँगे।

अधरों की कंपित वीणा मे होंगे ये मेरे स्वर प्रखर...

Wednesday 16 August 2017

भावस्निग्ध

कंपकपाया सा क्युँ है ये, भावस्निध सा मेरा मन?

मन की ये उर्वर जमीं, थोड़ी रिक्त है कहीं न कहीं!
सीचता हूँ मैं इसे, आँखों में भरकर नमीं,
फिर चुभोता हूँ इनमें मैं, बीज भावों के कई,
कि कभी तो लहलहाएगी, रिक्त सी मन की ये जमीं!

पलकों में यूँ नीर भरकर, सोचते है मेरे ये नयन?

रिक्त क्युँ है ये जमीं, जब सिक्त है ये कहीं न कहीं?
भिगोते हैं जब इसे, भावों की भीगी नमी,
इस हृदय के ताल में, भँवर लिए आते हैं ये कई,
गीत स्नेह के अब गाएगी,  रिक्त सी मन की ये जमीं!

भावों से यूँ स्निग्ध होकर, कलप रहा है क्युँ ये मन?

Tuesday 15 August 2017

अव्यक्त कहानी

रह गई अब अव्यक्त जो, वही इक कहानी हूँ मैं!

आरम्भ नही था जिसका कोई,
अन्त जिसकी कोई लिखी गई नहीं,
कल्पना के कंठ में ही रुँधी रही,
जिसे मैं  परित्यक्त भी कह सकता नहीं।

चुभ रही है मन में जो, वही इक पीर पुरानी हूँ मैं!

व्यक्त इसे कही करता कोई,
काश! मिल जाता इसे प्रारब्ध कोई,
बींध लेता कोई मन के काँटे कहीं,
असह्य सी ये पीर पुरानी कभी होती नही।

वक्त में धुमिल हुई जो, वही भूली निशानी हूँ मैं!

साहिल पे लिखी गजल कोई,
या रेत में ढली खूबसूरत महल कोई,
बहाकर मौजें लहर की ले चली,
भूली सी वो दास्तां जो अब यादों में नहीं।

व्यक्त फिर से ना हुई जो, वही इक कहानी हूँ मैं!