Friday 30 March 2018

किसलय

नील नभ के निलय में, खिल आए ये किसलय...

नव आशा के निलय से,
झांक रही वो कोमल किसलय,
इक नई दशा, इक नई दिशा,
करवट लेती इक नई उमंग का,
नित दे रही ये आशय....

नील नभ के निलय में, खिल आए ये किसलय...

कोमल सी इन कलियों में,
जन्म ले रहा इक जीवट जीवन,
बाधाओं को भी कर बाधित,
प्रतिकूल स्थिति को अनूकूल कर,
जिएंगी ये बिन संशय....

नील नभ के निलय में, खिल आए ये किसलय...

पंखुड़ियों पर ही खेलती,
प्रचन्ड रवि की ये उष्मा झेलती,
स्वयं नव ऊर्जा संचित कर,
जीने के ये खुद मार्ग प्रशस्त करती,
सुकोमल से ये किसलय....

नील नभ के निलय में, खिल आए ये किसलय...

सिमटते एहसास

कुछ तो है! जिसमें हर पल घिरा हैं ये मन .....

है क्या ऐसी बात?
हरा भरा सा है मन का ये आंगन,
कहीं बजने लगती है संगीत,
गूंज उठती है मन की ये सूनी वादी,
कलरव करते ये विहग....
खुला-खुला सा ये विस्तृत आकाश,
उड़ने को आकुल ये मन,
कुछ हलकी बूंदो से बस भीगा है ये तन,
पर लगता है, गहराया है ये सावन....

कुछ तो है! जिसमें हर पल घिरा हैं ये मन .....

जैसे पुकारता हो कोई!
कहीं फैलाया हों किसी ने दामन,
इन्तजार में कहीं सूना हो कोई आंगन,
सूना हो बाहों का आलिंगन,
एकटक देखती हो राहें,
नींद में ढ़लकी सी बेजार हो आँखें,
अधखुले से हों जैसे नयन,
सम्हाले हाथों में आँचल का दामन,
निढ़ाल हो चुका हो जैसे ये तन....

कुछ तो है! जिसमें हर पल घिरा हैं ये मन .....

जैसे सिमटे हों एहसास!
कोई फूल खिला हो मन के आंगन,
बिखरे हों रंग जमी पर,
समाया हो सागर में नीला आकाश,
उतरा हो बादल मन की जमीं पर,
गीला हो मन का आंगन,
फिसलते हों पाँव यहीं पर,
चुप हो ये जुबाँ बस बोलता हो मन,
सिमटते एहसासों में हो मगन.....

कुछ तो है! जिसमें हर पल घिरा हैं ये मन .....

Wednesday 28 March 2018

भावनाओं के भँवर

ये आकर फसे हैं हम कहाँ.......
भावनाओं के भँवर में,
यातनाओं के इस सफर में,
रात मे या दोपहर में....

खुश कितने ही थे हम यहाँ......
प्रस्फुटित हुई जब भावना,
मोह वही दे रही ये प्रताड़ना,
मन के इस खंडहर में.....

कलपते रहे जब तक यहाँ......
पुलकित हुई ये भावना,
सैलाब है अब आँसुओं का,
हम फसे उसी भँवर में......

यातनाओं का ये कहर यहाँ....
देती रहेगी ये भावना,
मुखरित होती है ये और भी,
विछोह हो जब सफर मे......

ये विदाई के तमाम पल यहाँ....
भावनाए होती है जवाँ,
तब विलखते हैं हम यातना में,
खुशियों के इसी शहर में....

ये आकर फसे हैं हम कहाँ.......
भावनाओं के भँवर में,
यातनाओं के इस सफर में,
रात मे या दोपहर में....

Tuesday 27 March 2018

भावना या यातना

तुम बहाओ ना मुझे, फिर उसी भावना में.....

ठहर जाओ, न गीत ऐसे गाओ तुम,
रुक भी जाओ, प्रणय पीर ना सुनाओ तुम,
जी न पाऊँगा मैं, कभी इस यातना में....

न सुन सकूंगा, मैं तुम्हारी ये व्यथा!
फिर से प्रणय के टूटने की व्याकुल कथा,
टूट मैं ही न जाऊँ, कहीं इस यातना में....

यूं इक-इक दल, बिखरते हैं फूल से,
आह तक न भरते है, वो लबों पे भूल से,
यूं ना डुबोओ, तुम मुझे यूं भावना मे....

यूं दर्द के साज, क्यूं बजा रहे हो तुम,
सो चुके हम चैन से, क्यूं जगा रहे हो तुम,
चैन खो न जाए मेरा, इस यातना में.....

हाल पे मेरी, जरा तरस खाओ तुम...
भावना या यातना! ये मुझको बताओ तुम,
गुजरा हूं मैं भी, कभी इस यातना मे.....

बह न जाऊँ मैं, कहीं फिर उसी भावना में......

Saturday 24 March 2018

कशमकश

न जाने, दर्द का कौन सा शहर है अन्दर,
लिखता हूँ गीत, तो आँखें रीत जाती हैं,
कहता हूँ गजल, तो आँखें सजल हो जाती हैं...

ये कशमकश का, कौन सा दौर है अन्दर,
देखता हूँ तुम्हें, तो आँखे भीग जाती हैं,
सोचता हूँ तुम्हें, तो आँखें मचल सी जाती हैं...

इक रेगिस्तान सा है, मेरे मन का शहर,
ये विरानियाँ, इक तुझे ही बुलाती है,
तू मृगमरीचिका सी, बस तृष्णा बढाती है...

ये कशमकश है कैसी, ये कैसा है मंजर,
जो देखूँ दूर तक, तू ही नजर आती है,
जो छूता हूँ तुम्हें, सायों सी फिसल जाती है...

न जाने, अब किन गर्दिशों का है कहर,
पहर दो पहर, यादों में बीत जाती है,
ये तन्हाई मेरी, कोई गजल सी बन जाती है....

Thursday 22 March 2018

चुप्पी! बोलती खामोशी...

यूं ही मन को न था, इन बातों में बहक जाना....

चुप्पी तोड़ती हुई इक खामोशी,
बंद लफ्जों की वो सरगोशी,
वो नजरों की भाषा में चिल्लाना,
दूर रहकर भी पास आ जाना,
खामोशी का वो इक चुप सा तराना...

यूं ही मन को न था, इन बातों में बहक जाना....

चुप-चुप सा था, वो इक पर्वत,
बड़ी गहरी थी वो खामोशी,
वो खामोशियों में कुछ बुदबुदाना,
यूं चुपचाप ही कहते जाना,
उस ओर कदमों का यूं मचल जाना....

यूं ही मन को न था, इन बातों में बहक जाना....

बादलों की, वो बोलती खामोशी,
बरस गई जब वो जरा सी,
बूंदों का यूं फिर जमी पर बिखरना,
यूं ही तब चेहरों का भिगोना,
चुपचाप लय में बरसात की हो लेना....

यूं ही मन को न था, इन बातों में बहक जाना....

चुप कहां थी, ये बहती हवा भी,
चली वो भी आँचल उड़ाती,
गेसूओं का फिर हवाओं में लहराना,
सिहरन बदन में भर जाना,
बहती हवा संग, झूलों सा झूल जाना....

यूं ही मन को न था, इन बातों में बहक जाना....

बोलती बहुत है, ये खामोशियाँ,
चुप्पी तोड़ती है इनकी जुबां,
यूं ही तन्हाईयों का कहीं गुनगुनाना,
खामोश सा वो ही तराना,
तन्हा वादियों में, खूद को भूल जाना....

यूं ही मन को न था, इन बातों में बहक जाना....
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Wednesday 21 March 2018

चुप क्यूं हैं सारे?

लफ्जों पे जड़े ताले, चुप क्यूं रहते हैं सारे?

जब लुटती है अस्मत अबला की,
सरेआम तिरस्कृत होती है ये बेटियाँ,
बिलखता है नारी सम्मान,
तार तार होता है समाज का कोख,
अधिकार टंग जाते हैं ताख पर,
विस्तृत होती है असमानताएँ...
ये सामाजिक विषमताएँ....
बहुप्रचारित बस तब होते हैं ये नारे...

वर्ना, लफ्जों पे जड़े ताले, चुप क्यूं हैं सारे?

जब बेटी चढती हैं बलि दहेज की,
बदनाम होते है रिश्तों के कोमल धागे,
टूटता है नारी का अभिमान,
जार-जार होता है पुरुष का साख,
पुरुषत्व लग जाता है दाँव पर,
दहेज रुपी ये विसंगतियाँ....
ये सामजिक कुरीतियाँ...
समाज-सुधारकों के बस हैं ये नारे...

शेष, लफ्जों पे जड़े ताले, चुप क्यूं हैं सारे?

जब होती है भ्रुणहत्या बेटियों की,
निरपराध सुनाई जाती हैं सजाए मौत,,
अजन्मी सी वो नन्ही जान,
वो जताए भी कैसे अपना विरोध,
हतप्रभ है वो ऐसी सोंच पर,
सफेदपोशों का ये कृतघ्न.....
ये अपराध जघन्य....
नारी भ्रुणहत्या अक्षम्य, के बस हैं नारे...

शेष, लफ्जों पे जड़े ताले, चुप क्यूं हैं सारे?

( विश्व कविता दिवस 21 मार्च पर विशेष - बेटियों को समर्पित मेरी रचना, सामाजिक विषमताओं के विरुद्ध एक अलख जगाने की मेरी कोशिश)

Tuesday 20 March 2018

संशय

कुछ पूछे बिन लौट आता है, मन बार-बार....

पलते हैं इस मन शंका हजार,
मन को घेरे हैं संशय, कर लेता हूं विचार!
क्या सोचेंगे वो! क्या समझेंगे वो? 
क्या होगा उनका व्यवहार?
गर, मन की वो बातें, रख दूं उतार!
फिर, लाखों संशय से मन घिर जाता है!
डरता है, घबराता है, सकुचाता है.....
जाता है उन राहों पे हर-बार....

कुछ पूछे बिन लौट आता है, मन बार-बार....

फिर करता हूं मन को तैयार,
संशय में जीता, संशय में मरता हूं यार?
क्या संशय में मिल पाएंगे वो?
क्या यह संशय है बेकार?
या त्याग दूं संशय, हो जाऊँ बेजार!
फिर, संशय की बूंदों से मन घिर जाता है!
भीगता है, रुकता है, फिर चलता है...
जाता है भीगी राहों पे हर-बार....

कुछ पूछे बिन लौट आता है, मन बार-बार....

Sunday 18 March 2018

अधलिखा अफसाना

बंद पलकों तले, ढ़ूंढ़ता हूं वही छाँव मैं...
कुछ देर रुका था जहाँ, देखकर इक गाँव मैं....

अधलिखा सा इक अफसाना,
ख्वाब वो ही पुराना,
यूं छन से तेरा आ जाना,
ज्यूं क्षितिज पर रंग उभर आना..
और फिर....
फिजाओं में संगीत,
गूंजते गीत,
सुबह की शीत,
घटाओं का उड़ता आँचल,
हवाओं में घुलता इत्र,
पंछियों की चहक,
इक अनोखी सी महक,
चूड़ियों की खनक,
पत्तियों की सरसराहट,
फिर तुम्हारे आने की आहट,
कोई घबराहट,
काँपता मन,
सिहरता ये बदन,
इक अगन,
सुई सी चुभन,
फिर पायलों की वही छन-छन,
वो तुम्हारा पास आना,
वो मुस्कुराना,
शर्म से बलखाना,
वो अंकपाश में समाना,
वापस फिर न जाना,
मन में समाना,
अहसास कोई लिख जाना,
है अधलिखा सा इक वो ही अफसाना....

बंद पलकों तले, ढ़ूंढ़ता हूं वही छाँव मैं...
कुछ देर रुका था जहाँ, देखकर इक गाँव मैं....

Saturday 17 March 2018

टेढ़े मेढ़े मेड़ - खंड खंड भूखंड

खंड-खंड खेतों को बांटते ये टेढ़े-मेढ़े मेड़...

टेढी मेढ़ी लकीेरों से पटी ये धरती,
जैसे विषधर लेटी हो धरती के सीने पर,
चीर दिया हों सीना किसी ने,
चली हो निरंकुश स्वार्थ की तलवार, 
खंड खंड होते ये बेजुबान भूखंड.....

मानसिकता के परिचायक ये टेढ़े-मेढ़े मेड़...

ये तेरा, ये मेरा, ये खंड खंड बसेरा,
ये लालसा ये पिपासा, ये स्वार्थ का डेरा,
ये संकुचित होती मानसिकता,
ये सिमटते से रिश्तों का छोटा संसार,
ये खंड खंड हुए बिलखते भूखंड.....

खंड-खंड रिश्तों को बांटते ये टेढ़े-मेढ़े मेड़...

वाद-विवाद, रिश्तों में आई खटास, 
मन की भूखंड पर पनपते ये विषाद वॄक्ष,
अपनो के लहू से रंगे ये हाथ,
टेढे मेढे मेडों पर सरकता काला नाग!
यूं खंड खंड होते रिश्तों के भूखंड.....

खंड-खंड जीवन को करते ये टेढ़े-मेढ़े मेड़...

गर होते ये मेड़ संस्कारों के,
कुसंस्कार प्रविष्ट न हो पाते जीवन में,
पनपते कुलीन विचार मन में,
मेड़ ज्ञान की दूर करती अज्ञानता,
स्वार्थ हेतु खंड खंड न होते ये भूखंड....

काश! निश्छल मन को न बांटते ये टेढ़े मेढ़े मेड़....