एकाकी मन खग सा उड़े,
अंतहीन गगन मरूस्थल मे,
जाने किस तृष्णा ने घेरा,
प्रतिपल एकाकीपन मन मे।
मन एकाकी तृष्णाओं मध्य,
ज्युँ मरुस्थल तरु एकाकी,
राग उन्माद इसने फिर छेड़ा,
अचल एकाकीपन मन में।
तारों की मृगतृष्णाओं ने घेरा,
उड़ता ये सीमाहीन अनंत में,
युग बीते तन हुए अब जर्जर,
तरुण एकाकीपन पर मन मे।
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